वैदिक काल

वैदिक काल – Vedic Period in Hindi (1500- 600 ईसा पूर्व)

दोस्तों, आज हम वैदिक सभ्यता या वैदिक काल के बारे में जानेंगे, जैसे की हमने पिछले आर्टिकल में सिंधु घाटी सभ्यता के बारे में जाना और देखा की कैसे उसका पतन हुआ था। 

सिंधु घाटी सभ्यता के पतन के बाद प्राचीन भारतीय इतिहास में एक खालीपन देखने को मिलता है, जैसे की हमने पिछले आर्टिकल में जाना था की लगभग 1800 ईसा पूर्व तक सिंधु घाटी सभ्यता का पतन हो गया था, उसके बाद कुछ वर्षों तक हमें इतिहास में एक खालीपन देखने को मिलता है अर्थात कोई भी सभ्यता देखने को नहीं मिलती है। 

बाद में 1500 ईसा पूर्व में वैदिक सभ्यता का जन्म भारत में होता है, लेकिन दोस्तों भारत में जो सभ्यताओं के विकास का क्रम है वह थोड़ा उल्टा है। 

जैसे की हमने पिछले आर्टिकल में जाना की भारत की सबसे प्राचीन सभ्यता सिंधु घाटी सभ्यता थी, जो की एक नगरीय सभ्यता थी अर्थात यहाँ आज के नगरों की तरह रहन-सहन और व्यापार प्रधान सभ्यता थी जबकि इसके पतन के बाद जो बाद में सभ्यता आयी जो वैदिक सभ्यता थी वह एक ग्रामीण सभ्यता थी। 

इस प्रकार जैसे हम पढ़ते हैं की इंसान ग्रामीण क्षेत्र से विकास करते हुए नगरीकरण की तरफ बढ़ता है, लेकिन प्राचीन भारतीय इतिहास में थोड़ा उल्टा है, यहाँ पहले एक नगरीय सभ्यता यानी सिंधु घाटी सभ्यता थी फिर उसके बाद एक ग्रामीण सभ्यता आयी यानी वैदिक सभ्यता जिसके संबंध में हम आज जानेंगे। 

पहले वैदिक सभ्यता को ही भारत की सबसे प्राचीन सभ्यता माना जाता था परंतु जब सिंधु घाटी सभ्यता की खोज हुई तब सिंधु घाटी सभ्यता को भारत की सबसे प्राचीन सभ्यता के रूप में देखा जाने लगा। 

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वैदिक सभ्यता का परिचय   

दोस्तों, जो काल पूर्ण रूप से वेदों पर आधारित था और जिस काल में वेदों की रचना हुई, उसे हम वैदिक काल या वैदिक सभ्यता के रूप में जानते हैं। 

इस वैदिक सभ्यता या वैदिक काल में 4 वेदों की रचना हुई थी जो कुछ इस प्रकार थे:

1.ऋग्वेद
2.सामवेद
3.यजुर्वेद
4.अथर्ववेद
Vedic Period in Hindi – वैदिक सभ्यता

वैदिक सभ्यता या वैदिक काल का समय 1500 ईसा पूर्व से लेकर 600 ईसा पूर्व तक का माना जाता है, परंतु इसको दो भागों में बांटा जाता है, जो कुछ इस प्रकार है:

1. पूर्व वैदिक काल ( 1500 ईसा पूर्व – 1000 ईसा पूर्व )

2. उत्तर वैदिक काल ( 1000 ईसा पूर्व – 600 ईसा पूर्व ) 

दोस्तों, जो पूर्व वैदिक काल था उसकी जानकारी हमें ऋग्वेद से प्राप्त होती है इसलिए इस पूर्व वैदिक काल को ऋग्वैदिक काल भी कहते हैं और उत्तर वैदिक काल की जानकारी बाकी तीन वेदों से हमें प्राप्त होती है। 

पूर्व वैदिक काल का समय 1500 ईसा पूर्व से लेकर 1000 ईसा पूर्व तक का माना जाता है और उत्तर वैदिक काल का समय 1000 ईसा पूर्व से लेकर 600 ईसा पूर्व तक का माना जाता है। 

वैदिक शब्द का अर्थ ज्ञान होता है और यह शब्द वेद से बना है। 

भारत में इस वैदिक सभ्यता के निर्माता के रूप में आर्य लोगों को देखा जाता है और आर्य एक संस्कृत का शब्द है जिसका अर्थ श्रेष्ठ होता है और यह श्रेष्ठता कोई जातिगत रूप में नहीं बल्कि भाषा के रूप में जो लोग श्रेष्ठ थे उन्होंने अपने आप को आर्य कहा और इन आर्यों ने भारत में वैदिक सभ्यता की स्थापना की। 

आर्यों का मूल निवास स्थान 

दोस्तों, भारत में आर्यों का आगमन कौन सी जगह से हुआ था, इसको लेकर अलग-अलग इतिहासकारों ने अपने-अपने मत दिए हैं, ज्यादातर इतिहासकारों के अनुसार आर्य विदेशों से भारत में आए और यहाँ आकर उन्होंने वैदिक सभ्यता का बसाई और वैदिक सभ्यता का विकास किया। 

