ब्रह्म समाज – दोस्तों, आज हम ब्रह्म समाज के बारे में जानेंगे, 1828 में राजा राममोहन राय द्वारा ब्रह्म सभा की स्थापना ( Brahm Samaj ki Sthapna ) की जाती है, किंतु कुछ ही समय के बाद इस संस्था का नाम ब्रह्म सभा ( Brahma Sabha ) से बदलकर ब्रह्म समाज ( Brahmo Samaj ) कर दिया गया था।
इस संस्था का मुख्य उद्देश्य हिन्दू धर्म में फैल रही कुरीतियों से हिन्दू धर्म को दुबारा पवित्र करना और एकेश्वरवाद का प्रचार करना अर्थात एक भगवान को मानना।
इस संस्था में हर धर्म की जितनी भी अच्छी अच्छी बातें थी उनके लिए इस संस्था में पूरी तरह से जगह थी।
इस संस्था का आधार जिसपर यह संस्था बनाई गई थी वे थे वेद, उपनिषद और तर्कवाद।
राजा राममोहन राय जिन्होंने इस संस्था की स्थापना की थी, उनको दिल्ली में राज कर रहे उस समय के मुगल शासक अकबर द्वितीय 1830 में ब्रिटेन अपने दूत के रूप में भेज देते हैं और कहते हैं की राजा राममोहन राय उनकी तरफ से ब्रिटेन के राजा से विनती करें की भारत में उनकी हालत ठीक नहीं है इसलिए वे उनसे अच्छा व्यवहार करें।
अकबर द्वितीय ने ही राजा राममोहन राय को राजा की उपाधि दी थी।
ब्रह्म समाज
जब 1830 में राजा राममोहन राय ब्रिटेन गए तो जब तक वे वापस नहीं आ जाते तब तक के लिए ब्रह्म समाज को संभालने का कार्यभार राम चंद्र बीघा बागीश को दिया गया था।
1833 में जब राजा राम मोहन राय की मृत्यु ब्रिटेन के ब्रिस्टल, इंग्लैंड में ही हो गई , तो इसके कारण इस संस्था की प्रगति को बहुत हानि पहुंची थी, उनकी मृत्यु के बाद यह संस्था बहुत ही धीमी गति से अपने लक्ष्य की तरफ बढ़ रहा था और तब इस संस्था की कमान द्वारिकानाथ टैगोर जी ने अपने हाथों में ले ली थी।
बाद में 1843 में द्वारिकानाथ टैगोर जी की भी मृत्यु हो जाने के बाद रबीन्द्रनाथ टैगोर जिन्होंने भारत का राष्ट्रगान लिखा है, उनके पिता देबेन्द्रनाथ टैगोर जी इस संस्था के साथ जुड़ गए थे।
इस संस्था में जुड़ने से पहले देबेन्द्रनाथ टैगोर जी तत्वबोधिनी सभा में रहकर वहां पर राजा राममोहन राय के विचारों का प्रचार करते थे और यह तत्वबोधिनी सभा देबेन्द्रनाथ टैगोर द्वारा 1839 में कोलकत्ता में स्थापित की गई थी।
तत्वबोधिनी सभा में देबेन्द्रनाथ टैगोर भारत के अतीत का व्यवस्थित अध्ययन का भी प्रचार बंगाली भाषा में करते थे।
ब्रह्म समाज और तत्वबोधिनी सभा का कार्य और उद्देश्य बहुत हद तक समान ही थे, और इसी के कारण 1842 में ये दोनों संस्थाएं आपस में मिल गई थी।
देबेन्द्रनाथ टैगोर के इस संस्था से जुड़ने के बाद इसमें जो बदलाव आए वे कुछ इस प्रकार है:
1. | विधवा पुनर्विवाह का सहयोग |
2. | बहुविवाह का उन्मूलन |
3. | महिलाओं की शिक्षा को बढ़ावा और प्रचार |
4. | रैयत की स्थिति और स्वभाव में सुधार |
दोस्तों, इन सभी कार्यों को देखते हुए, यह कहा जा सकता है की देबेन्द्रनाथ टैगोर की अध्यक्षता ने ब्रह्म समाज की स्थिति को बहुत ज्यादा सुधार दिया था।
ब्रह्म समाज का विभाजन
बाद में 1857 में केशव चंद्र सेन ब्रह्म समाज से जुड़ गए थे और ये बहुत ही छोटी आयु में इस संस्था से जुड़े थे, उस समय ये सिर्फ 19 वर्ष के थे।
केशव चंद्र सेन बहुत ही प्रतिभाशाली थे और इनकी प्रतिभा को देख कर इन्हें 1 वर्ष के अंदर ही 1858 में आचार्य नियुक्त कर दिया गया था।
ये इतने प्रभावशाली थे की इस संस्था के ऊपर केशव चंद्र सेन का बहुत प्रभाव पड़ा और 1858 के बाद से इस संस्था में केशवयुग शुरू हो गया था।
केशव चंद्र सेन के ही समय में ब्रह्म समाज बंगाल के बाहर भी फैला और खूब प्रगति पाई और इस संस्था की शाखाएं बंगाल के बाहर जैसे पंजाब, संयुक्त प्रांत, बॉम्बे आदि में तेजी से खुलती चली गई थी।
