भगवद गीता अध्याय 1 – दोस्तों, आज हम श्रीमद्भगवद्गीता के प्रथम अध्याय अर्जुनविषादयोग के बारे में समझेंगे।
इस अध्याय की सबसे पहले धृतराष्ट्र से शुरुआत होती है और वे अपने सवाल संजय से पूछते हैं की युद्ध में क्या हो रहा है, उनका पुत्र दुर्योधन और उनकी सेना क्या कर रही है और इसी के साथ पांडु पुत्रों की सेना क्या कर रही है।
इसके बाद इस अध्याय में दोनों सेना के शूरवीरों का वर्णन और इसके बाद अर्जुन का विषाद आता है अर्थात अर्जुन का दुख, उनकी समस्या, उनका धर्म संकट, आइए जानें:
धृतराष्ट्र उवाच
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः ।
मामका: पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय ।।1-1।।
इसका तात्पर्य यह है की इसमें धृतराष्ट्र संजय से पूछते हैं कि धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र युद्ध भूमि में युद्ध करने के लिए एकत्रित मेरे और पांडु के पुत्र क्या कर रहे हैं, धृतराष्ट्र यह जानना चाहते हैं की आखिर युद्ध स्थल में क्या हो रहा है।
धृतराष्ट्र जन्म से ही अंधे थे, परंतु वे आँखों से ही अंधे थे, अपने मन और मस्तिष्क से नहीं, उन्हें पता था की वे धर्म के साथ नहीं है क्योंकि धर्म तो श्रीकृष्ण के पक्ष में था और श्रीकृष्ण पांडवों के पक्ष से इस युद्ध में थे।
अपने पुत्र मोह में उन्होंने शांति की जगह युद्ध को चुना था, परंतु वे जानते थे की इस युद्ध को जीतना आसान नहीं होगा, दोस्तों, जब हम भी अपने जीवन में कुछ गलत कर रहे होते हैं तो हमें भी पता होता है की इसका परिणाम अच्छा नहीं होगा और ऐसा ही धृतराष्ट्र के साथ भी हो रहा था, वे भी इसी दर और आशंका में दिखते हैं।
संजय उवाच
दृष्टवा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा ।
आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत् ।।1-2।।
संजय आंखों देखा हाल बताते हुए उत्तर देते हैं, हे राजन ! दुर्योधन पांडवों की सेना के रचे हुए व्यूह को देख रहे हैं और यह बात गुरु द्रोणाचार्य को जाकर कहते हैं।
संजय को दिव्य दृष्टि प्राप्त थी, वे युद्ध से दूर होकर भी युद्ध को देख सकते थे, वे जो अपनी दिव्य दृष्टि से युद्ध में देख रहे थे वही राजा धृतराष्ट्र को बता रहे थे, इसमें वे अपनी तरफ से कुछ नहीं कह रहे थे और युद्ध का आंखों देखा हाल बता रहे थे।
उदाहरण के लिए जैसे हम वर्तमान में खेलों का सीधा प्रसारण सुनते हैं कुछ इसी प्रकार संजय भी युद्ध का आंखों देखा हाल बता रहे थे, यह उन्हीं की दिव्य दृष्टि का फल था जिससे कि हमें गीता सुनने को मिली थी
पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम् ।
व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ।।
इसका तात्पर्य है, हे आचार्य द्रुपद पुत्र धृष्टद्युम्न आपका ही बुद्धिमान शिष्य है, पांडव पुत्रों की यह बड़ी सेना की यह व्यूहाकार रचना धृष्टद्युम्न ने ही की है, व्यूहाकार रचना से मतलब है की किस विशेष तरीके से उस सेना के योद्धा खड़े हुए हैं, एक ऐसा व्यूह जिसे भेद कर उस सेना में घुसना असंभव हो और यदि कोई उसमें घुसने में सफल भी हो जाए तो कभी बाहर ना आ सके।
दोस्तों, जब शत्रु या समस्या को हम देखते हैं तब वह हमें बहुत बड़ी और विकराल दिखाई देती है और मन में यह डर भी रहता है की कुछ कर गुजर के हम इसमें घुस भी गए तो क्या होगा, क्या हम इस समस्या से बाहर आ पाएंगे, क्या हम जीत पाएंगे, कुछ इसी प्रकार की सोच से दुर्योधन भी गुजर रहा है।
अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि ।
युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथ: ।।
धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान् ।
पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङवः ।।
युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान् ।
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः ।।
इन 3 श्लोकों का तात्पर्य यह है की इनमें दुर्योधन पांडव पुत्रों की सेना के महान योद्धाओं के नाम ले रहा है, जब भी युद्ध होता है तो आप अपने सामने खड़ी हुई सेना के योद्धाओं को जांचते और परखते हैं, वैसे ही इस स्थिति में दुर्योधन भी कर रहा है।