आइये दोस्तों, अब हम अलग-अलग इतिहासकारों ने अपने क्या-क्या मत दिए हैं उनके बारे में जानें:

मैक्समूलरइनके अनुसार आर्य मध्य एशिया के क्षेत्रों से भारत आए थे और यहाँ आकर वैदिक सभ्यता की स्थापना की थी, इनके द्वारा दी गई जानकारी को ही सबसे ज्यादा सही माना जाता है और प्रधानता दी जाती है।
डॉ. सम्पूर्णानन्दइनके अनुसार आर्य आल्पस पर्वत श्रेणी जो यूरेशिया के अंतर्गत आती है अर्थात जो एशिया और यूरोप के बीच का भाग है वहां से आर्य भारत में आये थे। 
इसके पीछे का कारण यह था की इन क्षेत्रों में जो सभ्यताएं थी वे कुछ बिंदुओं पर वैदिक सभ्यता के समान थीं।
बाल गंगाधर तिलकइनके अनुसार आर्य आर्कटिक प्रदेश अर्थात उत्तरी ध्रुव के क्षेत्रों से भारत में आए थे।
स्वामी दयानंद सरस्वतीइनको भारत के इतिहास में एक समाज सुधारक के रूप में देखा जाता है और इनके अनुसार आर्य तिब्बत क्षेत्रों से भारत में आए थे।
Vedic Period in Hindi – वैदिक सभ्यता

ज्यादातर इतिहासकार मध्य एशिया क्षेत्रों से ही भारत में आर्यों का आगमन मानते हैं और मैक्समूलर के मत को ही सबसे ज्यादा प्रधानता दी जाती है। 

इस प्रकार हम यह देखते हैं की आर्य भारत के मूल निवासी नहीं थे, वे विदेशों से आकर भारत में बसे और यहाँ पर आकर वैदिक सभ्यता को बसाया और उसका विकास किया और इस काल में इनके द्वारा वेदों की भी रचना की गई थी। 

वैदिक सभ्यता के स्रोत 

दोस्तों, इस वैदिक सभ्यता या वैदिक काल के संबंध में पुरातात्विक और साहित्यिक या लिखित स्त्रोत दोनों ही प्राप्त हुए हैं। 

और जब किसी पुस्तक या किसी लिखित रूप में हमें किसी काल की जानकारी मिलती है तो उन्हें साहित्यिक या लिखित स्रोत कहा जाता है। 

आइये, अब हम वैदिक काल के संबंध में मिले पुरातात्विक और साहित्यिक स्रोतों के बारे में जानें:

पुरातात्विक स्रोत

जब किसी खुदाई या अभिलेख, अवशेष आदि से हमें किसी काल की जानकारी प्राप्त होती है तो उन्हें पुरातात्विक स्रोत कहा जाता है। 

1. बोगजकोई अभिलेख – यह अभिलेख मध्य-एशिया में स्थित है, और लगभग 1400 ईसा पूर्व पुराना अभिलेख है। 

इस अभिलेख से कुछ भारतीय देवताओं जैसे इंद्र, वरुण, मित्र, नासत्य जैसे देवताओं की जानकारी प्राप्त होती है। 

इस प्रकार हमें यह जानकारी मिलती है की इस समय इन देवताओं को भारत में लोग पूजते होंगे। 

2. पूर्व वैदिक काल से संबंधित खुदाई से मिट्टी के बर्तन अर्थात गैरिक मृदभांड ( O.C.P ) प्राप्त हुए हैं। 

3. उत्तर वैदिक काल से संबंधित खुदाई से मिट्टी के बर्तन अर्थात चित्रित धूसर मृदभांड ( P.G.W ) प्राप्त हुए हैं। 

साहित्यिक स्रोत

दोस्तों, वैदिक सभ्यता का मूल सार साहित्यिक स्रोत ही हैं, वैदिक सभ्यता के संबंध में मिले साहित्यिक स्त्रोत ही अभी तक प्राचीनतम पढ़े जा सकने वाले स्त्रोत हैं, क्यूँकि सिंधु घाटी सभ्यता के संबंध में मिले साहित्यिक स्त्रोतों को अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है अगर उन्हें पढ़ लिया जाए तो वे सबसे प्राचीनतम पढ़े जा सकने वाले साहित्यिक स्त्रोत बन जाएंगे। 

वैदिक सभ्यता के साहित्यिक स्रोतों के संबंध में हमें मुख्यतः वेदों से जानकारी प्राप्त होती है, जिनकी रचना इसी वैदिक काल में हुई थी और इन वेदों की संख्या 4 थी, आइये जानें:

ऋग्वेद

ऋग्वेद सबसे प्राचीनतम वेद है या यूँ कहें की वैदिक काल में सबसे पहले ऋग्वेद की रचना की गई थी, और इसी वेद से हमें पूर्व वैदिक काल की जानकारी प्राप्त होती है जैसे की हमने ऊपर भी जाना था। 

