जैन धर्म का इतिहास – दोस्तों, आज हम जैन धर्म, उसके उदय और उनके तीर्थंकरों के बारे में जानेंगे, जैसे की वैदिक काल के आर्टिकल में हमने जाना की उत्तर वैदिक काल के अंतिम चरण में राजनीतिक स्तर, आर्थिक और सामाजिक स्तर में परिवर्तन आने लग गए थे।
सनातन धर्म में भी कई तरह के कर्मकांड और आडम्बर बढ़ गए थे, इन कर्मकांड और आडम्बरों को रोकने के लिए समाज में नए नास्तिक धर्मों का भी उदय होने लगा जो ईश्वर जैसी किसी चीज़ को नहीं मानते थे जैसे की बौद्ध धर्म और जैन धर्म।
6ठी शताब्दी ईसा पूर्व की यह परिस्थिति इन धर्मों के उदय का कारण बनी, जिसमे बौद्ध धर्म के बारे में हमने पिछले आर्टिकल में चर्चा की थी और आज हम जैन धर्म के बारे में चर्चा करेंगे।
जैन धर्म की पृष्ठभूमि
वाचकों के अनुसार जैन धर्म का इतिहास बहुत प्राचीन है और इस धर्म का प्रारंभ बहुत प्राचीन समय से हो गया था, परंतु इस तथ्य के कोई प्रमाण प्राप्त नहीं हुए हैं।
जैन धर्म की धर्म ग्रंथ और साहित्यों से बताया गया है की जैन धर्म में कुल 24 तीर्थंकर हुए हैं, यहाँ तीर्थंकर से तात्पर्य है “संस्थापक गुरु” जिन्होंने जैन धर्म को आगे बढ़ाने का प्रयास और कार्य किया था।
जैन धर्म के 24 तीर्थंकर कुछ इस प्रकार हैं:
1. | ऋषभदेव |
2. | अजितनाथ |
3. | सम्भवनाथ |
4. | अभिनंदन |
5. | सुमतिनाथ |
6. | पद्ममप्रभु |
7. | सुपार्श्वनाथ |
8. | चंदाप्रभु |
9. | सुविधिनाथ |
10. | शीतलनाथ |
11. | श्रेयांसनाथ |
12. | वासुपूज्य |
13. | विमलनाथ |
14. | अनंतनाथ |
15. | धर्मनाथ |
16. | शांतिनाथ |
17. | कुंथुनाथ |
18. | अरनाथ |
19. | मल्लिनाथ |
20. | मुनिसुव्रत |
21. | नमिनाथ |
22. | अरिष्टनेमि |
23. | पार्श्वनाथ |
24. | वर्धमान महावीर स्वामी |
जैन धर्म के सबसे पहले तीर्थंकर और संस्थापक ऋषभदेव थे और इन्हें वृषभनाथ और आदिनाथ जैसे अन्य नामों से भी संबोधित किया जाता है, इसके साथ साथ ऋग्वेद में भी इनकी जानकारी हमें देखने को मिलती है।
इसके साथ साथ जैन धर्म के 22वें तीर्थंकर अरिष्टनेमि की भी जानकारी हमें ऋग्वेद में देखने को मिलती है।
पार्श्वनाथ जैन धर्म के 23वें तीर्थंकर बने और इनका जन्म काशी वाराणसी में हुआ था, इनके पिता का नाम अश्वसेन था जो की काशी के राजा थे।
पार्श्वनाथ ने 30 वर्ष की आयु में सांसारिक मोह माया को छोड़कर ग्रह त्याग करके, अपनी ज्ञान की प्राप्ति की खोज की और चल पड़े थे और इन्हे सम्मेद शिखर पर्वत पर ज्ञान की प्राप्ति हुई थी और इन्होंने इस क्रम में चार तरह की शिक्षाएं प्रदान करी थी जो कुछ इस प्रकार हैं:
1. | सत्य – हमेशा सत्य बोलना |
2. | अहिंसा – अहिंसा का मार्ग अपनाना |
3. | अस्तेय – चोरी न करना |
4. | अपरिग्रह – धन का संचय ( संग्रह ) न करना |