दुर्योधन गुरु द्रोणाचार्य से कहता है की बड़े-बड़े धनुष वाले तथा युद्ध में भीम और अर्जुन के समान शूरवीर सात्यकि और विराट तथा महारथी राजा द्रुपद, धृष्टकेतु, और चेकितान तथा बलवान काशिराज, पुरुजित, कुन्तिभोज और मनुष्यों में श्रेष्ठ शैब्य, पराक्रमी युधामन्यु तथा बलवान उत्तमौजा, सुभद्रापुत्र अभिमन्यु एवं द्रौपदी के पाँचों पुत्र, ये सभी के सभी महारथी हैं।
इससे हमें यह पता चलता है कि चाहे शत्रु हो या शत्रु के जैसी समस्या उसके बारे में सब कुछ जानना चाहिए, दोस्तों समस्या के हर पहलू से हमें वाकिफ होना चाहिए और उसके हर अंग के बारे में हमें मालूम होना चाहिए, जैसा कि उस स्थिति में दुर्योधन भी कर रहा है।
अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम ।
नायका मम सैन्यस्य सञ्ज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते ।।
इसमें दुर्योधन आगे कहता है, हे ब्राह्मण श्रेष्ठ, पांडवों की सेना के योद्धाओं को तो आपने देख लिया, अब अपने पक्ष में भी जो प्रधान हैं उनको भी आप समझ लीजिए।
द्रोणाचार्य की जानकारी के लिए शत्रु की सेना के बाद दुर्योधन अपनी सेना के महारथियों का परिचय देता है।
समस्या के बारे में सब कुछ जान लेने के बाद अब अपने पक्ष में सोचने की बारी आती है, दोस्तों, हमें भी यह जानना होता है की हमारे पक्ष में कौन-कौन से मजबूत बिंदु हैं, जिससे हम उस समस्या पर विजय प्राप्त कर सकते हैं।
जैसे की आपने आपकी समस्या के हर पहलू के बारे में सोचा, तभी आपको स्वयं का भी आकलन कर लेना चाहिए।
भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिञ्जयः।
अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च ।।
सबसे पहले आप द्रोणाचार्य और भीष्म पितामह तथा कर्ण और संग्रामविजयी कृपाचार्य तथा वैसे ही अश्वत्थामा, विकर्ण और सोमदत्त का पुत्र भूरिश्रवा के बारे में जानिए।
दोस्तों, जिस तरह से हम वर्तमान समय में हमारे जोखिमों का आकलन करते हैं, वैसे ही दुर्योधन भी अपनी शत्रु की सेना को देखते हुए, दोनों सेनाओं के योद्धाओं की बाते करते हुए आगे होने वाले युद्ध के लिए तैयार हो रहे हैं, चुनौती को हर तरीके से समझ कर ही उससे विजय प्राप्त की जा सकती है।
हमें चुनौती को इतने अच्छे से जान लेना चाहिए कि जब हम उससे लड़ने जाएं तो कुछ नए जैसा न लगे।
अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः।
नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः ।।
दुर्योधन गर्व के साथ कहता है कि मेरे लिए जीवन की आशा त्याग देने वालों की कोई कमी नहीं है, इतना ही नहीं ये शूरवीर अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित हैं और सब के सब युद्ध में चतुर है।
दुर्योधन के एक इशारे पर उसके सेना के शूरवीर लड़ने और मरने को तैयार हैं और उन्हीं को देख कर दुर्योधन खुश हो रहा है।
दुर्योधन के साथ युद्ध में लड़ने के लिए शूरवीर थे, जो उसके लिए मरने के लिए भी तैयार हैं, हम सब जब हमारे जीवन की चुनौतियों से लड़ते हैं, तो तब हमारे साथ हमारा हुनर, हिम्मत, मेहनत, संगी और रिश्तेदार साथ होते हैं।
अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम् ।
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम् ।।
दुर्योधन आगे कहता है भीष्म पितामह द्वारा रक्षित उनकी सेना सब प्रकार से अजय है और वहीं शत्रु की सेना भीम द्वारा रक्षित है।
दुर्योधन कहना चाहते हैं की भीम की सेना को वो आसानी से जीत सकते हैं और यहाँ पर दुर्योधन अपना घमंड दिखा रहा है जो हमें बिल्कुल भी नहीं करना चाहिए क्यूंकि अगर दुर्योधन जानता की वो दूसरी सेना को हरा देगा तो वह युद्ध ही क्यों करता।
युद्ध को जीतने के लिए दूसरों को हराना पड़ता है और यदि चुनौती एवं समस्या को देख कर हमें लगता है की हम जीत जाएंगे तो उससे विशवास या आत्मविश्वास तो हो सकता है लेकिन घमंड नहीं क्यूंकि अगर घमंड हुआ तो वह हमारे हारने की शुरुवात है।
अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः।
भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि ।।
भगवद गीता अध्याय 1 – दोनों सेनाओं के इस तरह के वर्णन से दुर्योधन अपनी इस बात पर पहुंचना चाहता था कि वो हर किसी को अपने-अपने मोर्चों पर अपनी-अपनी जगह स्थित रहते हुए निसंदेह भीष्म पितामह की रक्षा करनी है।
कहने का मतलब यह है कि किसी भी होने वाले युद्ध में उसकी रक्षा की जाती है जो उस युद्ध में सबसे ज्यादा आवश्यक होता है, जैसे की दुर्योधन और उसकी सेना के लिए भीष्म पितामह हैं, भीष्म पितामह के हारने का मतलब था कि युद्ध हार जाना और उनके बचे रहने का मतलब की वे युद्ध हार नहीं सकते।
अपनी सबसे बहुमूल्य चीज़ को तब तक बचा के रखना चाहिए जब तक की आप युद्ध पर विजय प्राप्त न कर लें।
तस्य सञ्जनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः।
सिंहनादं विनद्योच्चैः शंख दध्मो प्रतापवान् ।।
होने वाले युद्ध की शंख उद्घोषणा होती है, कौरवों में सबसे वृद्ध, सबसे प्रतापी भीष्म पितामह ने उच्च स्वरों में सिंह की दहाड़ के समान गरज कर ऐसा शंख बजाया की दुर्योधन के ह्रदय में हर्ष उत्पन्न हो गया।
युद्ध जीतने के लिए अपने पक्ष में माहौल बनाना पड़ता है, खुद को दिलासा भी देना पड़ता है कि हम युद्ध जीतने में सक्षम हैं और ऐसा ही भीष्म पितामह ने भी किया और ऐसा ही हमें भी करना चाहिए।
ततः शंखाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः।
सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत् ।।
भगवद गीता अध्याय 1 – युद्ध भयंकर होते हैं, और यह इतिहास के सबसे भयंकर युद्ध का आरंभ था, भीष्म पितामह के शंख के पश्चात नगाड़े तथा ढोल, मृदंग और नरसिंघे आदि बाजे एक साथ ही बज उठे।
इन बाजों का नाद संगीतमय नहीं बहुत ही डरावना था, दोस्तों युद्ध मनोरंजक नहीं होते हैं इसलिए यदि युद्ध का निर्णय ले लिया जाता है तो उसमें फिर जो भी स्वीकार हो कर लेना पड़ता है।
हर युद्ध, हर चुनौती अपने-अपने किस्म के हालात लेकर आती है, उन्हीं हालातों के आधार पर ही हमें तैयारियां करनी पड़ती हैं।
ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ ।
माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शंखौ प्रदध्मतुः ।।
अब बारी पाण्डु पुत्रों की थी और उनकी सेना की शंखनाद की और सफ़ेद घोड़ो से युक्त, उत्तम रथ में बैठे हुए श्रीकृष्ण और अर्जुन ने भी अपने-अपने आलोखिक शंख बजाए।
युद्ध में जब तैयारी होती है, तो वह दोनों तरफ से होती है और हर पक्ष अपनी विजय की आशा में अपनी सेना को भरोसा देता है।
वर्तमान समय में हम अगर शंख बजाने की उपमा के बारे में सोचे, तो यह हो सकता है की हम कुछ भी ऐसा कर सकते हैं जो हमें प्रोत्साहित करे।
पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जयः।
पौण्ड्रं दध्मौ महाशंख भीमकर्मा वृकोदरः ।।
श्रीकृष्ण के शंख का नाम पाञ्चजन्य है, अर्जुन के शंख का नाम देवदत्त है और भयानक कर्म वाले भयानक भीमसेन ने अपना पौण्ड्रं नामक महाशंख बजाया।
अपने जीवन में इसी तरह से हम भी अपनी चुनौतियों में आगे बढ़ने के लिए अपनी प्रेरणा चुन सकते हैं।
कुछ लोगों के लिए संगीत ऐसा कार्य करता है,कुछ के लिए भगवान को याद करना और कुछ के लिए माता-पिता का आशीर्वाद उनकी प्रेरणा हो सकता है, हमें अपने-अपने शंख स्वयं चुन सकते हैं।
अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ ।।
भगवद गीता अध्याय 1 – पांडवों में सबसे बड़े भाई कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर ने अनन्तविजय नाम का, और नकुल तथा सहदेव ने सुघोष एवं मणिपुष्पक नामक शंख बजाए।
दोस्तों, प्रेरणा तो सभी को चाहिए और जैसे की हमने देखा की कैसे सब लोग युद्ध को जीतने के लिए अपने-अपने प्रयास कर रहे थे।
काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः।
धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः ।।
द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते ।
सौभद्रश्च महाबाहुः शंखान्दध्मुः पृथक्पृथक् ।।
हर शंख की अलग ध्वनि अपना एक अलग अस्तित्व, युद्ध का हर योद्धा अपनी उपस्थिति दर्ज कर रहा है।
