छत्रपती शिवाजी महाराज – दोस्तों, आज हम छत्रपती शिवाजी महाराज जी के बारे में जानेंगे, हम उनके जीवन के बारे में, उनके अभियानों के बारे में, उनके संघर्षों के बारे में, उनके प्रशासन के बारे में, उनके वंशजों के बारे और मराठा साम्राज्य के बारे में जानेंगे।
जिस समय छत्रपती शिवाजी महाराज ने मराठा साम्राज्य की नींव रखी थी तब उनके बहुत सारे विरोधी पहले से ही भारत में थे जैसे की उस समय भारत में मुगल साम्राज्य भी चल रहा था।
इसके साथ-साथ उस समय भारत में बहुत सी यूरोपीय कंपनियां भी व्यापार की दृष्टि से भारत में आ रही थी और वे भी भारत में अपने आप को मज़बूत बनाने की होड़ में लगे हुए थे और मैसूर और बंगाल भी अपने आप को श्रेष्ठ बनाने में लगा हुआ था।
इतने संघर्षों के बीच में छत्रपती शिवाजी महाराज ने मराठा साम्राज्य की नींव रखी थी और केवल नींव ही नहीं रखी बल्कि मराठा साम्राज्य को सुदृढ़ और बहुत मज़बूत भी बनाया था।
मूल रूप से जिस समय छत्रपती शिवाजी महाराज के मराठा साम्राज्य का उद्भव हो रहा था उस समय दिल्ली में मुगल शासक औरंगज़ेब शासन कर रहा था और दक्षिण क्षेत्रों में बीजापुर साम्राज्य चल रहा था।
छत्रपती शिवाजी महाराज का जीवन परिचय
जन्म | 1627, शिवनेर |
पिता | शाहजी भोसले |
माता | जीजाबाई |
महाराज शिवाजी के राजनीतिक गुरु / संरक्षक | दादाजी कोंडदेव |
आध्यात्मिक गुरु | गुरु रामदास |
पत्नी | साईबाई |
छत्रपती शिवाजी महाराज का जन्म महाराष्ट्र क्षेत्र के शिवनेर नामक स्थान में 1627 को हुआ था और शिवनेरी देवी के नाम के ऊपर महाराज शिवाजी का नाम रखा गया था और महाराज शिवाजी भोसले वंश से संबंधित थे।
उनके पिता का नाम शाहजी भोसले था और उनकी माता का नाम जीजाबाई था, जो लाखुजी जाधवराव की पुत्री थी और महाराज शिवाजी के ऊपर उनकी माता का प्रभाव बहुत ज्यादा था।
महाराज शिवाजी की माता एक योद्धा थी, और उन्होंने महाराज शिवाजी को बचपन से ही धार्मिक ग्रंथो का ज्ञान दिया था जैसे रामायण व महाभारत और उन्होंने महाराज शिवाजी के वीर योद्धा बनने की नींव बचपन में ही रख दी थी और इस प्रकार हम यह कह सकते हैं की शिवाजी महाराज की माता उनकी प्रथम गुरु थी।
1480 में जब बहमनी साम्राज्य 5 भागों में विभाजित हुआ था और इन 5 भागों को दक्कन सल्तनत के नाम से संबोधित किया जाता था जिसमे वर्तमान के महाराष्ट्र और आंध्रप्रदेश जैसे क्षेत्र थे, तो उन 5 भागों में से एक भाग था, जिसका नाम आदिलशाही साम्राज्य था और इस आदिलशाही साम्राज्य में महाराज शिवाजी के पिता शाहजी भोसले एक बड़े जागीरदार के रूप में कार्य करते थे।
छत्रपती शिवाजी महाराज के दो गुरु थे, पहले उनके राजनीतिक गुरु थे, जो उनके संरक्षक भी थे, इनका नाम दादाजी कोंडदेव था और दूसरा उनके आध्यात्मिक गुरु थे जिनसे उनको धर्म संबंधी ज्ञान प्राप्त हुआ था और उनका नाम गुरु रामदास था।
शिवाजी महाराज की कुल 7 पत्नियां थी, जिनमें से सबसे प्रथम पत्नी का नाम साईबाई था और इनसे महाराज शिवाजी का 1640 में विवाह हुआ था।
छत्रपती शिवाजी महाराज के अभियान एवं संघर्ष
दोस्तों, जैसे की हमने ऊपर चर्चा की, जब महाराज शिवाजी अपना मराठा साम्राज्य बनाने और उसे सुदृढ़ करने की ओर अग्रसर थे, तब उस समय मुगल शासक औरंगज़ेब शासन कर रहा था और जैसे की हमने हमारे औरंगज़ेब वाले आर्टिकल में भी जाना था की औरंगज़ेब एक कट्टर इस्लाम को मानने वाला शासक था।
इसके साथ-साथ औरंगज़ेब ने हिन्दुओं पर बहुत सारी हिन्दू विरुद्ध नीतियां भी चलाई थी, ऐसे में छत्रपती शिवाजी महाराज एक मज़बूत और स्वतंत्र हिन्दू राष्ट्र की संकल्पना के साथ संघर्ष और अभियान करते हैं, आइये उन अभियानों पर दृष्टि डालें:
सबसे पहले महाराज शिवाजी अपनी सेना बनाने का कार्य प्रारंभ करते हैं और इस क्रम में उनके मावल क्षेत्र में कई साथी बन जाते हैं और उस समय मावल क्षेत्र के लोगों के साथ बहुत भेद-भाव किया जाता था और उन्हें पिछड़ा माना जाता था, परंतु महाराज शिवाजी की सोच ऐसी बिलकुल भी नहीं थी और इसी क्षेत्र से वे अपनी सेना बनाने का कार्य करते हैं।
शिवजी महाराज मावल क्षेत्र के लोगों से उनकी सेना में आने का प्रस्ताव रखते है और वहां के लोगों को उनका सम्मान और उनकी पहचान वापस दिलाने का आश्वासन देते है और 16 वर्ष की आयु में महाराज शिवाजी ने कहा था की वे हिन्दू स्वराज को लेकर आएंगे।
स्वतंत्र हिन्दू राष्ट्र की संकल्पना के साथ छत्रपती शिवाजी महाराज का सबसे पहला अभियान बीजापुर के शासक आदिलशाह के विरुद्ध हुआ था और इस क्रम में उन्होंने 1643 में सिंहगढ़ के किले को जीतकर उसपे अपना अधिकार कर लिया था।