इसके बाद इस संस्था की प्रगति में समस्या आनी शुरू हो गई थी, केशव चंद्र सेन की जो सोच थी वो समय से बहुत ज्यादा आगे थी, वे अंतर्जातीय विवाह का भी सहयोग करते थे जो की वर्तमान की 21वीं शताब्दी में भी अनुचित माना जाता है।
केशव चंद्र सेन की समय से आगे की ऐसी ही सोच के कारण देबेन्द्रनाथ टैगोर और केशव चंद्र सेन में कोई मेल नहीं बन पा रहा था और इसी कारण से देबेन्द्रनाथ टैगोर ने 1865 में केशव चंद्र सेन को आचार्य के पद से हटा दिया था।
इस प्रकार 1866 में ब्रह्म समाज दो भागों में बंट गया था, केशव चंद्र सेन और उनके समर्थकों के द्वारा भारतीय ब्रह्म समाज ( Brahmo Samaj of India ) नाम से एक नयी संस्था बनाई गयी और देबेन्द्रनाथ टैगोर के द्वारा इस संस्था की मौलिकता को ध्यान में रखते हुए ब्रह्म समाज का नाम बदलकर आदि ब्रह्म समाज नाम रख दिया गया था।

केशव चंद्र सेन का भारतीय ब्रह्म समाज ज्यादा प्रभावशाली रहा और उन्होंने ब्रह्म विवाह एक्ट को भी पारित किया था अर्थात विवाह करने वाले लोगों का पंजीकरण किया जाने लगा था।
इसके बाद एक ऐसी घटना हुई जिसके कारण लोगों को केशव चंद्र सेन की कथनी और करनी में फर्क पता चल गया था, जिन कुरीतियों का विरोध चंद्र सेन करते थे, वही कुरीति वे खुद भी कर देते हैं।
घटना यह थी की जो केशव चंद्र सेन अपने कथन के अनुसार बाल विवाह का विरोध करते थे, उन्होंने 1878 में खुद की ही 13 वर्ष की पुत्री का विवाह कूच-बिहार के नाबालिग महाराजा से करवा दिया था, उनके ऐसे कार्य से उनके समर्थक काफी दुखी हुए थे।
इस कारण से केशव चंद्र सेन की इस संस्था से अलग होकर बनाई गयी उनकी संस्था भारतीय ब्रह्म समाज ( Brahmo Samaj of India ) भी दो भागों में बंट गई थी।
इसके बाद उनके समर्थकों द्वारा भारतीय ब्रह्म समाज ( Brahmo Samaj of India ) से अलग होकर साधारण ब्रह्म समाज नाम से एक नई संस्था की स्थापना कर दी गई थी।
साधारण ब्रह्म समाज की स्थापना उमेश चंद्र दत्ता, शिवचंद्र देब और आनंद मोहन बोस और इस संस्था के विचार आदि ब्रह्म समाज के समान ही थे।
इस प्रकार जो संस्था राजा राममोहन राय द्वारा स्थापित की गई थी, उस ब्रह्म समाज के इतने सारे खंड हो गए थे की दुबारा इस संस्था को एक बड़ा नेता नहीं मिल पाता है और धीरे-धीरे ब्रह्म समाज अपनी मुख्य धरा से हटने लग जाता है और कुछ नए समाज जैसे आर्य समाज, राम कृष्ण मिशन आदि जैसी संस्थाएं आगे आ जाती हैं।
ब्रह्म समाज – Brahmo Samaj in Hindi
हम आशा करते हैं कि हमारे द्वारा दी गई ब्रह्म समाज – Brahmo Samaj in Hindi इसके बारे में जानकारी आपके लिए बहुत उपयोगी होगी और आप इससे बहुत लाभ उठाएंगे। हम आपके बेहतर भविष्य की कामना करते हैं और आपका हर सपना सच हो।
धन्यवाद।
बार बार पूछे जाने वाले प्रश्न
ब्रह्म समाज का मुख्य उद्देश्य क्या था?
इस संस्था का मुख्य उद्देश्य हिन्दू धर्म में फैल रही कुरीतियों से हिन्दू धर्म को दुबारा पवित्र करना और एकेश्वरवाद का प्रचार करना अर्थात एक भगवान को मानना।
भारत का ब्रह्म समाज विभाजित क्यों हुआ?
इसके बाद इस संस्था की प्रगति में समस्या आनी शुरू हो गई थी, केशव चंद्र सेन की जो सोच थी वो समय से बहुत ज्यादा आगे थी, वे अंतर्जातीय विवाह का भी सहयोग करते थे जो की वर्तमान की 21वीं शताब्दी में भी अनुचित माना जाता है, केशव चंद्र सेन की समय से आगे की ऐसी ही सोच के कारण देबेन्द्रनाथ टैगोर और केशव चंद्र सेन में कोई मेल नहीं बन पा रहा था और इसी कारण से देबेन्द्रनाथ टैगोर ने 1865 में केशव चंद्र सेन को आचार्य के पद से हटा दिया था।
ब्रह्म समाज के प्रमुख सिद्धांत क्या है?
1. विधवा पुनर्विवाह का सहयोग
2. बहुविवाह का उन्मूलन
3. महिलाओं की शिक्षा को बढ़ावा और प्रचार
4. रैयत की स्थिति और स्वभाव में सुधार
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