पार्श्वनाथ के द्वारा दी गई इन 4 शिक्षाओं में जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर महावीर स्वामी ने अपनी 5वी शिक्षा को भी जोड़ा जो थी “ब्रह्मचर्य” की शिक्षा।
यह पांच शिक्षाएं जैन धर्म के “पांच महाव्रत” कहलाए थे और इन पांच महाव्रत की प्रथम 4 शिक्षाएं जैन धर्म के 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ द्वारा दी गई जबकि 5वी शिक्षा जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर महावीर स्वामी द्वारा दी गई थी।
महावीर स्वामी ( जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर )
वर्धमान महावीर स्वामी जैन धर्म के 24वें और अंतिम तीर्थंकर थे, और इन्हें जैन धर्म के वास्तविक संस्थापक के रूप में भी देखा जाता है क्यूंकि इनके काल में ही जैन धर्म को बहुत विस्तार और प्रगति मिली थी और इससे पहले के तीर्थंकरों के काल में इतनी प्रगति जैन धर्म में देखने को नहीं मिली थी।
जन्म | 540 ईसा पूर्व ( कुण्डग्राम / वैशाली ) |
बचपन का नाम | वर्धमान |
पिता | सिद्धार्थ ( ज्ञात्रिक कुल ) |
माता | त्रिशला ( चेटक की पुत्री ) |
पत्नी | यशोदा |
पुत्री | अनोज्जा / प्रियदर्शनी |
गृह त्याग | 30 वर्ष |
मृत्यु | 468 ईसा पूर्व ( पावापुरी 72 वर्ष ) |
महावीर स्वामी का जन्म 540 ईसा पूर्व में कुण्डग्राम नामक स्थान में हुआ था, और इनका प्रारंभिक नाम या यूँ कहें की बचपन का नाम वर्धमान था।
इनके पिता का नाम सिद्धार्थ था, जो की कुण्डग्राम के ज्ञात्रिक कुल से संबंधित थे और उस कुल के मुख्या भी थे।
इनकी माता का नाम त्रिशला था और यह लिछवि के राजा चेटक की पुत्री थी और यह वही चेटक है जिनकी दूसरी पुत्री चेल्लना का विवाह मगध सम्राट बिम्बिसार से हुआ था और इस प्रकार महावीर स्वामी और बिम्बिसार का एक पारिवारिक संबंध था।
इनकी पत्नी का नाम यशोदा था, जिससे इनको एक पुत्री की प्राप्ति हुई थी जिनका नाम अनोज्जा या प्रियदर्शनी रखा गया था।
इन्होंने ज्ञान की प्राप्ति के लिए अपना सांसारिक मोह छोड़कर 30 वर्ष की आयु में अपने बड़े भाई नन्दिवर्धन से आज्ञा प्राप्त कर गृह त्याग किया था।
गृह त्याग करने के बाद महावीर स्वामी ने अपने ज्ञान की प्राप्ति के लिए जगह-जगह यात्राएं की और 12 वर्ष बाद अर्थात 42 वर्ष की आयु में उन्हें जाम्भिक ग्राम नामक स्थान में शाल वृक्ष के नीचे और ऋजुपालिका नदी की पास इन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई थी।
ज्ञान की प्राप्ति के लिए महावीर स्वामी ने गृह त्याग करने के बाद बहुत ही कठोर साधना व तपस्या की थी और सिर्फ एक ही वस्त्र में उन्होंने तपस्या की, और समय के साथ वह वस्त्र भी फटने लगे और उन्होंने तब नग्न अवस्था में ही अपनी तपस्या की और नग्नता और कठोरता के साथ ज्ञान की प्राप्ति की थी।