श्रेष्ठ धनुष वाले काशिराज और महारथी शिखण्डी एवं धृष्टद्युम्न तथा राजा विराट और अजेय सात्यकि, राजा द्रुपद एवं द्रौपदी के पांचों पुत्र और बड़ी भुजाओं वाले सुभद्रा-पुत्र अभिमन्यु, संजय धृतराष्ट्र को बताते हैं कि हे राजन ! सबने अपनी-अपनी ओर से अपने-अपने शंख बजाए।
दोस्तों, महाभारत का युद्ध ऐसा था कि इसमें हर बड़ा योद्धा भाग ले रहा था और ऐसे मौके को कोई कैसे छोड़ सकता था, इसमें हमारे लिए ध्यान देने की बात यह है कि सच्चा योद्धा तो वही है जो युद्ध के लिए तत्पर रहे, युद्ध को आप जीवन माने या चुनौती माने जो भी माने परन्तु उसके लिए हमेशा तैयार रहे।
इसलिए हर योद्धा शंख बजा-बजा कर सबको अपने होने का आभास करवा रहा है।
स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत् ।
नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन् ।।
युद्ध से पहले जैसे आप शत्रु को अपनी शक्ति दिखा कर डराने का प्रयास करते हैं, वैसे भी यहाँ भी हो रहा है।
संजय कहते हैं कि इस भयानक शब्द ने आकाश और पृथ्वी को भी गुंजाते हुए धृतराष्ट के अर्थात आपके पक्ष वालों के ह्रदय विदीर्ण कर दिए।
जब आप हुंकार भरते हैं, तो बड़े से बड़े शत्रु को भी डर लगता है, यह हुंकार ऐसी होनी चाहिए की शत्रु सोचे की वह किससे युद्ध करने जा रहा है।
आप कभी भी किसी से मिलने के लिए जाएं तो आपकी प्रतिभा ऐसी होनी चाहिए की सामने वाला आपके कौशल से प्रभावित हो जाए।
अर्जुन उवाच
अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान् कपिध्वजः।
प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः ।।
हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते ।
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत ।।
अर्जुन अपना मोर्चा बाँध कर डटे हुए धृतराष्ट्र संबंधियों को देखते हैं, फिर अपना धनुष उठाकर हृषीकेशं श्रीकृष्ण से कहते हैं हे अच्युत! मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा कीजिए।
अच्युत अर्थात अटल जो अपने स्थान से हटता नहीं, जिसका नाश नहीं हो सकता और श्रीकृष्ण का एक नाम अच्युत भी था और अर्जुन अपने सारथी श्रीकृष्ण से दोनों सेनाओं के बीच में जाने के लिए कह रहे हैं।
अर्जुन ने श्रीकृष्ण को इसलिए चुना था क्यूंकि वे जानते थे की जब साक्षात् भगवन उनके साथ हैं, तो इसका मतलब धर्म उनके साथ हैं और जिनके साथ धर्म होता है, वह कभी हार नहीं सकता है।
यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान् ।
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे ।।
भगवद गीता अध्याय 1 – दोस्तों, आज के जीवन का यह सबसे बड़ा ज्ञान है, युद्ध कोई भी हो सकता है, किसी भी प्रकार का और आप दोनों पक्षों के बीच में जाकर आप युद्ध की सही अवस्था को जान सकते हैं।
अर्जुन श्रीकृष्ण से कहते हैं कि हे कृष्ण ! जब तक मै युद्धक्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इन विपक्षी योद्धाओं को भली-भाँति देख न लूँ की इस युद्ध रुपी व्यापार में मुझे किन-किन के साथ युद्ध करना योग्य है, तब तक इस रथ को यहीं खड़ा रखें।
दोस्तों, हमें भी हमारी समस्या के बीच में खड़े होकर उसे भली-भांति देखना और परखना चाहिए और तभी निर्णय लेना चाहिए।
योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः।
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः ।।
अर्जुन दुर्योधन को दुर्बुद्धि बता रहें हैं क्यूंकि दुर्योधन के हट के चलते ही यह युद्ध हुआ, और दुर्योधन का साथ देने जितने भी राजा आए हैं उन्हें अर्जुन युद्ध स्थल की बीच में खड़े होकर देखना चाहते हैं।
दोस्तों, यह जरूरी नहीं की आपका शत्रु सही हो, यह भी हो सकता है की उसने गलत तरीके अपना के आपको युद्ध में उलझाना चाहा हो, जैसा की महाभारत में भी हुआ, युद्ध तो करना ही पड़ता है और वह तभी करना चाहिए जब आप अपने शत्रु को अच्छे से देख और परख चुके हों और जान चुके हों।
इसलिए अर्जुन श्रीकृष्ण से दोनों सेनाओं के बीच रथ को ले जाने के लिए कहते हैं।
संजय उवाच
एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत ।