इस वेद के संकलनकर्ता के रूप में कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास को जाना जाता है जिन्होंने इस वेद की रचनाओं को एक साथ जोड़ा था और इस वेद में धर्म से जुड़े बिंदुओं का वर्णन मिलता है। 

इस वेद में 10 मंडल अर्थात अध्याय और 1028 सूक्त अर्थात मंत्र हैं और इसके साथ-साथ इसमें दूसरे मंडल से लेकर सातवें मंडल सबसे पहले लिखे गए थे और पहला और दसवां मंडल सबसे बाद में जोड़ा गया था। 

ऋग्वेद के 10 मंडल में से 4 मंडल ऐसे हैं जो महत्वपूर्ण मंडल हैं, जो कुछ इस प्रकार हैं:

तृतीय मंडलइस मंडल में गायत्री मंत्र का वर्णन मिलता है, जिसकी रचना विश्वामित्र द्वारा की गई थी।
सातवां मंडलइस मंडल में आर्यों के अनार्यों से युद्ध का वर्णन मिलता है, इस मंडल में एक सुदास नामक राजा का 10 दूसरे राजाओं के साथ दशराज युद्ध का वर्णन मिलता है, और यह युद्ध पुरुष्णी नदी अर्थात वर्तमान की रावी नदी के तट पर लड़ा गया था।
नौवां मंडलइस मंडल में सोम देवता अर्थात वनस्पति के देवता का वर्णन है।
दसवां मंडलइस मंडल में प्रथम बार वर्ण व्यवस्था का वर्णन मिलता है, इसमें सबसे पहली बार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जैसे वर्णों में बांटने वाली व्यवस्था देखने को मिलती है।
Vedic Period in Hindi – वैदिक सभ्यता

सामवेद 

सामवेद में मुख्यतः संगीत का वर्णन है और इसे संगीत का वेद भी कहा जाता है। 

इसी वेद में प्रथम बार 7 स्वरों का वर्णन देखने को मिलता है और इसके साथ सामवेद को भारत में संगीत का जनक भी माना जाता है। 

इस वेद में ऋग्वेद के ऐसे मंत्र जिन्हें गाया जा सकता था उन्हें सामवेद में रखा गया या स्थापित किया गया था। 

इस प्रकार सामवेद कोई विशेष रूप से नया वेद नहीं था बल्कि ऋग्वेद में गाये जा सकने जाने वाले मंत्रों को सूचीबद्ध रूप में लिखा गया एक वेद था। 

यजुर्वेद  

यजुर्वेद में यज्ञ की विधियों का वर्णन किया गया है, इस वेद में यज्ञ के दौरान होने वाली विधियां या क्रियाओं का वर्णन किया गया है। 

इसकी रचनाएँ गद्य एवं पद्य के रूप में की गयी हैं, जिसके कारण इस वेद को गद्य एवं पद्य का वेद भी कहा जाता है। 

अथर्ववेद 

अथर्ववेद सबसे अंतिम वेद है, इस वेद में सामाजिक चीजों का वर्णन किया गया है जैसे की विवाह, मृत्यु, रोग, वशीकरण, जादू-टोना आदि, इसलिए इस वेद को धार्मिक से हट कर सामाजिक क्रिया वाला वेद कहा जाता है। 

इसके साथ-साथ इस वेद को ब्रह्म वेद भी कहा जाता है अर्थात श्रेष्ठ वेद और यह सबसे बाद का वेद है। 

आइये दोस्तों, अब हम इन चारों वेदों को गाने या पढ़ने वाले लोगो को क्या बुलाया जाता था और इन वेदों के उपवेदों के बारे में जानें: 

वेदअध्येता ( वेदों को पढ़ने / गाने वाले )उपवेद
ऋग्वेदहोतृआयुर्वेद
सामवेदउद्गातागंधर्ववेद
यजुर्वेदअध्वर्युधनुर्वेद
अथर्ववेदब्रह्माशिल्पवेद
Vedic Period in Hindi – वैदिक सभ्यता

आइये दोस्तों, अब हम वैदिक काल या सभ्यता में हुए उपनिषदों के बारे में जानते हैं, इस काल में कुल 108 उपनिषदों की रचना हुई थी। 

उपनिषद का अर्थ गुरु के समीप बैठ कर पढ़ना होता है और उपनिषद दार्शनिक ग्रंथों की सूची में आते हैं और इनमें दार्शनिक प्रश्नों का उत्तर दिया गया है और जैसे की वैदिक काल में धर्म को लेकर कई तरह के आडम्बर और कर्मकांड फैल रहे थे तो इन उपनिषदों के द्वारा उन आडम्बरों और कर्मकांडो के ऊपर प्रहार किया गया था, उनमें से मुख्य उपनिषद और वह किस वेद से संबंध रखते हैं, वे कुछ इस प्रकार हैं:

उपनिषदआरण्यक
ऋग्वेदकौषीतकि, ऐतरेयकौषीतकि, ऐतरेय
सामवेदकेन, छान्दोग्यजैमिनीय, छान्दोग्य
यजुर्वेदतैत्तिरीय, मैत्रायणीतैत्तिरीय, शतपथ
अथर्ववेदमाण्डूक्य, प्रश्न, मुण्डककोई नहीं
Vedic Period in Hindi – वैदिक सभ्यता

दोस्तों, भारत का सत्यमेव जयते मुण्डक उपनिषद से लिया गया है 

इस वैदिक काल में दूसरे ग्रंथों की रचना भी हुई थी जैसे वेदांग और इनकी संख्या 6 थी और इसके अलावा पुराणों की भी रचना हुई थी जिनकी संख्या 18 थी, जिसमें सबसे प्राचीन मत्स्य पुराण है और इसके अलावा विष्णु पुराण, शिव पुराण आदि प्रचलित पुराण हैं। 

इस प्रकार इन सारे साहित्यिक स्रोतों से हमें वैदिक काल या वैदिक सभ्यता की जानकारी प्राप्त होती है। 

पूर्व वैदिक काल ( ऋग्वैदिक काल )

दोस्तों, जैसे की हमने ऊपर जाना की वैदिक काल को दो भागों में बांटा गया है पूर्व वैदिक काल और उत्तर वैदिक काल और अब हम पूर्व वैदिक काल के बारे में जानेंगे। 

पूर्व वैदिक काल का समय 1500 ईसा पूर्व से लेकर 1000 ईसा पूर्व तक का माना गया है और इस पूर्व वैदिक काल को हम इसके राजनीतिक जीवन, सामाजिक जीवन, आर्थिक जीवन और धार्मिक जीवन जैसे बिंदुओं के आधार में समझेंगे, आइये। 

राजनीतिक जीवन 

प्राचीन भारतीय इतिहास में थोड़े-थोड़े रूप से राजनीतिक जीवन की शुरुआत हमें पूर्व वैदिक काल में देखने को मिलती है। 

इस काल में लोग कबीले बना कर रहते थे अर्थात कबीलाई जीवन यापन करते थे और यह कबीले का बहुत बड़ा समूह हुआ करता था इसलिए इसे “जन” कहा जाता था। 

इतने बड़े कबीले के समूह को चलाने के लिए एक प्रशाशनिक व्यवस्था की आव्यशकता होती थी और इस कबीले के समूह अर्थात जन को चलाने के लिए सबसे बड़ा अधिकारी पद राजन होता था अर्थात एक प्रकार से राजा का पद होता था। 

परंतु यह कबीले का राजा बहुत ज्यादा ताकतवर नहीं होता था, इसके पास बहुत ही सीमित शक्तियां होती थी क्योंकि इसके पास न तो कोई नियमित सेना हुआ करती थी, न ही कोई नियमित कर ( tax ) व्यवस्था, न ही स्वयं न्याय करने की शक्ति और वह इन सीमित शक्तियों के साथ कबीले का संरक्षण करता था। 

इसके साथ-साथ कबीले के राजा की सहायता के लिए कुछ संस्थाएं बनाई गई थी जैसे समिति, सभा, विदथ और गण। 

पूर्व वैदिक काल में समिति, सभा, विदथ और गण, यह चार प्रमुख संस्थाएं थी जो राजा को उसके कार्यों में सहायता प्रदान करती थी क्योंकि जैसा की हमने अभी जाना की इस समय राजा ज्यादा शक्तिशाली नहीं था इसलिए उसे इन संस्थाओं की आव्यशकता पड़ती थी। 

आइये दोस्तों इन चारों संस्थाओं के बारे में जानें:

समितिइस संस्था में सारे क्षेत्र के आम लोग शामिल होते थे जैसे की सारे गाँव के आम लोग इसमें शामिल होते थे और इसमें पुरुषों के साथ-साथ महिलाओं को भी शामिल होने के अनुमति थी और इसमें लोग आम बिंदुओं के ऊपर कबीले के राजा को सलाह दिया करते थे।
सभाइस संस्था में पढ़े-लिखे और समाज के उच्च वर्ग के लोग शामिल होते थे अर्थात यह एक कुलीनों की संस्था थी और इसमें सीमित संख्या में लोग शामिल होते थे अर्थात ये समिति से छोटी संस्था थी।
विदथइन चारों संस्थाओं में सबसे पुरानी संस्था विदथ थी, और इसमें उपज के भागों को बांटने, एक कबीले के द्वारा दूसरे कबीले में की गई लूट को बांटने जैसे बिंदुओं पर चर्चा की जाती थी, इस संस्था में भी आम लोग ज्यादा शामिल होते थे और इसमें भी महिलाओं को शामिल होने की अनुमति थी।
गणयह संस्था भी पढ़े-लिखे और समाज के उच्च वर्ग के लोगों की संस्था थी अर्थात कुलीनों की संस्था थी और लगभग सभा संस्था की तरह कार्य करती थी।
Vedic Period in Hindi – वैदिक सभ्यता

इसके साथ-साथ समिति और सभा जैसी संस्था को अथर्ववेद में प्रजापति की दो पुत्रियों के रूप में संबोधित किया गया है, इस प्रकार से हम यह कह सकते हैं की यह दो संस्था राजा की लिए बहुत ही महत्वपूर्ण थी। 