ज्ञान प्राप्ति के बाद उन्होंने नग्नता को ही स्वीकार किया और पूरे जीवन काल में नग्न रह कर जैन धर्म का विस्तार किया था।
जब महावीर स्वामी को ज्ञान की प्राप्ति हुई थी तब इन्हें ज्ञान की प्राप्ति के बाद “कैवल्य” कहा गया था, जैन धर्म में ज्ञान प्राप्ति को कैवल्य कहा गया है।
ज्ञान प्राप्ति के बाद महावीर स्वामी को अन्य कुछ नामों से संबोधित किया गया, जिसका जैन धर्म में इस्तेमाल किया जाता है और वे कुछ इस प्रकार हैं:
जिन | इसका अर्थ है विजेता, जिसने अपनी इन्द्रियों पर विजय पा ली हो और ज्ञान प्राप्ति के बाद महावीर स्वामी को जिन कहा गया। |
अर्हत | इसका अर्थ योगी है। |
निर्ग्रंथ | इससे तात्पर्य है की वह व्यक्ति जो सांसारिक मोह माया से बंधन रहित हो जाता है। |
महावीर | महावीर स्वामी को ज्ञान की प्राप्ति के बाद महावीर कहा गया जिससे तात्पर्य है की जिसका साधना के प्रति पूर्ण समर्पण हो। |
महावीर स्वामी के उपदेश एवं शिक्षाएं
ज्ञान की प्राप्ति के बाद महावीर स्वामी ने अपना प्रथम उपदेश राजगृह में दिया था जो की मगध महाजनपद की प्रथम राजधानी भी थी।
इनके प्रथम शिष्य जामिल / जामालि, दोस्तों, किसी किसी जगह आपको जामिल और किसी किसी जगह आपको जामालि लिखा हुआ मिल सकता है और महावीर स्वामी के प्रथम शिष्य इनके दामाद ही थे अर्थात जामिल या जामालि।
महावीर स्वामी के द्वारा दिए गए उपदेश व शिक्षाएं कुछ इस प्रकार हैं:
जैन धर्म के त्रिरत्न
महावीर स्वामी ने बताया की संसार दुःखमय है और सम्पूर्ण दुःख का कारण कर्मफल है, इससे यह तात्पर्य है की आपको अपने कर्म के हिसाब से फल की प्राप्ति होती है और इससे ही आपके दुख का प्रारंभ होता है।
इन दुखों के निवारण और मुक्ति के लिए उन्होंने त्रिरत्न का मार्ग दिया जो कुछ इस प्रकार है:
सम्यक दर्शन | हमेशा सत्य में विश्वास होना चाहिए। |
सम्यक ज्ञान | इससे तात्पर्य है “वास्तविक ज्ञान”। |
सम्यक आचरण | हमेशा अपने स्वभाव को एक सामान रखना जैसे सुख हो या दुख सभी परिस्थितियों में समान भाव रखना चाहिए। |
जैन धर्म के 5 महाव्रत
महावीर स्वामी द्वारा बताया गया की यह सब करने के लिए पांच महाव्रतों का पालन करना चाहिए और इनके संबंध में हमने ऊपर भी चर्चा की थी और ये कुछ इस प्रकार हैं:
सत्य | हमेशा सत्य बोलना |
अहिंसा | अहिंसा का मार्ग अपनाना |
अस्तेय | चोरी न करना |
अपरिग्रह | धन का संचय ( संग्रह ) न करना |
ब्रह्मचर्य |
इनमें हमने ऊपर यह भी चर्चा की थी की इन पांच महाव्रतों में पहले चार पार्श्वनाथ द्वारा दिए गए थे और अंतिम और पांचवा महाव्रत महावीर स्वामी द्वारा दिया गया था।
इन पांच महाव्रतों में से सबसे महत्वपूर्ण महाव्रत महावीर स्वामी द्वारा अहिंसा बताया गया था और इसे सबसे ज्यादा महत्व दिया था और जैन धर्म में अहिंसा का कठोरता से पालन किया जाता है।