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम् ।।
भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम् ।
उवाच पार्थ पश्यैतान् समवेतान् कुरूनिति ।।
संजय अपना आँखों देखा हाल बताते हैं, हे धृतराष्ट्र ! जैसा की अर्जुन ने कहा था, श्रीकृष्ण ने दोनों सेनाओं के बीच में भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य के सामने तथा सम्पूर्ण राजाओं के सामने रथ को खड़ा करके इस प्रकार कहा, हे पार्थ ! युद्ध के लिए जुटे हुए इन कौरवों को देखो।
दोस्तों, पार्थ अर्जुन का ही नाम था, वही अर्जुन जो शंका में बस घिरने ही वाले हैं और हम सब भी पार्थ हो सकते हैं और यदि हम कभी अपने आप को शंका में घिरा पाते हैं, तो सहायता के लिए भगवान श्रीकृष्ण भी दूर नहीं होते हैं और न ही उनकी गीता दूर होती है।
तत्रापश्यत्स्थितान् पार्थः पितृनथ पितामहान् ।
आचार्यान्मातुलान्भ्रातृन् पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा ।।
कुन्ती का एक नाम पृथा भी था, पृथापुत्र अर्थात कुन्तीपुत्र।
पार्थ दोनों ही सेना के मध्य में उपस्थित ताऊ, चाचा, दादा, परदादा, गुरु, मामा, भाइयों, पुत्रों और पोतो को देख रहे हैं।
इसलिए महाभारत को धर्म युद्ध कहा गया है, एक ऐसा युद्ध जो धर्म के लिए किया गया था और इस युद्ध का एक बड़ा परिवार दो हिस्सों में बंट गया था, आधे सगे संबंधी एक तरफ और आधे दूसरी तरफ।
हर किसी को फैसला करना था की वह युद्ध में किसका साथ देना चाहता है, कौरवों का या पांडवों का।
श्वशुरान् सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि ।
तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान् बन्धूनवस्थितान् ।।
इन सब सगे संबंधियों के साथ-साथ अपने मित्रों को, ससुरों को, सुहृदों को देख रहे हैं, विचार कर रहे हैं, पूरा जीवन अपने भाइयों और धृतराष्ट्र पुत्रों के साथ बिताया, सारे सगे संबंधी एक ही तो हैं और दोनों पक्षों में अपने ही तो लोग हैं, किंतु अब अपनों के ही दो पक्ष बन गए हैं, उसमें से एक पक्ष शत्रु का है।
हर किसी से अर्जुन की शत्रुता नहीं थी परंतु वो सब इस युद्ध में अर्जुन के शत्रु थे और उन्हें उनके साथ इस युद्ध में लड़ना होगा।
अर्जुन उवाच
कृपया परयाविष्टो विषीदत्रिदमब्रवीत् ।
दृष्टेवमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम् ।।
अपने करीबी एकदम अर्जुन के सामने खड़े थे, परंतु शत्रु पक्ष में उन उपस्थित सम्पूर्ण बंधुओं को देखकर वे कुन्तीपुत्र अर्जुन अत्यंत करुणा से युक्त होकर शोक करते हुए श्रीकृष्ण से कह रहे हैं और दोस्तों यहीं से अर्जुन के विषाद का आरंभ होता है।
जिसके लिए सम्पूर्ण गीता की रचना हुई और श्रीकृष्ण को अर्जुन के मार्ग दर्शन के लिए एक ऐसी रचना करनी पड़ी जो हमेशा-हमेशा के लिए हर किसी को सही राह में चलने के लिए प्रेरित करती है और आगे भी प्रेरित करती रहेगी।
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति ।
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते ।।
भगवद गीता अध्याय 1 – युद्ध की बात करना आसान होता है, युद्ध करना कठिन होता है और ऐसा ही अर्जुन के साथ हुआ और दोस्तों, ऐसा ही हम सब के साथ भी होता है और इसी का समाधान हमें भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा गीता में प्राप्त होता है।
दुखी अर्जुन कहते हैं, हे कृष्ण ! युद्धक्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इस स्वजन समुदाय अपनों को देखकर मेरे अंग शिथिल होते जा रहे हैं, जैसे की अंगों में शक्ति न हो और मुख सूखा जा रहा है तथा मेरे शरीर में कंप व रोमांच हो रहा है।
न जाने कितनी ही बार ऐसा हम सब के साथ होता है, की जब युद्ध के सम्मुख होते हैं तब शक्ति ख़त्म हो जाती है, इसके साथ परीक्षा की घड़ी के समय भी ऐसी ही घबराहट होती है।
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्वक्चैव परिदह्यते ।
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः ।।