इन संस्थाओं के अलावा राजा की सहायता के लिए कुछ अधिकारी भी नियुक्त किये गए थे जिन्हें “रत्निन” कहा जाता था। 

इन अधिकारियों में सबसे मुख्य पुरोहित होते थे और यह राजा को धार्मिक सलाह दिया करते थे, इसके अलावा सेनानी सेना का प्रमुख होता था जो सैन्य मामलों में राजा की सहायता करता था, इसके अलावा पुरप, यह छोटे-छोटे दुर्गों की सुरक्षा के ऊपर कार्य करते थे और स्पश जो की गुप्तचरों के प्रमुख थे और यह राजा तक खबरें पहुंचाया करते थे। 

इस काल में रत्निन की संख्या 7 थी। 

इस प्रकार यह अधिकारी भी राजा को अलग-अलग बिंदुओं में सहायता प्रदान करते थे और जैसे की हमने अभी जाना की इन अधिकारियों को “रत्निन” कहा जाता था। 

पूर्व वैदिक काल में जैसे की राजा की स्थिति ज्यादा अच्छी नहीं थी और वह ज्यादा शक्तिशाली और धनवान नहीं था इसलिए उसकी सेना भी नियमित नहीं होती थी क्योंकि एक अच्छी और नियमित सेना के लिए बहुत धन की आवश्यकता थी जो की इस काल में राजा के पास बहुत अधिक नहीं था। 

इसके प्रकार जब राजा को सेना की जरूरत होती थी तभी वह सेना का चयन करता था और जब सेना की जरुरत नहीं होती थी तब सेना आम लोगों की तरह कार्य करा करती थी, इसके अलावा सेना में पैदल और घुड़सवारों का उपयोग किया जाता था। 

पूर्व वैदिक काल में कर ( tax ) व्यवस्था भी व्यापक नहीं थी, इस काल में लोग राजा को अपनी स्वेच्छा से कर दिया करते थे और हर व्यक्ति अपनी आर्थिक स्थिति और इच्छा के अनुसार राजा को कर दिया करता था और इस कर के बदले में राजा लोगों का संरक्षण करता था और कर को “बलि” कहा जाता था। 

इस काल में न्याय व्यवस्था का ज्यादा उल्लेख नहीं मिलता है, मुख्य रूप से राजा समिति, सभा, विदथ और गण जैसी संस्थाओं की सहायता से ही न्याय व्यवस्था का संचालन करा करते थे। 

सामाजिक जीवन 

पूर्व वैदिक काल में समाज के लोगों के पास ज्यादा आर्थिक संपत्ति नहीं हुआ करती थी इसलिए इस काल में समाज “समतावादी” था अर्थात इस समय में लोगों में आपस में ज्यादा भेदभाव देखने को नहीं मिलता है। 

परंतु इस काल में समाज में वर्ण व्यवस्था की शुरुआत हो गई थी, और जैसे की हमने ऊपर जाना था की ऋग्वेद के 10वें मंडल में वर्ण व्यवस्था का वर्णन मिलता है और पूर्व वैदिक काल ऋग्वेद के ऊपर आधारित है। 

वर्ण व्यवस्था में हमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जैसे वर्ण देखने को मिलते हैं, परंतु इस काल में जन्म या जाति के आधार पर वर्ण में नहीं बांटा जाता था, बल्कि कर्म के आधार पर वर्ण में बांटा जाता था। 

जो व्यक्ति जिस तरह का कार्य करते थे उन्हें उस वर्ण में रखा जाता था, जैसे की कोई शिक्षा के क्षेत्र में अच्छा है तो उनको ब्राह्मण वर्ण में रखा जाता था, जो शक्ति और बल के क्षेत्र में अच्छा है तो उसे क्षत्रिय वर्ण में रखा जाता था, जो व्यवसाय में अच्छा है तो उसे वैश्य वर्ण में रखा जाता था और जो समाज के निम्न कार्यों में अच्छा है उसे शूद्र वर्ण में रखा जाता था। 

इस प्रकार इस काल में लोगों को उनके कर्मों के आधार पर वर्ण में बांटा जाता था, अब वह व्यक्ति किसी भी जाति में जन्मा हो उसको उसके कर्म के आधार पर वर्ण में बांटा जाता था, इस प्रकार वर्तमान समय से ज्यादा अच्छी वर्ण व्यवस्था इस काल में देखने को मिलती है। 

इस कर्म आधारित व्याख्या का वर्णन ऋग्वेद के 9वें मंडल में देखने को मिलती है, जिसमें एक व्यक्ति कहता है कि मैं कवि हूँ, मेरे पिता वैध हैं, मेरी माता आटे की चक्की चलाती है, और इस प्रकार एक ही परिवार में अलग अलग कर्मों के लोग थे और इस प्रकार एक ही परिवार के लोग अलग-अलग वर्ण में बंट सकते थे, जो की कर्म के आधार पर वर्ण व्यवस्था को बांटने की व्याख्या करता है। 