महावीर स्वामी पुनर्जन्म, मोक्ष, कर्म, वर्ण व्यवस्था और आत्मा जैसी चीज़ों पर विश्वाश करते थे और उन्होंने बताया की किसी भी सजीव चीज़ में आत्मा होती है जिसे नुकसान नहीं पहुंचाना चाहिए क्यूंकि इसके कारण हम अहिंसा जैसे महाव्रत को भंग करते हैं।
उन्होंने बताया की अगर हमारे कर्म सही नहीं होंगे तो हमें फिर से जन्म लेना पड़ेगा, हमें अच्छे कर्म करने चाहिए, हमें जीवन मरण के चक्र से मुक्त होकर मोक्ष की प्राप्ति करनी चाहिए और समाज की वर्ण व्यवस्था में भी वे विश्वाश करते थे।
जैन धर्म से जुड़े अन्य बिंदु
1. जैन धर्म में ईश्वर जैसी किसी चीज़ में विश्वाश नहीं किया जाता, इसलिए यह एक नास्तिक संप्रदाय के अंतर्गत आता है।
2. जैन धर्म में ईश्वर को नहीं माना जाता है और यह माना जाता है की यदि ईश्वर है भी तो वह “जिन” के बाद आते हैं, जिन से तात्पर्य जैन धर्म के तीर्थंकरों से है अर्थात यदि ईश्वर है भी तो वह जैन धर्म के तीर्थंकर के बाद आते हैं।
3. जैन धर्म का संबंध “स्यादवाद” और “अनेकांतवाद” जैसे सिद्धांत से है जिसका तात्पर्य है की जो लोग ईश्वर को मानते थे उन्हें आत्मवादी कहा गया और जो लोग ईश्वर को नहीं मानते थे उन्हें नास्तिक कहा गया और इन्हीं दोनों के बीच के मार्ग को “स्यादवाद” और “अनेकांतवाद” का सिद्धांत कहा गया।
इस स्यादवाद और अनेकांतवाद को महावीर स्वामी द्वारा स्वीकार करा गया था, जिससे इस बीच के मार्ग के लोगों को भी जैन धर्म में जोड़ा जा सके।
4. महावीर स्वामी ने ज्ञान प्राप्ति के बाद राजगृह से प्रारंभ करते हुए जैन धर्म का विस्तार किया और इस क्रम में उन्होंने संघ की स्थापना की और इस संघ की मदद से वे जैन धर्म को आगे बढ़ाने का प्रयास करते थे।
5. इस संघ में महावीर स्वामी के साथ 11 अनुयायी रहा करते थे, जिन्हें “गणधर” कहा गया था।
6. जब महावीर स्वामी की मृत्यु हुई तब उस समय “सुधर्मन” संघ के प्रमुख या अध्यक्ष चुने गए थे और तब इन्होंने जैन धर्म को आगे बढ़ाने का प्रयास किया था।
7. जैन धर्म का विस्तार और प्रचार प्रसार प्राकृत भाषा में किया गया था।
8. जैन धर्म में मोक्ष प्राप्ति के समय प्राणों को त्यागने की विधि को बताया गया है, जो की बहुत कठोर विधि है और इसमें यह बताया गया है की इसमें भूखे रहकर अपने प्राणों को त्यागने की प्रेरणा दी है और इसे मोक्ष को प्राप्त करने के लिए उसकी दिशा में मार्ग का वर्णन है, इस विधि को सल्लेखना विधि या सथारां विधि कहा जाता है।
9. चन्द्रगुप्त मौर्य भी अपने आखिरी समय में श्रवणबेलगोला गए थे और इस विधि के अनुसार भूखे पेट रहकर अपने प्राणों को त्यागा था।
जैन धर्म सभाएं
दोस्तों, जैसे हमने पिछले गौतम बुद्ध वाले आर्टिकल में जाना था की गौतम बुद्ध की मृत्यु के पश्चात कई सारी बौद्ध संगीतियाँ या सभाएं उनके विद्वानों और अनुयायियों द्वारा आयोजित कराई जाती है, जिसमे वे बौद्ध धर्म के ऊपर चर्चा और उसको आगे बढ़ाने के बारे में बात करते हैं।