अर्जुन अपने दुख को बता रहे हैं, दोस्तों, उनका दुख हमारी दुविधाओं से अलग नहीं है, चाहे हम परीक्षा दे रहे हों या कोई व्यापार करने जा रहे हो या चाहे कोई बड़ा खेल खेलने जा रहे हों, कितने ही ऐसे अवसर आते हैं जहां हम अपने आप को अर्जुन की अवस्था में पाते हैं और लगता की हम युद्ध के लायक ही नहीं हैं।
अर्जुन के हाथ से उनका गाण्डीव धनुष गिर रहा है और त्वचा भी बहुत जल रही है तथा उनका मन भ्रमित सा हो रहा है इसलिए वे खड़े रहने में भी समर्थ नहीं हो पा रहे हैं।
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ।
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ।।
विश्व का सबसे बड़ा योद्धा अर्जुन हताश है, युद्ध से पहले अगर यदि आप अपने आप को काँपता हुआ पाते हैं और देखते हैं की डर से आपका मुँह सूख रहा है तो आपको निश्चित ही लगता है की आप हारने वाले हैं और दुनिया ख़त्म सी होती दिखती है और चारों तरफ अंधकार सा महसूस होता है।
ऐसे ही समय में हमें एक मार्ग दर्शक की जरुरत होती है और इसलिए अर्जुन कहते हैं, हे केशव ! मैं लक्षणों को भी विपरीत ही देख रहा हूँ तथा युद्ध में स्वजन समुदाय को मारकर कल्याण भी नहीं दिखता, अर्थात अपनों की जान लेके मुझे क्या फायदा होगा।
न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च ।
किं नो राज्येन गोविंद किं भोगैर्जीवितेन वा ।।
अर्जुन बात को स्पष्ट रखते हैं, डर में सब व्यर्थ लगता है, अर्जुन कहते हैं, हे कृष्ण ! मैं ना तो विजय चाहता हूं और ना ही राज्य और ना ही मैं सुखों को चाहता हूं, हे गोविंद ! हमें ऐसे राज्य से क्या प्रयोजन है अथवा ऐसे भोगों और जीवन से भी क्या लाभ है।
इस विषाद में, शंका में, डर में, अर्जुन सब कुछ छोड़ देने को और त्याग देने को तैयार है धन, दुनिया उन्हें कुछ भी नहीं चाहिए, वे ऐसे भयभीत और डर गए हैं कि दुनिया की हर खुशी को छोड़कर वह बस इस युद्ध से बचना चाहते हैं।
इन्हीं लक्षणों को हमें भी पहचानना है, ताकि ऐसी अवस्था में हम भी वही करें जो भगवान श्री कृष्ण बताएंगे।
येषामर्थे काङक्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च ।
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ।।
अर्जुन कहते हैं, हमें जिनके लिए राज्य, भोग और सुखादि अभीष्ट हैं, वे ही ये सब धन और जीवन की आशा को त्यागकर युद्ध में खड़े हैं।
दोस्तों, सोचिए जीवन का हर कार्य हम अपनों के लिए ही करते हैं, हमारा सारा काम हमारे सारे फायदे, सुख शांति भागदौड़ अपनों के लिए ही तो होती है।
और यहां पर हमें अपनों को ही मारना पड़ रहा है, इससे बड़ी क्या दुविधा होगी, अब वही अपने आप को मारने के लिए खड़े हैं, और अब आपको भी उन्हें मारना पड़ेगा, ऐसी दुनिया किस काम की, यही उलझन अर्जुन के मन में है।
आचार्याः पितरः पुत्रास् तथैव च पितामहाः।
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः संबंधिनस्तथा ।।
अर्जुन के सामने खड़े हैं उनके गुरुजन, ताऊ, चाचा, लड़के, दादा, मामा, ससुर, पौत्र, साले और भी कई सारे संबंधी लोग।
अर्जुन अपने हर संबंधी को करीब से पहचान रहे हैं और पहचान के उन्हें बता भी रहें हैं।
एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन ।
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते ।।
भगवद गीता अध्याय 1 – अगर आप युद्ध करने का निर्णय लेते हैं तो क्या आप कह सकते हैं की मैं इस शत्रु को मारूंगा और उसे नहीं, युद्ध में तो हर कोई एक सैनिक होता है और यदि वो शत्रु पक्ष से है, तो आपको उसे मारना ही है, यही दुविधा अर्जुन की है जो वे बता रहे हैं।
हे मधुसूदन ! मेरे मारने पर अथवा तीनों लोकों के राज्य के लिए भी मैं इन सब को मारना नहीं चाहता, फिर पृत्वी के लिए तो कहना ही क्या है?
देखा दोस्तों, तीनों लोकों का राज्य भी अर्जुन को नहीं चाहिए और इन सब के लिए उन्हें उनके अपनों का वध करना पड़ता है तो यह सब उन्हें नहीं चाहिए।
दोस्तों, जीवन में कई बार ऐसी घडी आती है जब हमें जो सबसे प्रिय होता है उसका त्याग करना पड़ता है क्यूंकि हमें अपने धेय की ओर बढ़ना पड़ता है और अगर हम ऐसा करते हैं तो हमें धेय की प्राप्ति होती है।
तब क्या हम अपनी सबसे प्यारी चीज़ को छोड़ सकते हैं?