1645 में तोरना किले के सेनापति इनायत खां को महाराज शिवाजी ने अपनी बातों से और कुछ पैसे देकर इस किले पर अपना अधिकार कर लिया था, इसके साथ-साथ बहुत से ऐसे किले थे जिनको महाराज शिवाजी द्वारा उनकी बातों से ही जीत लिए गए थे और उन्हें कोई युद्ध नहीं लड़ना पड़ा था जैसे चकान किला और कोंडाणा किला आदि।
जब आदिल शाह को महाराज शिवाजी के बढ़ते विजय क्रम के बारे में सूचना मिली, और क्यूंकि उनके पिता आदिलशाही साम्राज्य में ही कार्य करते थे जिसके संबंध में हमने ऊपर चर्चा की थी, तब आदिल शाह द्वारा महाराज शिवाजी के पिता को कैद कर लिया गया था।
इस स्थिति में महाराज शिवाजी ने यह निर्णय लिया की कुछ समय तक आक्रमण न करने की जगह अपने सैन्य बल को मजबूत किया जाए, इसलिए वे दुबारा मावल क्षेत्रों में गए और अपनी सैन्य शक्ति को और भी ज्यादा मजबूत किया और गोरिल्ला युद्ध पद्धति के साथ अपने आगे के युद्ध लड़े।
मावल क्षेत्रों के पश्चिमी घाटों से महाराज शिवाजी बाल्यावस्था से ही काफी परिचित थे, जिसके फलस्वरूप उन्हें युद्धों के समय गोरिल्ला युद्ध पद्धति में काफी सहयोग भी मिला था, इस युद्ध पद्धति में सेना छुप कर वार करती थी।
उन्होंने 1649 से लेकर 1654-1655 तक अपने आक्रमणों पर अंकुश लगा दिया और अपना सैन्य बल बढ़ाने पर ज्यादा ज़ोर दिया था।
उनके पिता शाहजी भोसले जैसे ही आदिल शाह की कैद से रिहा हुए, उसके बाद महाराज शिवाजी ने पुनः अपने आक्रमणों को शुरू कर दिया था और फिर से किलों को जीतने का कार्य शुरू कर दिया था।
इसके बाद महाराज शिवाजी द्वारा 1654 में पुरंदर के किले को जीतकर उसपे अधिकार किया गया था।
इसके बाद महाराज शिवाजी का विजय क्रम बढ़ता चला गया और उन्होंने मुगलों के खिलाफ भी काफी संघर्ष किया और मुगलों को बहुत हद तक ध्वस्त किया जिस कारण औरंगज़ेब ने अपने शासनकाल के अंतिम 25 वर्ष दक्षिण भारत में ही व्यतीत करे थे और इस बिंदु को लेकर हमने औरंगज़ेब वाले आर्टिकल में भी जाना था।
महाराज शिवाजी और अफज़ल खां की मुलाकात
आदिल शाह ने महाराज शिवाजी की बढ़ती हुई शक्ति के क्रम में अफज़ल खां नामक सूबेदार जो की बीजापुर का सूबेदार था, उसको महाराज शिवाजी के पास संधि के लिए बीजापुर की ओर से आदिल शाह के द्वारा भेजा गया था, परंतु वास्तव में वह महाराज शिवाजी की हत्या की चाह से उनके पास मिलने के लिए आया था।
अफज़ल खां बीजापुर के प्रमुख सूबेदारों में था और उसका कद लगभग 6.5 फ़ीट जितना लंबा था, उस समय इसके बारे में यह कहा जाता था की यह इतना शक्तिशाली था की यह अपने हाथों से किसी का सर दबोच देता था।
महाराज शिवाजी और अफज़ल खां की मुलाकात प्रतापगढ़ में हुई थी, शिवाजी महाराज की अफज़ल खां से मुलाकात से पहले उनके अधिकारियों ने उन्हें अफज़ल खां के बारे में सचेत किया और फिर शिवाजी महाराज पूरी तैयारी के साथ अफज़ल खां से मिलने गए थे।
दोनों की प्रतापगढ़ में 10 नवंबर, 1659 में मुलाकात हुई थी।
छत्रपती शिवाजी महाराज ने अफज़ल खां के इरादों को पहचान लिया था और उसके मंसूबों पर पानी फेरने के लिए अपनी पूरी तैयारी भी कर ली थी, महाराज शिवाजी ने अपनी सेना को जंगलों में छुपने का आदेश दे दिया था, इसके साथ बाघनख हथियार जो बाघों के नाखूनों जितना तेज होता है वह हथियार अपने साथ छुपाके ले गए थे और खुद भी एक स्टील का कवच पहन कर अफज़ल खां से मिलने चले गए।
अफज़ल खां ने अपनी योजना के अनुसार धोखे से शिवाजी महाराज के ऊपर खंजर से प्रहार किया, परंतु स्टील का कवच होने के कारण उस खंजर का शिवाजी महाराज पर कोई असर नहीं हुआ और तब शिवाजी महाराज 1659 में अफज़ल खां की हत्या कर देते हैं और उसी समय प्रतापगढ़ का युद्ध होता है और मराठा सेना द्वारा बीजापुर के लगभग 3000 सैनिकों को मार दिया जाता है और इसके साथ प्रतापगढ़ के किले पर भी अधिकार कर लिया जाता है।
इसके बाद अफज़ल खां के परिवार को भी कैद कर लिया जाता है, परंतु शिवाजी महाराज एक धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति थे, इसलिए उन्होंने इस्लाम या कोई भी अन्य धर्म के विरुद्ध हत्याकांड नहीं करवाया था और उनकी सेना में भी कई मुस्लिम योद्धा थे।
इसके बाद उसी वर्ष 1659 में ही पन्हाला का किला शिवाजी महाराज द्वारा जीत लिया गया था।
इसके अगले वर्ष आदिल शाह ने बदला लेने हेतु अपने जनरल जिसका नाम सिद्दी जौहर था, उसे शिवाजी महाराज के विरुद्ध अभियान के लिए भेजा था, जिसके बाद पावनखिंड का युद्ध हुआ जिसमें शिवाजी महाराज को विजय प्राप्त हुई थी और इसके बाद दक्कन के क्षेत्र में शिवाजी महाराज का बहुत ज्यादा प्रभुत्व हो गया था।
वीर शिवाजी महाराज और मुगलों का संघर्ष
1657 तक शिवाजी महाराज और मुगलों के बीच ज्यादा संघर्ष देखने को नहीं मिलता है क्यूंकि तब तक बीजापुर और उसके आसपास के क्षेत्रों के साथ ही शिवाजी महाराज के ज्यादा अभियान हुए थे।