हालांकि इस वर्ण व्यवस्था की विस्तृत जानकारी ऋग्वेद के 10वें मंडल में देखने को मिलती है, जिसे “पुरुष सूक्त” कहा जाता है और इसमें वर्णों की उत्पत्ति के संबंध में बताया गया है की कैसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ब्रह्मा से उत्पन्न हुए हैं। 

पूर्व वैदिक काल में दास प्रथा देखने को मिलती है लेकिन यह दास प्रथा यूरोपियन दास प्रथा जितनी शोषणकारी और व्यापक नहीं थी, समाज के कुछ कार्यों के लिए दासों का उपयोग करा जाता था और वे समाज का एक अंग थे उनके ऊपर शोषण नहीं किया जाता था। 

इस काल में परिवार या कुल समाज की सबसे छोटी इकाई थी और इस समय परिवार पितृसत्तात्मक हो गया था, जैसे की हमने पिछले आर्टिकल सिंधु घाटी सभ्यता में पढ़ा था की उस काल में परिवार मातृसत्तामत्क था, लेकिन अब परिवार पितृसत्तात्मक हो गया था। 

इसके अलावा इस काल के कई अवशेषों में बड़े घरों के अवशेष मिले है, जिससे यह समझा जाता है की इस काल में लोग परिवार के समूह बना कर रहा करते थे। 

इस काल में स्त्रियों की स्थिति काफी अच्छी थी, उन्हें समाज के कार्यों में शामिल किया जाता था और जैसे की हमने ऊपर भी जाना की राजा की संस्थाओं में भी स्त्रियों को शामिल किया जाता था। 

वैदिक काल में 16 प्रकार के संस्कारों का वर्णन मिलता है जिसमें स्त्रियों के लिए उपनयन संस्कार व शिक्षा का अधिकार भी स्त्रियों को दिया गया था। 

यह 16 संस्कार कुछ इस प्रकार हैं: 

1.गर्भाधान संस्कार
2.पुंसवन संस्कार
3.सीमन्तोन्नयन संस्कार
4.जातकर्म संस्कार
5.नामकरण संस्कार
6.निष्क्रमण संस्कार
7.अन्नप्राशन संस्कार
8.मुंडन संस्कार
9.कर्णवेधन संस्कार
10.विद्यारंभ संस्कार
11.उपनयन संस्कार
12.वेदारंभ संस्कार
13.केशांत संस्कार
14.सम्वर्तन संस्कार
15.विवाह संस्कार
16.अन्त्येष्टि संस्कार
Vedic Period in Hindi – वैदिक सभ्यता

पूर्व वैदिक काल की विदुषी महिलाएं

इस काल में कुछ विशेष महिलाओं के नाम देखने को मिलते हैं, जो समाज के ऋषि परिवारों से संबंध रखती थी और इन्होंने उच्च शिक्षा प्राप्त करी थी, जो कुछ इस प्रकार हैं:

1. अपाला 

2. घोषा

3. लोपामुद्रा 

इस काल में दहेज प्रथा नहीं थी, बाल विवाह का भी प्रचलन नहीं था, इसके अलावा स्त्रियों के लिए कुछ प्रथाएं थी जैसे महिलाएं अपनी इच्छा से पुनर्विवाह कर सकती थी, नियोग प्रथा जिसमें पति की मृत्यु के बाद देवर से शादी अपनी इच्छा से कर सकती थी, इस प्रकार इस काल में स्त्रियों की स्थिति काफी बेहतर थी। 

इस काल में समाज में लोग शाकाहारी के साथ-साथ मांसाहारी भोजन दोनों का भोग करते थे और समाज के लोग अपने मनोरंजन के लिए संगीत, नृत्य, पासा और घुड़दौड़ जैसी क्रियाओं को करते थे। 

आर्थिक जीवन 

पूर्व वैदिक काल में अर्थव्यवस्था का आधार पशुपालन था क्यूँकि अभी कृषि व्यवस्था की व्यापक रूप में ज्यादा प्रगति नहीं हो पाई थी। 

गाय को सबसे पूजनीय और मुख्य पशु के रूप में देखा जाता था और ऋग्वेद में  गाय को “अघन्या” कहा गया है अर्थात गाय की हत्या करना पाप माना जाता था और इसके अलावा ऋग्वेद में अघन्या शब्द का 176 बार प्रयोग भी किया गया है जिससे यह माना जा सकता है की इस काल में गाय बहुत ही महत्वपूर्ण पशु थी। 

इस काल में गाय इतनी महत्वपूर्ण थी की जब कबीले आपस में लड़ाई करते थे तो गायों को जीतने के लिए भी लड़ाई किया करते थे। 

पशुपालन में घोड़े का भी बहुत प्रयोग किया जाता था, क्यूंकि इसका प्रयोग रथ में भी किया जाता था और सेना में भी किया जाता था। 