निहत्य धार्तराष्ट्रान्न का प्रीतिः स्याज्जनार्दन ।
पापमेवाश्रयेदस्मान् हत्वैतानाततायिनः ।।
अर्जुन आगे कहते हैं, हे जनार्दन ! धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें क्या प्रसन्नता होगी? इन आततायियों को मारकर तो हमें तो पाप ही लगेगा न।
शत्रु पक्ष में चाहे आतताई, बुरे लोग ही क्यों न हो लेकिन है तो अपने, अपनों को मारकर और अपनों को दुख देकर केवल पाप ही लग सकता है पुण्य तो नहीं।
यह कुरु पुत्रों के लालच का ही परिणाम था कि भाई-भाई आमने-सामने थे।
दोस्तों, लालच से कभी किसी का भला नहीं होता और महाभारत में भी नहीं होना था, एक पक्ष को जीतना था तथा दूसरे पक्ष को मारना था।
तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान् ।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव ।।
क्या अपने परिवार को मारकर आपको सुख मिल सकता है? इसीलिए महाभारत को धर्म युद्ध कहा जाता है, जब ऐसा धर्म संकट हो तो क्या करें, अर्जुन पूछते हैं, हे माधव ! अपने ही बान्धव और धृतराष्ट्र पुत्रों को मारने के लिए हम योग्य नहीं है क्योंकि अपने ही कुटुंब को मारकर हम कैसे सुखी होंगे।
दोस्तों, जब भी कभी भी आपके सामने ऐसी परिस्थिति आए, जिसमें लालच की वजह से बटवारा हो रहा हो या झगड़ा हो रहा हो, तो ठंडे दिमाग से अर्जुन की ऐसी हालत के बारे में सोचिएगा और देखिएगा की दुनिया का सबसे बड़ा युद्ध करके किसी को क्या प्राप्त हुआ।
यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम् ।।
कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम् ।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन ।।
भगवद गीता अध्याय 1 – आपका शत्रु किसी भी पाप को करने के लिए तैयार है, परंतु आप समझते हैं की जो गलत व अनुचित है वो नहीं करना चाहिए, इन दोनों श्लोकों में अर्जुन ने इसी दुविधा को बताया है।
यद्यपि लोभ से भ्रष्ट-चित्त हुए ये लोग कुल के नाश से उत्पन्न दोष को और मित्रों से विरोध करने में पाप को नहीं देखते हैं, तो भी हे जनार्दन! कुल के नाश से उत्पन्न दोष को जानने वाले हम लोगों को इस पाप से हटने के लिए क्यों नहीं विचार करना चाहिए?
दुश्मन गलत कर रहा है, वो ये नहीं समझता, लेकिन आप तो समझते हैं, समझदार होने के नाते आपको युद्ध से हटने के लिए नहीं सोचना चाहिए, लेकिन यदि आप युद्ध से हट गए तो उसे आपकी हार मानी जाएगी, दोस्तों, क्या इसके लिए आप तैयार होंगे?
कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः ।
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नम धर्मोऽभिभवत्युत ।।
जहां परिवार ख़त्म हो जाता है, वहां कुछ नहीं बचता, कुल का नाश हो जाने का मतलब सब कुछ ख़त्म हो जाना होता है और ऐसी ही स्थिति में अर्जुन फसें हुए हैं।
वो कहते हैं की कुल के नाश से सनातन कुल धर्म नष्ट हो जाते हैं तथा धर्म का नाश हो जाने पर सम्पूर्ण कुल में पाप भी बहुत फैल जाता है, अर्जुन जो कहना चाहते हैं वो यह है की अगर परिवार नष्ट होता है तो धर्म नष्ट होता है और जब धर्म नष्ट हो जाता है तब सम्पूर्ण कुल में पाप बढ़ जाता है।
परिवार ही है जो हमें अपने गुणों और आदर्शों से जोड़कर रखता है, उसके ख़त्म होते ही समाज में चारों तरफ पाप बढ़ने लगता है।
दोस्तों, आप चाहें तो अपने चारों तरफ भी देख सकते हैं, जहां परिवार का सम्मान नहीं वहां पर किसी भी बात का सम्मान नहीं होता है और समाज पतन की ओर ही जाता है।
अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः ।
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकरः ।।
परिवार की भलाई उसकी स्त्रियों पर निर्भर करती है, अगर कोई घर बनता है तो वह उस परिवार की महिला की वजह से बनता है, जिस घर में कोई महिला नहीं होती तो कहा जाता है की उस घर का कोई भविष्य ही नहीं है।
अगर किसी परिवार की स्त्रियां दूषित हो जाएं तो उसका क्या असर पड़ता है, अर्जुन कहते हैं, हे कृष्ण ! पाप के अधिक बढ़ जाने से कुल की स्त्रियां दूषित हो जाती हैं और स्त्रियों के दूषित हो जाने पर वर्णसंकर उत्पन्न हो जाता है।
संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च ।
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः ।।