शिवाजी महाराज के अधिकारियों ने 1657 में अहमदनगर जो की उस समय मुगलों के अधिकार क्षेत्रों में आता था, वहां पर अपना हस्तक्षेप कर दिया था और इसके साथ-साथ जूनार के क्षेत्र पर भी अपना हस्तक्षेप कर दिया था और यहां से शिवाजी महाराज के अधिकारियों द्वारा करीब 200 घोड़े और बहुत सारा धन लूटा गया था।
फिर औरंगज़ेब ने नासिरी खां को शिवाजी महाराज की सेना को हराने के लिए भेजा जिसमे वह सफल भी हुआ था और उसने शिवाजी महाराज की सेना को उस समय हरा दिया था।
वीर शिवाजी महाराज की इन सारी विजय गाथाओं और उनका उनके विरोधियों के ऊपर जीतों को देख कर मुगल शासक औरंगज़ेब भी चिंतित हो जाता है कि वीर शिवाजी महाराज की शक्तियां ज्यादा न बढ़ जाएं और तब बीजापुर और मुगल शिवाजी महाराज के विरुद्ध एक साथ हो गए।
इस क्रम में औरंगज़ेब ने अपने मामा जिसका नाम शाइस्ता खां था, उसे दक्षिण में मराठा क्षेत्र में भेजा ताकि वीर शिवाजी महाराज के प्रभाव और शक्तियों पर अंकुश लगाया जाए, शाइस्ता खां की सेना की संख्या करीब 1,50,000 थी।
तब शाइस्ता खां ने पुणे क्षेत्र में शिवाजी महाराज के कुछ किलों पर अभियान करना शुरू किया और अपने कब्ज़े में लेना शुरू कर दिया था, इसके साथ-साथ उसने शिवाजी महाराज के लाल महल को भी अपने कब्ज़े में ले लिया था।
तब 1663 में शिवाजी महाराज ने शाइस्ता खां से निपटने के लिए अपनी रणनीति बनाई और वे बहुत कम संख्या का एक समूह बनाकर शाइस्ता खां के किले के अंदर चुप कर दाखिल हुए और उसे बहुत जख्मी कर दिया था, जिसके बाद शाइस्ता खां वहां से अवसर पा कर औरंगज़ेब के पास वापस भाग जाता है और औरंगज़ेब भी शाइस्ता खां को उसके ड़रपोक और खराब युद्ध नीति के लिए दण्डित करता है।
इस प्रकार शिवाजी महाराज द्वारा शाइस्ता खां को बुरी तरह से पराजित किया जाता है।
इसके एक वर्ष बाद ही 1664 में मुगलों के अंतर्गत आने वाले धनवान क्षेत्र सूरत को भी शिवाजी महाराज द्वारा लूटा गया था और 5 जनवरी 1664 में सूरत के युद्ध में मुगल सेनापति इनायत खां को भी बहुत बुरी तरह शिवाजी महाराज ने हराया था।
5 जनवरी 1664, के अगले 4 से 5 दिनों तक मराठाओं ने सूरत से बहुत सारा धन लूटा और इस क्रम में किसी आम व्यक्ति को हानि नहीं पहुंचाई गई थी और लगभग 1 करोड़ की राशि इस लूट में शिवाजी महाराज ने प्राप्त की थी।
पुरंदर की संधि
इस लूट के बाद मुगल सत्ता को काफी बड़ी चोट पहुंची थी और फिर मुगल शासक औरंगज़ेब द्वारा कछवाहा राजा जयसिंह को 1665 में शिवाजी महाराज के साथ संघर्ष करने के लिए भेजा गया था और राजा जय सिंह की सेना करीब 15,000 की थी।
कछवाहा राजा जयसिंह और शिवाजी महाराज के बीच काफी संघर्ष हुआ था, वे राजा जयसिंह को पराजित तो कर सकते थे परंतु उस समय जहां शिवाजी महाराज का निवास स्थान था, वहां बहुत सारे परिवार भी रहते थे और युद्ध होने से बहुत सारे लोगों की जान पर खतरा हो सकता था।
यह सोच कर शिवाजी महाराज ने राजा जयसिंह से संधि करने का निर्णय लिया था और तब 11 जून 1665 में दोनों के मध्य पुरंदर की संधि हुई थी।
इस संधि में जो शर्तें थी वे कुछ इस प्रकार हैं:
1. | शिवाजी महाराज को अपने जीते हुए 35 किलों में से 23 किले मुगलों को देने पड़े। |
2. | शिवाजी महाराज को अपने पुत्र छत्रपति संभाजी महाराज को मुगलों के अधीन मनसबदारी व्यवस्था में भेजना पड़ा। था जिसमें छत्रपति संभाजी महाराज के पास 5000 सेना बल की शक्ति थी। |
3. | शिवाजी महाराज को मुगलों को उनकी आवश्यकता के अनुसार मदद करनी थी। |
4. | इसके साथ शिवाजी महाराज द्वारा 4,00,000 सोने की हुण की राशि मुगलों को दी गई। |
5. | शिवाजी महाराज को अगर कोंकण क्षेत्र चाहिए तो उन्हें मुगलों को 40 लाख की राशि देनी थी। |
वीर शिवाजी महाराज का कैद से भागने का अभियान
बाद में इसी पुरंदर की संधि के संबंध में छत्रपति शिवाजी महाराज 1666 में आगरा में औरंगज़ेब के दरबार में गए थे और वहां औरंगज़ेब द्वारा शिवाजी महाराज के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया गया था, जिसका शिवाजी महाराजा ने विरोध किया और इस कारण औरंगज़ेब ने उन्हें कैद करके जयपुर महल भेज दिया था।
शिवाजी महाराज ने अपने आप को कैद से छुड़ाने का प्रयास किया और वे कैद से भागने में भी सफल हो गए थे, कहा जाता है की वे अपने जन्मदिन के क्रम में मिठाईयां बाटने हेतु अपने किसी हमशक्ल को कैद में रखकर खुद कैद से भाग निकले थे।