इस प्रकार इस काल में मुख्य पेशा पशुपालन था जो की अर्थव्यवस्था का आधार था। 

कृषि में केवल गेहूं, जौ जैसी फसलों को ही उपजाया जाता था और कृषि ज्यादा व्यापक नहीं थी और ऋग्वेद में कृषि के लिए केवल 24 मंत्रों का ही उपयोग किया गया है जबकि अभी हमने जाना की गाय अर्थात अघन्या शब्द का 176 बार प्रयोग ऋग्वेद में किया गया है। 

कृषि के साथ-साथ इस काल में अर्थव्यवस्था की दृष्टि से उद्योग भी ज्यादा व्यापक नहीं थे और बहुत ही सीमित अवस्था में थे, बहुत छोटे-छोटे उद्योग जैसे बढ़ईगिरी और रथ बनाने जैसे कार्य ही इस काल में देखने को मिलते हैं। 

इस काल में तांबे का उपयोग किया जाता था। 

जैसे की उद्योग ज्यादा व्यापक नहीं थे तो व्यापार भी बहुत सीमित ही था, व्यापार केवल आंतरिक ही हुआ करते थे और इस काल में मुद्रा की कोई खोज नहीं हुई थी तो व्यापार का संचालन विनिमय व्यवस्था ( Barter System ) के द्वारा किया जाता था, जिसमें एक वस्तु के बदले में दूसरी वस्तु का आदान-प्रदान किया जाता था। 

धार्मिक जीवन 

 वैदिक काल को धर्म के आधार पर देखे जाने वाले काल के रूप में देखा जाता है इसलिए इस काल में धार्मिक जीवन काफी महत्वपूर्ण माना जाता है क्यूंकि वैदिक काल धार्मिक प्रधान काल था। 

पूर्व वैदिक काल में लोग प्रकृति की पूजा करते थे अर्थात प्रकृति पूजक थे और प्रकृति से जुड़े बहुत से देवताओं की पूजा इस काल के लोग करते थे और बहुदेव वादी अर्थात बहुत सारे देवताओं की पूजा लोग करते थे। 

इस काल में 33 देवी-देवताओं के नाम प्राप्त हुए हैं जिन्हें 3 श्रेणियों में बांटा गया है, जैसे की अंतरिक्ष के देवता, पृथ्वी के देवता और आकाश के देवता। 

आकाश के देवताओं की सूची में सबसे ज्यादा देवता आते हैं। 

अंतरिक्ष के देवतापृथ्वी के देवताआकाश के देवता
इंद्र देवताअग्नि देवतासूर्य देवता
मारुत देवतापृथ्वी देवतावरुण देवता
रूद्र देवतासोम देवताउषा देवी
वायु देवताबृहस्पति देवतासविता देवी, विष्णु देवता
Vedic Period in Hindi – वैदिक सभ्यता

दोस्तों, अब हम इस काल के मुख्य देवताओं के बारे में जानेगे। 

1. इंद्र – इस काल में यह सबसे प्रमुख और महत्वपूर्ण देवता थे, और इन्हें पुरंदर कहा गया है अर्थात किला तोड़ने वाला। 

इन्हें विजय पताका के रूप में और शक्तिशाली देवता के रूप में देखा जाता था और इसके साथ-साथ ऋग्वेद में इंद्र के संबंध में 250 श्लोक देखने को मिलते हैं, जिससे यह कहा जा सकता है की यह इस काल के सबसे महत्वपूर्ण देवता थे। 

2. अग्नि – इन्हें मध्यस्थ देवता के रूप में देखा जाता था, और इन्हें भगवान और इंसानों के बीच के देवता के रूप में देखा जाता था क्योंकि ऐसा माना जाता था की अगर अग्नि में कुछ समर्पित किया जाए तो वह देवताओं तक प्राप्त हो जाया करती थी। 

इसके साथ-साथ ऋग्वेद में इनके संबंध में 200 श्लोक देखने को मिलते हैं, जिससे यह कहा जा सकता है कि इंद्र देवता के बाद सबसे महत्वपूर्ण देवता अग्नि देवता को माना जाता था। 

3. वरुण – इन्हें वर्षा और समुद्र के देवता के रूप में पूजा जाता था। 

4. सविता – इन्हें चमकते हुए सूर्य की देवी के रूप में पूजा जाता था, इनके संबंध में ऋग्वेद के तीसरे मंडल में देवी सविता को समर्पित गायत्री मंडल का वर्णन किया गया है। 

5. मित्र – इन्हें उगते हुए सूर्य के देवता के रूप में पूजा जाता था। 

6. अश्विन – इन्हें चिकित्सा के देवता के रूप में पूजा जाता था। 

7. पूषन – इन्हें पशुओं और औषधियों के देवता के रूप में पूजा जाता था और बाद में उत्तर वैदिक काल में इन्हें शूद्रों के देवता के रूप में पूजा जाने लगा था। 

8. सोम – इन्हें वनस्पति के देवता के रूप में पूजा जाता था और यह सोमरस का पान करते थे। 