वर्णसंकर का यहाँ पर मतलब है वर्ण या समाज की मर्यादाओं को सम्मान न देते हुए गलत तरीके से और गलत वर्णों के मेल से जब संतान की उत्पत्ति होती है, तो वह सब कुछ ख़त्म कर देती है।
दोस्तों, इसलिए समाज के नियम बड़े सोच समझ कर बनाए गए होते हैं और इतने हज़ारों वर्षों की सोच और नियमों को बिना सोचे समझे नहीं तोडना चाहिए और अर्जुन इसी बात का वर्णन कर रहे हैं की हे कृष्ण ! वर्णसंकर कुलघातियों को और कुल को नर्क में ले जाने के लिए ही तो होता है।
लिप्त हुई पिंड और जल की क्रिया वाले अर्थात श्राद्ध और तर्पण से वंचित इनके पितृलोक भी अधोगति को प्राप्त होते हैं।
दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसंकरकारकैः ।
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः ।।
भगवद गीता अध्याय 1 – अर्जुन ने कहा इन वर्णसंकर कारक दोषों से कुलघातियों के सनातन कुल धर्म और जाति धर्म नष्ट हो जाते हैं, जहां वर्णसंकर होता है, वहां धर्म का नाश निश्चित है।
जैसा की अर्जुन ने बताया, वर्णसंकर की वजह से कुल के धर्म का नाश होता है और जाति के धर्म का नाश होता है, और जब कोई अपने धर्म का पालन नहीं करेगा, कर्तव्य का निर्वाह नहीं करेगा और समाज मनमानी करके कोई नियम नहीं मानेगा तो फिर समाज, समाज के रूप में कैसे रह जाएगा।
समाज तो नाम ही कायदे और कानून का है, जहां सब सम्मान से, बिना किसी डर के एक साथ रह सकें।
उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन ।
नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम ।।
हे जनार्दन ! जिनका कुल धर्म नष्ट हो गया है, ऐसे मनुष्यों का अनिश्चित काल तक नर्क में वास होता है, ऐसा हम सुनते आए हैं।
दोस्तों, महाभारत के समय कुल की मान्यता इतनी थी की जब किसी कुल का नाश हो जाता था तो यह मान लिया जाता था की अब ये केवल नर्क में ही रहेगा, इसलिए कुल की रक्षा करना, उसके सम्मान को बचाना, उसका नाम करना इतनी बड़ी बात मानी जाती थी।
अर्जुन ही नहीं, ऐसा हम भी सुनते आए हैं, की जो धर्म का, कुल का सम्मान नहीं करते वे सीधे नर्क को जाते हैं।
इसे आप ऐसा भी मान सकते हैं, की जहाँ धर्म नहीं होता वो जगह अपने आप ही नर्क बन जाती है, और आप अपने चारों तरफ देख सकते हैं, ऐसी कई जगह आपको देखने के लिए मिल जाएंगी।
अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः ।।
अर्जुन आगे स्वयं को दोष दे रहे हैं, ( शोक में ) हम लोग बुद्धिमान होते हुए भी पाप करने को तैयार हो गए हैं, जो राज्य और भोग की लालच में स्वजनों को मारने के लिए भी उद्यत हो गए हैं।
दोस्तों, दुर्योधन जैसा भी है, उसने जो भी निर्णय लिया, परंतु अर्जुन और उसकी सेना तो समझदार है, क्या ऐसा उनके लिए ठीक है? बेवकूफ का पाप शायद माफ़ भी हो जाए, लेकिन बुद्धिमान से बहुत कुछ की उम्मीद की जाती है, तो क्या समझदार यदि युद्ध के लिए तैयार हो जाता है तो उसकी गलती की माफ़ी मिलेगी? अर्जुन को लगता है की माफ़ी नहीं मिलेगी।
यदि मामप्रतीकारम शस्त्रं शस्त्रपाणयः।
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस् तन्मे क्षेमतरं भवेत् ।।
आँखे बंद करके अपनों के बारे में सोचिए जो आपको बहुत पसंद हैं, जिसकी गोद में आप लोग खेलें हों, जिसके साथ खेलें हों, चाहे वो बड़ा हो या छोटा हो, क्यों आप उसे मार पाएंगे? इससे अच्छा तो आपको लगेगा की उसके हाथों आप स्वयं ही मारे जाएं।
यही बात अर्जुन कहते हैं, यदि मुझे शस्त्र रहित एवं सामना न करने वाले को शस्त्र हाथ में लिए हुए धृतराष्ट्र के पुत्र रण में मार डालें, तो वह मरना भी मेरे लिए अधिक कल्याणकारी होगा।
संजय उवाच
एवमुक्त्वार्जुनः सङ्ख्ये रथोपस्थ उपाविशत् ।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः ।।
संजय जो धृतराष्ट्र को इस महान युद्ध का वर्णन दे रहे हैं, वो बताते हैं, हे धृतराष्ट्र ! रणभूमि में शोक से उद्विग्न मन वाले अर्जुन, बाण के साथ धनुष को त्याग कर रथ के पिछले हिस्से में बैठ गए हैं।
दोस्तों, यह था गीता का पहला अध्याय अर्जुनविषादयोग, इसमें अर्जुन के दुख के होने की, उसके मन में शंका उत्पन्न होने की और यहीं बातें हमारे सामने मुखर होकर आती हैं इस पूरे अध्याय में।
इसके अगले अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन के दुख का, शंका का कैसे भली-भांति उत्तर देते हैं वह जानेंगे।