कैद से भाग निकलने के बाद उन्होंने फिर से मराठा साम्राज्य की कमान संभाली और एक बार फिर से मुगलों के नियंत्रण क्षेत्र में आने वाले सूरत को लूटा था और यह लूट शिवाजी महाराज ने 1670 में की थी और वहां उस समय यूरोपीय कंपनियां जैसे अंग्रेजी और डच कंपनियों ने भी अपनी फैक्ट्रियां लगा ली थी उनको भी शिवाजी महाराज द्वारा नुकसान पहुँचाया गया क्यूंकि उन्होंने इन यूरोपीय कंपनियों का उद्देश्य भारत को लूटना बताया था और इस प्रकार 2 बार सूरत को शिवाजी महाराज द्वारा लूटा गया था।
छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा मराठा साम्राज्य की स्थापना
छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा इतनी विजयों के बाद भी अपना राज्याभिषेक नहीं करवाया गया था, और जब उनका राज्याभिषेक हुआ था तो वह बहुत भव्य राज्याभिषेक हुआ था और पिछले लगभग 450-500 वर्ष में जबसे इस्लामिक आक्रमणकारियों के द्वारा भारत को लूटा गया और यहाँ राज किया गया था, तबसे किसी हिन्दू राजा का इतना भव्य राज्याभिषेक नहीं हुआ था।
परंतु जब शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक हो रहा था तब उनके दरबार के कुछ ब्राह्मणों द्वारा उनकी जाति को लेकर विरोध किया गया, उनके द्वारा यह कहा गया की शिवाजी महाराज एक क्षत्रिय नहीं है और एक क्षत्रिय ही राजा बन सकता है और शिवाजी महाराज खेती करने वाले गाँवों के मुखिया पदों अर्थात कृषक समाज से संबंधित रखते थे।
इसके अलावा कुछ ब्राह्मणों द्वारा शिवाजी महाराज को शूद्र तक बोल दिया गया था।
तब इस क्रम में उन्होंने 6 जून 1674 को उस समय के बनारस के प्रख्यात पंडित गंगा भट्ट को बुलाया था और उन्होंने शिवाजी महाराज को सिसोदिया राजपूतों का वंशज बताया, इस प्रकार पंडित गंगा भट्ट ने उनको एक क्षत्रिय बताया और तब उनके द्वारा शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक करवाया गया था।
रायगढ़ के किले में उनका राज्याभिषेक हुआ था और तब से उन्हें छत्रपति के नाम से बुलाया जाने लग गया था और इसके साथ उन्होंने मराठा साम्राज्य की भी 1674 में स्थापना कर दी थी।
शिवाजी महाराज ने अपने इस राज्याभिषेक के क्रम में एक विवाह भी किया था, जिनका नाम सोयराबाई था।
इस क्रम में 18 जून, 1674 में शिवाजी महाराज की माता जीजाबाई की मृत्यु हो गई थी।
जब शिवाजी महाराज ने अपने राज्याभिषेक में छत्रपति की उपाधि ली उसके बाद उन्होंने दक्षिण में मुगलों के अधिकार क्षेत्रों पर अभियान करना शुरू कर दिया था।
इस क्रम में उन्होंने खान्देश का अभियान, बीजापुर-पोंडा का अभियान, कारवार का अभियान, कोल्हापुर का अभियान किया जिसमे उन्हें विजय प्राप्त हुई थी और दक्कन के क्षेत्रों में रह रहे हिन्दुओं से बाहर से आई इस्लामिक शक्तियों के खिलाफ भी खड़े होने के लिए प्रेरित किया।
1677 में वे हैदराबाद गए और उस समय वहां शासन कर रही क़ुतुब शाही सत्ता से एक संधि भी की थी।
इसके बाद 1678 में शिवाजी महाराज द्वारा उनका अंतिम अभियान करा कर्नाटक के विरुद्ध करा जाता है और वहां उन्होंने जिंजी के किले पर विजय प्राप्त करी और उसे अपने अधिकार में ले लिया था।
बाद में शिवाजी महाराज अपने पुत्र संभाजी महाराज को लेकर बहुत चिंतित रहते हैं और इसी चिंता में उनका स्वास्थ्य धीरे-धीरे खराब होने लगता है और खराब स्वास्थ्य के कारण 52 वर्ष की आयु में 3 अप्रैल, 1680 को शिवाजी महाराज की मृत्यु हो जाती है, दोस्तों कुछ किताबों में आपको 3 से लेकर 5 अप्रैल तक की तारीख देखने को मिल सकती है क्यूंकि इस तिथि को लेकर इतिहासकारों में बहुत मतभेद है।
दोस्तों, अगर हम कुछ अपने विचार रखे तो अगर शिवाजी महाराज का जीवन काल थोड़ा ज्यादा होता तो पूरी संभावनायें यह थी की वे भविष्य में मुगलों और उस समय भारत में बढ़ रही यूरोपीय कंपनियां जैसे अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी उनको खत्म कर सकते थे।
शिवाजी महाराज के बाद उनके वंशजों भी हिन्दू स्वराज के साथ उनकी संकल्पना के साथ आगे बढ़े।
छत्रपति शिवाजी महाराज का प्रशासन
दोस्तों, जैसे की भारत में बाहरी आक्रमणकारियों के कारण जो हिन्दू व्यवस्था धीरे-धीरे समाप्त होती जा रही थी, उस हिन्दू व्यवस्था को छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा दुबारा उजागर करने का प्रयास किया गया था।
इसी हिन्दू मान्यताओं और सिद्धांतों के आधार पर छत्रपति शिवाजी महाराज ने अपनी प्रशासन व्यवस्था को बनाया था।
इस प्रशासन व्यवस्था की सबसे बड़ी विशेषता इसकी अष्टप्रधान परिषद थी, जिसमे 8 मंत्री हुआ करते थे।
इन 8 मंत्रियों की अष्टप्रधान परिषद की सलाह और सहायता से छत्रपति शिवाजी महाराज अपनी प्रशासन व्यवस्था संभालते थे, परंतु इसमें अंतिम निर्णय शिवाजी महाराज का ही होता था और अष्टप्रधान परिषद उन्हें सलाह मात्र ही दे सकती थी। यह अष्टप्रधान मंत्री परिषद कुछ इस प्रकार थी:
1. | पेशवा ( सबसे महत्वपूर्ण मंत्री ) |
2. | आमात्य – अर्थमंत्री |
3. | सुमंत – विदेश मंत्री |
4. | चिटनिस – पत्राचार विभाग |
5. | सेनापति |
6. | न्यायाधीश |
7. | पंडितराव – मुख्य सलाहकार एवं धार्मिक कार्य |
8. | वाकयानवीस – गुप्तचर एवं सूचना विभाग |
पेशवा पद सबसे महत्वपूर्ण मंत्री का होता था और बाद में यह पेशवा पद मराठा साम्राज्य में बहुत प्रभावशाली हो जाता है और इतना प्रभावशाली हो जाता है की बाद में पेशवा ही मराठा साम्राज्य को संभालने लग जाते हैं।
आमात्य अर्थात अर्थमंत्री का कार्य सम्राज्य के राजस्व और कर व्यवस्था को संभालना होता था।
सुमंत अर्थात विदेश मंत्री का कार्य दूसरे राज्यों से संबंधों का नियंत्रण रखना होता था।
चिटनिस अर्थात पत्राचार विभाग का कार्य राज्य में चिट्ठियों का नियंत्रण करना होता था।
सेनापति सेना संबंधी कार्यों की देखरेख करता था।
न्यायाधीश द्वारा राज्य की न्याय व्यवस्था संभाली जाती थी, परंतु अगर शिवाजी महाराज कोई फैसला दे देते थे, तो उनका फैसला अंतिम न्याय माना जाता था।
पंडितराव का धार्मिक कार्यों में राजा को सलाह देना होता था और धार्मिक कार्यों की देखरेख करनी होती थी।
वाकयानवीस अर्थात गुप्तचर एवं सूचना विभाग का कार्य राज्य को जरूरी सूचनाओं को पहुंचना होता था।
छत्रपति शिवाजी महाराज की कर व्यवस्था
शिवाजी महाराज के समय उनके द्वारा 33 प्रतिशत से लेकर 40 प्रतिशत तक कर ( tax ) लिया जाता था और दो प्रमुख कर थे जिनका नाम चौथ कर और सरदेशमुखी कर था।
सरदेशमुखी कर शिवाजी महाराज द्वारा उनके अधिकार क्षेत्रों से लिया जाता था और इसमें राजस्व का 1/10 भाग कर के रूप में प्रजा से लिया जाता था क्यूंकि वहां का रखरखाव और देखभाल स्वंय शिवाजी महाराज करते थे।
चौथ कर शिवाजी महाराज द्वारा उनके राज्य के आसपास के क्षेत्रों से लिया जाता था जहां पर शिवाजी महाराज का अधिकार नहीं था, उन क्षेत्रों से यह कर इसलिए लिया जाता था क्यूंकि शिवाजी महाराज द्वारा उन क्षेत्रों पर आक्रमण नहीं किया जाएगा और इसके साथ उन क्षेत्रों को शिवाजी महाराज द्वारा सहायता भी दी जायगी, इस चौथ कर में राजस्व का ¼ भाग कर के रूप में लिया जाता था।
छत्रपति शिवाजी महाराज से संबंधित महत्वपूर्ण बिंदु
1. | शिवाजी महाराज एक सहिष्णु शासक थे और इस्लाम धर्म का भी आदर करते थे और इसके साथ उनकी सेना में भी बहुत से मुस्लिम सिपाही थे। |
2. | इतिहासकार स्मिथ ने शिवाजी महाराज के प्रशासन को डाकू प्रशासन के नाम से संबोधित किया है, क्यूंकि शिवाजी महाराज अपने युद्धों में गुरिल्ला युद्ध पद्धति का उपयोग करते थे, जिसको गामिनी कावा भी कहा जाता है जिसका अर्थ दुश्मन होता है, इसमें सेना छुप कर वार करती है और आक्रमण के बाद फिर से छुप जाती है। |
3. | इतिहासकार जादूनाथ सरकार द्वारा शिवाजी महाराज को हिन्दू राष्ट्र के निर्माता, प्रथम राष्ट्र के निर्माता कहकर संबोधित किया गया है। |
4. | शिवाजी महाराज द्वारा एक बहुत बड़ी नौसेना का निर्माण किया गया था, जिसके कारण इन्हें फादर ऑफ़ इंडियन नेवी ( Father of Indian Navy ) के नाम से भी संबोधित किया जाता है। |
5. | जब छत्रपति शिवाजी महाराज की मृत्यु हुई थी तब उनकी पत्नी जिनका नाम पुतलीबाई था, वे शिवाजी महाराज के साथ सती ( पति की मृत्यु के बाद पत्नी का भी पति के साथ अंतिम संस्कार होना ) हो गई थी। |
छत्रपति शिवाजी महाराज के वंशज
दोस्तों, जब शिवाजी महाराज की 1680 में मृत्यु हो जाती है, तब उसके बाद उनके वंशजों में सत्ता को लेकर थोड़ा संघर्ष देखने को मिलता है और ऐसे में उनके दो पुत्रों का नाम हमें देखने को मिलता है।
इनमे से एक पुत्र की चर्चा हमने ऊपर भी की थी और वे थे शिवाजी महाराज की पहली पत्नी साईबाई के पुत्र संभाजी महाराज और दूसरे पुत्र का नाम राजाराम था और इनमे से जेष्ठ पुत्र संभाजी महाराज थे।
संभाजी महाराज ( 1680 – 1689 )
संभाजी महाराज उस समय मराठा साम्राज्य को संभालने के लिए उपस्थित नहीं थे और यह अवसर पाकर राजाराम ने मराठा साम्राज्य की सत्ता को अपने हाथों में ले लिया था।
परंतु संभाजी महाराज 1680 में वापस आते हैं और राजाराम से मराठा साम्राज्य की सत्ता को वापस लेकर शासन करने लग जाते हैं।
इस क्रम में वे अपनी राजधानी रायगढ़ में बसाते हैं और राजाराम को अपनी गिरफ्त या यूँ कहें की अपनी निगरानी में रखते हैं।
जब संभाजी महाराज मराठा साम्राज्य के शासक बने तो उनके सामने कई चुनौतियां आईं और ये चुनौतियां किसी बाहरी शक्तियों के द्वारा नहीं बल्कि अपने साम्राज्य में ही ये चुनौतियां थी क्योंकि सत्ता को लेकर उनके सौतेले भाइयों से कलह, आंतरिक कलह का माहौल और कुछ दरबारी भी संभाजी महाराज के विरुद्ध थे।