उसी प्रकार जैन धर्म में भी कुछ सभाएं उनके विद्वानों और अनुयायियों द्वारा आयोजित कराई गई थी और मूल रूप से 2 जैन सभाएं अलग अलग समय में आयोजित कराई गई थी, आइये उनके बारे में जानें:
स्थान | समय काल | अध्यक्ष | जुड़े बिंदु | |
प्रथम जैन सभा | पाटलिपुत्र | 4थी शताब्दी ईसा पूर्व | स्थूलभद्र | जैन साहित्य में 12 अंगो का संकलन |
द्वितीय जैन सभा | वल्लभी, गुजरात | 6ठी शताब्दी ( 512 ईस्वी ) | देवधिगण / क्षमाश्रवण |
प्रथम जैन सभा
प्रथम जैन सभा का आयोजन पाटलिपुत्र में किया गया था और इसका समय काल 4थी शताब्दी ईसा पूर्व था, इसके सभा के अध्यक्ष स्थूलभद्र थे, इस समय मौर्य वंश का शासन चल रहा था, इसके दौरान जैन साहित्य में 12 अंगो का संकलन किया गया था।
द्वितीय जैन सभा
द्वितीय जैन सभा का आयोजन वल्लभी, गुजरात में किया गया था और यह प्रथम जैन सभा के लगभग 1000 वर्ष बाद 6ठी शताब्दी ईस्वी में इसका आयोजन किया गया था, इसके अध्यक्ष देवधिगण या क्षमाश्रवण थे।
जैन धर्म का विभाजन
दोस्तों, जैसे की हमने ऊपर जाना था की महावीर स्वामी द्वारा संघ की स्थापना की गई थी, जिसमें उनके साथ 11 अनुयायी रहा करते थे और उन्हें गणधर कहा जाता है और बाद में महावीर स्वामी की मृत्यु के बाद इस संघ और गणधरों के अध्यक्ष सुधर्मन चुने गए थे।
महावीर स्वामी के मृत्यु के बाद इन गणधर में आपस में मतभेद होना शुरू हो गया था, गणधरों में आपस में जैन धर्म के विश्वास और उसकी परम्पराओं को लेकर अलग-अलग मत बनने लग गए थे।
उस समय मगध में चन्द्रगुप्त मौर्य का शासनकाल चल रहा था और तब उस समय अकाल जैसी स्थितियां बन गई थी और यह अकाल लगभग 12 वर्षों तक चला था, इसलिए भद्रबाहु जो जैन धर्म को आगे बढ़ाने का प्रयास कर रहे थे, वे अपने शिष्यों के साथ दक्षिण भारत में श्रवणबेलगोला में चले गए थे।
अपनी यात्रा के बाद जब वे मगध लौटे तब उन्होंने पाया की यहाँ अब जैन धर्म की परंपरा में बदलाव देखने को मिल रहे हैं, और इन बदलावों का स्थूलभद्र नेतृत्व कर रहे थे जो भद्रबाहु को स्वीकार नहीं था।
जिसके फलस्वरूप उस समय चन्द्रगुप्त मौर्य का शासनकाल चल रहा था और उस समय जैन धर्म दो भागों में बंट गया था।
अब जैन धर्म श्वेताम्बर और दिगम्बर जैसे दो भागों में बंट गया था।
श्वेताम्बर एवं दिगम्बर
श्वेताम्बर | दिगम्बर |
1. श्वेताम्बर के संस्थापक स्थूलभद्र बने और ये वही हैं जिन्होंने प्रथम जैन सभा की अध्यक्षता की थी, इसके संबंध में हमने ऊपर जाना था। | 1. दिगम्बर के संस्थापक भद्रबाहु बने थे। |