इन संघर्षों के क्रम में संभाजी महाराज ने एक ऐसे व्यक्ति को अपने सबसे बड़े अधिकारी पद के लिए नियुक्त किया जिसपर वे पूर्ण विश्वाश रख सकते थे और उस व्यक्ति का नाम कवि कलश था।
बाद में एक घटना होती है, उस समय मुगल वंश में मुगल शासक औरंगज़ेब शासन कर रहा था और उसका एक पुत्र था जिसका नाम अकबर था, उसने अपने पिता औरंगज़ेब के विरुद्ध विद्रोह कर दिया था और विद्रोह करने के क्रम में वह मराठा क्षेत्रों में आ जाता है और संभाजी महाराज से शरण मांगता है।
औरंगज़ेब भी अपने पुत्र के पीछे-पीछे मराठा साम्राज्य में आ जाता है और उसके पुत्र अकबर को शरण देने के लिए संभाजी महाराज और उनके विश्वासी कवि कलश को पकड़ लेता है।
तब 1689 में औरंगज़ेब द्वारा संभाजी महाराज और उनके विश्वासी कवि कलश को मृत्यु दंड दे दिया जाता है।
राजाराम ( 1689 – 1700 )
जब संभाजी महाराज को औरंगज़ेब द्वारा मृत्यु दंड दे दिया गया, उस समय उनका एक पुत्र था जिनका नाम शाहू महाराज था और वे केवल 7 वर्ष के थे, उसके बाद राजाराम जो संभाजी महाराज की निगरानी में थे उनके पास बहुत अच्छा अवसर राजा बनने का था।
इस प्रकार राजाराम 1689 में मराठा साम्राज्य की सत्ता संभाल लेते हैं और राजाराम को यह आभास था की मुगल मराठा साम्राज्य को अपने अधीन करना चाहते हैं, इसलिए राजाराम द्वारा रायगढ़ से राजधानी स्थानांतरित करके सतारा को मराठा साम्राज्य की राजधानी बनाया गया था।
मुगलों द्वारा रायगढ़ के ऊपर दुबारा आक्रमण किया जाता है और संभाजी महाराज के पुत्र शाहू महाराज, उनकी माता और उनके अधिकांश परिवार को औरग़ज़ेब द्वारा गिरफ्तार कर लिया जाता है।
इस क्रम में राजाराम के पास पूरा मराठा साम्राज्य शासन करने के लिए होता है, परंतु वे मुगलों के कारण अपने साम्राज्य को ज्यादा विस्तार नहीं दे पाते हैं।
बाद में 1700 में राजाराम की मृत्यु हो जाती है।
इसके बाद राजाराम के पुत्र शिवाजी द्वितीय को शासन संभालना था, परंतु वे अल्पवयस्क थे जिसके कारण उनकी माता यानी राजाराम की पत्नी महारानी ताराबाई शिवाजी द्वितीय की संरक्षिका के रूप में मराठा साम्राज्य का शासन संभालती है।
छत्रपति शाहू महाराज ( 1707 – 1749 )
1707 में औरंगज़ेब की भी मृत्यु हो जाती है और उसकी मृत्यु के बाद उसके पुत्र आज़मशाह द्वारा शाहू महाराज को रिहा कर दिया जाता है, आज़मशाह ने यह इसलिए किया था क्यूंकि वह चाहता था की शाहू महाराज उसकी मुग़ल सत्ता को प्राप्त करने में सहायता प्रदान करेंगे।
जब शाहू महाराज मुगलों की कैद से रिहा होकर वापस मराठा साम्राज्य में आए, तो उन्होंने सत्ता को वापस लेने के लिए महारानी ताराबाई के साथ खेड़ा नामक स्थान में संघर्ष करा था, और इस संघर्ष में शाहू महाराज को विजय प्राप्त हुई और इस प्रकार शाहू महाराज को मराठा साम्राज्य की सत्ता वापस मिल गई थी।
इसके बाद मराठा साम्राज्य दो भागों में बंट जाता है, सतारा जिसे शाहू महाराज ने महारानी ताराबाई से संघर्ष करके जीत लिया था और वे वहां से अपना शासन चलाते हैं और शाहू महाराज से हारने के बाद शिवाजी द्वितीय कोल्हापुर से अपना शासन चलाते हैं।
पेशवा
दोस्तों, ऊपर हमने मराठा साम्राज्य के प्रशासन में पेशवा पद की चर्चा की थी यह पेशवा पद शाहू महाराज के शासन के समय धीरे-धीरे बहुत प्रभावशाली हो जाता है जो की शिवाजी महाराज के समय इतना प्रभावशाली नहीं था।
शाहू महाराज के शासनकाल के समय से पेशवा पद वंशानुगत बन जाता है और पेशवा के बाद उसका पुत्र अगला पेशवा बनता है और समय के साथ धीरे-धीरे राजा की शक्तियां कमज़ोर होती जाती है और पेशवा पद की शक्ति मज़बूत होती जाती है।
बालाजी विश्वनाथ ( 1713 – 1720 )
1713 में बालाजी विश्वनाथ पेशवा पद पर आते हैं और शाहू महाराज के समय बालाजी विश्वनाथ ऐसे पेशवा थे जिनके बाद से पेशवा पद की शक्तियां मज़बूत होना प्रारंभ हो जाती है।
बालाजी विश्वनाथ को मराठा साम्राज्य के द्वितीय संस्थापक की संज्ञा दी जाती है।
इन्होंने मराठा साम्राज्य को सुदृढ़ और मज़बूत बनाने के साथ-साथ शाहू महाराज को भी बहुत सफलतायें प्राप्त करवाई थी।
1719 में बालाजी विश्वनाथ द्वारा सय्यद बंधुओं की सहायता करी गई थी, सय्यद बंधु उस समय मुगल वंश में राजा के निर्माता के रूप में अपना कार्य करते थे और बालाजी विश्वनाथ ने इन्हीं की सहायता करके उस समय के मुगल शासक फर्रुखशियर को हटाकर रफ़ी-उद-दरज़ात को अगला मुगल शासक बनाने में मदद प्रदान करी थी।
इसके बाद 1719 में एक दिल्ली की संधि हुई जिसे मराठों का मैग्नाकार्टा की संज्ञा दी जाती है और इस संधि में उस समय के मुगल शासक रफ़ी-उद-दरज़ात ने बालाजी विश्वनाथ को मराठा साम्राज्य का शासक माना था।
बाद में 1720 में बालाजी विश्वनाथ की मृत्यु हो जाती है।
बाजीराव प्रथम ( 1720 – 1740 )
बालाजी विश्वनाथ के बाद 1720 में बाजीराव प्रथम पेशवा पद पर आते हैं और इस दौरान शाहू महाराज राजा के पद पर अपना शासन चला रहे होते हैं।
शाहू महाराज ने बाजीराव प्रथम के संबंध में यह कहा था की आप योग्य पिता के योग्य पुत्र हैं।
दोस्तों, जो बाजीराव मस्तानी नामक फिल्म बनी थी, वह फिल्म इन्हीं बाजीराव प्रथम के ऊपर बनी थी।
शाहू महाराज के दिशा निर्देशों से बाजीराव प्रथम मराठा साम्राज्य की शक्तियों को आगे बढ़ाते हैं।
इसी क्रम में बुंदेलखंड के राजा छत्रसाल ने बाजीराव प्रथम को अपनी सहायता के लिए निमंत्रण दिया था और बाजीराव प्रथम के बुंदेलखंड को सहयोग देने के क्रम में एक मुस्लिम नित्यांगना जिसका नाम मस्तानी था, उससे उनकी भेंट हो जाती है, वहीं से उनको उस नित्यांगना से प्रेम हो जाता है।
बाजीराव प्रथम ने मराठा साम्राज्य को आगे बढ़ाने के क्रम में मालवा, गुजरात, हैदराबाद के निज़ाम, पुर्तगालियों से संघर्ष किया और विजय प्राप्त करी।
बाद में 1740 में उनकी मृत्यु हो जाती है।
बालाजी बाजीराव ( 1740 – 1761 )
बाजीराव प्रथम की मृत्यु के बाद उनके पुत्र बालाजी बाजीराव पेशवा पद पर आते हैं और इनका वास्तविक नाम नाना साहेब था।
इनके समय ही मराठा साम्राज्य का सबसे ज्यादा विस्तार हुआ था, बालाजी बाजीराव के द्वारा केवल उनके आसपास के क्षेत्रों तक ही नहीं बल्कि सिख क्षेत्रों से लेकर अफगान क्षेत्रों तक मराठा सीमा को पहुंचाने का प्रयास किया गया था।
जैसे की हमने चर्चा की थी की मराठा साम्राज्य दो भागों में बंट गया था सतारा और कोल्हापुर, तो सतारा में शाहू महाराज की मृत्यु के बाद 1750 में एक संगोला की संधि होती है, जिसमें कोल्हापुर प्रशासन द्वारा पेशवाओं को मराठा साम्राज्य का वास्तविक शासक मान लिया गया था और इस प्रकार छत्रपति शिवाजी महाराज के वंशजों का शासन समाप्त हो जाता है और पेशवा पूर्ण सत्ता में आ जाते हैं।
इसके बाद बालाजी बाजीराव ने अलवर्दी खां से संघर्ष किया था और उसे संधि करने के लिए मजबूर कर दिया था और एक चौथ कर के संबंध में हमने ऊपर चर्चा की थी, वह चौथ कर बालाजी बाजीराव ने अलवर्दी खां पर लगाया था।
बालाजी बाजीराव ने अफगान शासक अहमद शाह अब्दाली और उसकी सेना को भी भारत से बाहर कर दिया था, परंतु अहमद शाह अब्दाली दुबारा भारत आया और 1761 में तृतीय पानीपत का युद्ध मराठाओं और अहमद शाह अब्दाली के मध्य हुआ, जिसमें मराठाओं की पराजय हो गई थी।
इस युद्ध में पराजय के बाद से बालाजी बाजीराव बहुत दुखी हो गए थे और उनके भाइयों शमशेर ( कृष्णराव ), सदाशिवराव और उनके पुत्र विश्वासराव की भी इस युद्ध में मृत्यु हो गई थी और इस युद्ध के 6 माह के बाद बालाजी बाजीराव की भी इस दुख में ही मृत्यु हो गई थी।
अगले पेशवा पद के लिए बालाजी बाजीराव के भाई रघुनाथराव की जगह बालाजी बाजीराव के पुत्र माधवराव को चुना गया था।
माधवराव ( 1761 – 1772 )
बालाजी बाजीराव के बाद उनके पुत्र 1761 में पेशवा पद पर आते है और जैसे की तृतीय पानीपत के युद्ध से जो हानि मराठाओं को हुई थी, उस मराठा शक्ति को दुबारा से सुदृढ़ रूप देने का प्रयास किया था।
माधव राव केवल 16 वर्ष की आयु में ही पेशवा पद पर आ गए थे।
परंतु उनके चाचा यानी रघुनाथराव जिनकी जगह माधवराव को पेशवा बनाया गया था, वे खुद पेशवा बनना चाहते थे और इसके लिए वे कुछ न कुछ प्रयास करते रहते थे, जिसके फलस्वरूप माधवराव द्वारा रघुनाथ राव को शनिवारवाड़ा के अंदर नज़रबंद करवा दिया गया था।
इन्होंने अपने आसपास के क्षेत्र जैसे हैदराबाद के निज़ाम और मैसूर में हैदर अली को इतना परेशान किया की उनको चौथ कर देने तक के लिए मजबूर कर दिया था।
इसके बाद 1772 में उस समय के मुगल शासक शाह आलम द्वितीय ने अंग्रेजों के संरक्षण को छोड़कर मराठाओं के संरक्षण को स्वीकार करा था।
1772 में माधवराव की टी.बी की बीमारी के कारण मृत्यु हो गई थी।
समय के साथ धीरे-धीरे पेशवाओं की शक्तियां भी कमज़ोर होने लग जाती है।
नारायणराव ( 1772 – 1773 )
माधवराव की मृत्यु के बाद उनके भाई नारायणराव को पेशवा पद के लिए चुना गया था और इसके साथ-साथ इनके पेशवा बनने के बाद रघुनाथराव को भी रिहा कर दिया गया था।
इसके बाद रघुनाथराव द्वारा नारायणराव की एक षड्यंत्र द्वारा हत्या करवा दी जाती है और वह अपने आप को अगला पेशवा घोषित कर देता है।
रघुनाथराव के इस अप्रिय कार्य के बारे में सबको पता था और सब उसको पेशवा पद के लिए योग्य नहीं मानते थे।