2. इन्होंने जैन धर्म में समय के साथ बदलावों को स्वीकार किया था। | 2. इन्होंने जैन धर्म में किसी बदलाव को स्वीकार नहीं किया जो पारंपरिक जैन धर्म की परंपरा चली आ रही थी ये उसी पर स्थिर थे। |
3. इसमें लोगों को वस्त्र पहनने की अनुमति मिली और अब लोग श्वेत रंग के वस्त्र पहन कर जैन धर्म को मान सकते थे। | 3. इसमें अभी भी पहले की तरह पूर्णतः नग्न रहना था, जैसा की महावीर स्वामी द्वारा उपदेश दिए गए थे। |
4. इसमें अब क्योंकि श्वेत वस्त्र को पहना जा सकता था, इसलिए अब स्त्रियों के लिए भी मोक्ष का द्वार खुल गया था। | 4. इसमें क्योंकि पूर्णतः नग्न रहना था इसलिए स्त्रियों के लिए मोक्ष का मार्ग संभव नहीं था। |
5. महावीर स्वामी को भगवान माना जाने लगा और उनकी मूर्ति की पूजा की जाने लग गई थी, जिसमें मथुरा कला के अनुसार कई महावीर स्वामी की मूर्तियों का निर्माण भी हुआ था। | 5. महावीर स्वामी को भगवान नहीं बल्कि एक सामान्य मनुष्य के रूप में देखा जाता था, जो ज्ञान को प्राप्त कर चुके थे और जिन कहलाते थे। |
जैन तीर्थंकर के प्रतीक चिन्ह
जैन तीर्थंकर को कुछ प्रतीक चिन्हों से दर्शाया जाता है, जिसमें मुख्य कुछ इस प्रकार हैं:
ऋषभदेव | बैल / वृषभ |
अजितनाथ | हाथी |
पार्श्वनाथ | सर्प |
महावीर स्वामी | सिंह |
जैन धर्म ग्रंथ एवं साहित्य
दोस्तों, जैसे की हमने ऊपर जाना था की जैन धर्म का विस्तार और प्रचार प्राकृत भाषा में किया गया था, परंतु जो जैन धर्म के साहित्य थे वे अर्धमगधी भाषा में उनका निर्माण किया गया था और इनसे ही जैन धर्म के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।
अंग
अंग जैन धर्म के मुख्य ग्रंथ है, और इनकी संख्या 12 है और इसमें जैन धर्म के सिद्धांतों को बताया गया है और इन 12 अंगों का संकलन प्रथम जैन सभा के दौरान किया गया था, इसके संबंध में हमने ऊपर भी चर्चा की थी।
उपांग
जैन धर्म ग्रंथ अंग को समझने के लिए उपांग को बनाया गया था, इनकी भी संख्या 12 ही है, और ये एक तरह से अंगों का विस्तार है।
प्रकीर्ण
इनकी संख्या 10 है और इनमें विभिन्न जैन धर्म ग्रंथों का विश्लेषण या परिशिष्ट किया गया है।
छेद सूत्र एवं मूल सूत्र
छेद सूत्र की संख्या 6 है और मूल सूत्र की संख्या 4 है और इनमें जैन धर्म के भिक्षु और भिक्षुणियों के लिए नियम और आचरणों का वर्णन किया गया है।
भगवती सूत्र
जैन धर्म के भगवती सूत्र में 16 महाजनपदों की जानकारी प्राप्त होती है, इसके बारे में हमने महाजनपद वाले आर्टिकल में भी चर्चा की थी, इसके साथ-साथ भगवती सूत्र में महावीर स्वामी और दूसरे जैन तीर्थंकरों के जीवन चरित्र के बारे में भी जानकारी प्राप्त होती है।
कल्पसूत्र
इसकी रचना भद्रबाहु द्वारा की गई थी, जो की दिगम्बर संप्रदाय के संस्थापक थे और इसमें धर्म के प्रारंभिक इतिहास के बारे में वर्णन किया है।
दोस्तों, जैन साहित्यों को “आगम” के नाम से संबोधित किया जाता है।
जैन धर्म के कला परंपरा से जुड़े बिंदु
जैसे की हमने ऊपर जाना की श्वेताम्बर संप्रदाय के आने के बाद महावीर स्वामी की मूर्तियों की पूजा की जाने लगी थीऔर बाद में कई जैन मंदिरों का भी निर्माण हुआ, इसलिए इससे जैन कला को बढ़ावा मिला था, आइये उन बिंदुओं पर दृष्टि डालें:
1. प्राचीन भारत में मूल रूप से दो तरह की मूर्तिकला का विकास हुआ था जैसे की गांधार कला और मथुरा कला, गांधार कला का विकास भारत के उत्तर पश्चिमी क्षेत्र में हुआ था जबकि मथुरा कला का विकास मथुरा क्षेत्र में हुआ था।
गांधार कला मुख्यतः बौद्ध मूर्तियों से जुड़ी थी और मथुरा कला जैन मूर्तियों से जुड़ी थी, इसलिए गांधार कला को बौद्ध धर्म से जोड़ कर देखा जाता है और मथुरा कला को जैन धर्म से जोड़ कर देखा जाता है।
2. मध्यप्रदेश में चंदेल शासकों द्वारा खजुराहो के मंदिरों का निर्माण करवाया गया था जिसमें हिंदू और जैन मंदिरों के साक्ष्य मिलते हैं।
3. राजस्थान में सोलंकी शासकों द्वारा माउंट आबू में दिलवाड़ा जैन मंदिर का निर्माण करवाया गया था और मुख्यतः विमल शाह जो की सोलंकी शासकों के मंत्री थे उनको इस दिलवाड़ा जैन मंदिर का निर्माण करवाने का श्रेय दिया जाता है।
4. श्रवणबेलगोला, कर्नाटक में जैन धर्म से जुड़े बाहुबली की विशाल मूर्ति है, जिसका निर्माण गंग वंश के मंत्री चामुंडराय द्वारा करवाया गया था और यहाँ पर हर 12 वर्ष में जैन धर्म का मुख्य त्योहार “महामस्तकाभिषेक” को मनाया जाता है।
जैन धर्म का इतिहास – महावीर स्वामी, जैन धर्म ग्रंथ
हम आशा करते हैं कि हमारे द्वारा दी गई जैन धर्म की जानकारी आपके लिए बहुत उपयोगी होगी और आप इससे बहुत लाभ उठाएंगे। हम आपके बेहतर भविष्य की कामना करते हैं और आपका हर सपना सच हो।
धन्यवाद।
बार बार पूछे जाने वाले प्रश्न
जैन धर्म के प्रमुख 3 नियम क्या थे?
1. सम्यक दर्शन
हमेशा सत्य में विश्वास होना चाहिए।
2. सम्यक ज्ञान
इससे तात्पर्य है “वास्तविक ज्ञान”।
3. सम्यक आचरण
हमेशा अपने स्वभाव को एक सामान रखना जैसे सुख हो या दुख सभी परिस्थितियों में समान भाव रखना चाहिए।
जैन धर्म के पांच महाव्रत क्या हैं?
1. सत्य
हमेशा सत्य बोलना
2. अहिंसा
अहिंसा का मार्ग अपनाना
3. अस्तेय
चोरी न करना
4. अपरिग्रह
धन का संचय ( संग्रह ) न करना
5. ब्रह्मचर्य
क्या जैन धर्म ईश्वर को मानता है?
जैन धर्म में ईश्वर को नहीं माना जाता है और यह माना जाता है की यदि ईश्वर है भी तो वह “जिन” के बाद आते हैं, जिन से तात्पर्य जैन धर्म के तीर्थंकरों से है अर्थात यदि ईश्वर है भी तो वह जैन धर्म के तीर्थंकर के बाद आते हैं।
Aapki sabhi jaankari atulniy hai,,,aapki jaankari itihaas ki sabhi ko aage aur gyaan badhane m atulniy yogdaan rahega ,,,very good sir