इसी क्रम में नारायणराव की पत्नी गंगाबाई ने उनके पुत्र को 1774 में जन्म दिया था और उस समय मराठा साम्राज्य के एक प्रभावशाली मंत्री या अधिकारी जिनका नाम नाना फड़नवीस था, उन्होंने नारायणराव के पुत्र को पेशवा बनाने की मांग रखी और एक प्रकार से यह मुहीम छेड़ दी की नारायणराव के पुत्र को ही पेशवा बनाया जाए।
नारायणराव के पुत्र का नाम सवाई माधवराव रखा गया था जिसका अर्थ था की वह बालक माधवराव से सवा गुणा ज्यादा प्रभावशाली था।
नाना फड़नवीस के नारायणराव के पुत्र सवाई माधवराव को पेशवा बनाने के अभियान में उनके साथ मराठा साम्राज्य के दो प्रभावशाली चीफ तुकोजीराव होलकर और महादजी शिंदे भी शामिल हो गए थे और समय के साथ धीरे-धीरे कुछ और मराठा साम्राज्य के प्रभावशाली लोग भी इस अभियान में शामिल होते चले गए थे।
जिसके फलस्वरूप नाना फड़नवीस द्वारा एक बारभाई नामक परिषद का गठन किया गया था, जिसमें सारे लोग मिलके सवाई माधवराव को पेशवा बनाने के अभियान में प्रयास करते थे, इस परिषद में जो लोग थे वे कुछ इस प्रकार है:
1. | नाना फड़नवीस |
2. | तुकोजीराव होलकर |
3. | महादजी शिंदे |
4. | मोरोबा फडणीस |
5. | हरिपंत फड़के |
6. | फलतानकर |
7. | मालोजी घोरपड़े |
8. | भगवानराव प्रतिनिधि |
9. | सकाराम बापू बोकिल |
10. | त्रिंबकराव मामा पेठे |
11. | सरदार रास्ते |
12. | बाबूजी नाइक |
बाद में बारभाई परिषद अपने सवाई माधवराव को पेशवा बनाने में सफल भी हुई थी और परिषद द्वारा सवाई माधवराव को पेशवा घोषित कर दिया गया था और जिस समय सवाई माधवराव को पेशवा बनाया गया उस समय वे केवल 40 दिन की आयु के थे।
इतनी छोटी आयु में सवाई माधवराव मराठा साम्राज्य की प्रशाशन व्यवस्था नहीं संभाल सकते थे, इसलिए उनके नेतृत्व में नाना फड़नवीस और उनकी बारभाई परिषद द्वारा प्रशासन व्यवस्था को चलाया गया था।
बाजीराव द्वितीय ( 1818 )
बाजीराव द्वितीय अंतिम पेशवा बनते हैं और इस समय अंग्रेजों ने भी भारत पर अपने पैर जमा लिए थे और तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध के बाद, अंग्रेजों द्वारा इस पेशवा पद की समाप्ति कर दी जाती है और बाकी क्षेत्रों की तरह मराठा साम्राज्य भी अंग्रेजों के अधीन आ जाता है।
मराठा वंश का विभाजन
दोस्तों, मराठों की नींव कमज़ोर होने के बाद वे अलग-अलग गुटों या यु कहें की वंशों में विभाजित हो जाते हैं, जो कुछ इस प्रकार हैं:
भोसले वंश | नागपुर |
गायकवाड़ वंश | बड़ोदा ( गुजरात ) |
होल्कर वंश | इंदौर |
सिंधिया वंश | उज्जैन, ग्वालियर |
इनमें से भोसले वंश बाकी वंशो से ज्यादा श्रेष्ठ था और उन्होंने अपना केंद्र नागपुर में बनाया था, इसके साथ-साथ छत्रपति शिवाजी महाराज भी इसी वंश से संबंधित थे।
गायकवाड़ वंश ने अपना केंद्र बड़ोदा, गुजरात में बनाया था।
होल्कर वंश ने अपना केंद्र इंदौर में बनाया था।
सिंधिया वंश द्वारा पहले अपना केंद्र उज्जैन में बनाया जाता है, परंतु बाद उनके द्वारा अपना केंद्र ग्वालियर को बना लिया जाता है।
छत्रपती शिवाजी महाराज – Maratha Empire in Hindi
हम आशा करते हैं कि हमारे द्वारा दी गई छत्रपती शिवाजी महाराज – Maratha Empire in Hindi के बारे में जानकारी आपके लिए बहुत उपयोगी होगी और आप इससे बहुत लाभ उठाएंगे। हम आपके बेहतर भविष्य की कामना करते हैं और आपका हर सपना सच हो।
धन्यवाद।
बार बार पूछे जाने वाले प्रश्न
मराठा साम्राज्य का दूसरा संस्थापक कौन है?
बालाजी विश्वनाथ को मराठा साम्राज्य के द्वितीय संस्थापक की संज्ञा दी जाती है।
मराठा साम्राज्य का अंतिम पेशवा कौन था?
बाजीराव द्वितीय अंतिम पेशवा बनते हैं और इस समय अंग्रेजों ने भी भारत पर अपने पैर जमा लिए थे और तृतीय आंग्ल-मराठा युद्ध के बाद, अंग्रेजों द्वारा इस पेशवा पद की समाप्ति कर दी जाती है और बाकी क्षेत्रों की तरह मराठा साम्राज्य भी अंग्रेजों के अधीन आ जाता है।
पुरंदर की संधि कब हुई थी?
शिवाजी महाराज ने राजा जयसिंह से संधि करने का निर्णय लिया था और तब 11 जून 1665 में दोनों के मध्य पुरंदर की संधि हुई थी।
छत्रपति शिवाजी का जन्म कब और कहां हुआ था?
छत्रपती शिवाजी महाराज का जन्म महाराष्ट्र क्षेत्र के शिवनेर नामक स्थान में 1627 को हुआ था और शिवनेरी देवी के नाम के ऊपर शिवाजी महाराज का नाम रखा गया था और शिवाजी महाराज भोसले वंश से संबंधित थे।
शिवाजी का राज्याभिषेक कहाँ हुआ था?
रायगढ़ के किले में उनका राज्याभिषेक हुआ था और तब से उन्हें छत्रपति के नाम से बुलाया जाने लग गया था और इसके साथ उन्होंने मराठा साम्राज्य की भी 1674 में स्थापना कर दी थी।
शिवाजी की कितनी रानियां थी?
शिवाजी महाराज की कुल 7 पत्नियां थी, जिनमें से सबसे प्रथम पत्नी का नाम साईबाई था और इनसे शिवाजी महाराज का 1640 में विवाह हुआ था।