उत्तर वैदिक काल 

दोस्तों, जैसे की अभी हमने वैदिक काल के पहले भाग अर्थात पूर्व वैदिक काल के बारे में समझा और जाना की पूर्व वैदिक काल में लोगों का विभिन्न बिंदुओं पर जीवन कैसा था और अब हम उत्तर वैदिक काल के बारे मे समझेंगे। 

उत्तर वैदिक काल का समय 1000 ईसा पूर्व से लेकर 600 ईसा पूर्व तक का माना गया है और इस उत्तर वैदिक काल को भी हम इसके राजनीतिक जीवन, सामाजिक जीवन, आर्थिक जीवन और धार्मिक जीवन जैसे बिंदुओं के आधार में समझेंगे। 

जब पूर्व वैदिक काल का अंतिम दौर चल रहा था अर्थात 1000 ईसा पूर्व के आसपास, तब उस समय भारत में लोहे की खोज हुई थी। 

इस लोहे की खोज से मनुष्य जीवन मे एक क्रांति का दौर आ गया था, क्योंकि जहां पहले लोग तांबा, कांसा, टीन जैसे धातुओं का उपयोग कर रहे थे वहां अब लोहे की खोज से बहुत ज्यादा परिवर्तन आ गया थे क्योंकि लोहा इन सब से काफी मजबूत धातु था। 

लोहे की खोज से ज्यादा अच्छे औजारों का निर्माण होने लगा और कृषि व्यवस्था को भी लोहे की सहायता से तेजी से प्रगति प्राप्त हुई थी और तब कृषि में प्रगति के कारण अर्थव्यवस्था में भी सुधार आया था। 

इस प्रकार से तब उस समय लोगों की आर्थिक स्थिति में भी सुधार आया और अर्थव्यवस्था के बढ़ने से उस समय बाकी क्षेत्रों में भी सुधार देखने को मिला। 

इस प्रकार उस समय लोहे की खोज के कारण लोगों की सामाजिक स्तर पर स्थिति अच्छी हुई, जैसे की वर्तमान समय में भी आप अगर देखेंगे तो जिन लोगों की आर्थिक स्थिति अच्छी होती है उनकी सामाजिक स्थिति भी अच्छी होती है। 

इसके साथ-साथ अब लोग राजा को ज्यादा कर ( tax) देने में सक्षम हुए, जिसके कारण राजा की आय में भी वृद्धि हुई और उसके कारण प्रशासनिक व्यवस्था भी सुदृढ़ हुई थी। 

इसकी वजह से इस काल में राजनीतिक जीवन, सामाजिक जीवन, आर्थिक जीवन और धार्मिक जीवन में भी बदलाव आए और इसी बदलाव के कारण वैदिक काल को दो भागों यानी पूर्व वैदिक काल और उत्तर वैदिक काल में बांटा जाता है, आइए जानें उत्तर वैदिक काल के विभिन्न बिंदुओं के बारे में। 

राजनीतिक जीवन

दोस्तों, जैसे की हमने ऊपर जाना था की पूर्व वैदिक काल में लोग कबीले बना कर रहते थे और इस कबीले को “जन” कहा जाता था, अब उत्तर वैदिक काल में इस जन का आकार बड़ा हो गया था और इस जन को अब “जनपद” कहा जाने लग गया था। 

जैसे की भरत जन और पुरु जन मिल कर अब कुरु जनपद कहलाने लगे थे। 

इस प्रकार उत्तर वैदिक काल में जन या कबीले के आकार बढ़ने लग गए थे और वे जनपद कहलाने लगे थे। 

जैसे की हमनें अभी ऊपर समझा कि इस काल में आर्थिक स्थिति में वृद्धि हुई इस कारण राजा की शक्तियों में वृद्धि हुई, राजा का महत्व भी बढ़ने लग गया था और राजा के अधिकार भी पहले से ज्यादा बढ़ने लग गए थे। 

इसके साथ-साथ इस काल में राजा का पद वंशानुगत हो गया था अर्थात अब राजा का पुत्र ही राजा बनेगा ऐसी व्यवस्था इस काल में स्थायी रूप से शुरू हो गयी थी, वहीं पहले पूर्व वैदिक काल में यह व्यवस्था बहुत ही कम मात्रा में थी। 

पूर्व वैदिक काल में जहां राजा की सहायता के लिए संस्थाएं बनाई गयी थी जैसे की सभा, समिति, विदथ और गण, अब उत्तर वैदिक काल में राजा की शक्तियां, अधिकार और महत्व बढ़ने से इन सारी संस्थाओं का महत्व कम होने लग गया था। 

पूर्व वैदिक काल में जहां राजा की सहायता की लिये अधिकारी नियुक्त किए जाते थे, जिन्हें “रत्निन” भी कहा जाता था, उनकी संख्या उत्तर वैदिक काल में 7 से बढ़कर 17 हो गयी थी। 

अधिकारी / रत्निनउनके कार्य
पुरोहितमुख्य पूजक, धार्मिक सलाहकार
सेनानीसेनाध्यक्ष
व्रजपतिचरागाह भूमि अधिकारी अर्थात प्रभारी
जिवाग्रिभापुलिस अधिकारी
भागादुघाराजस्व समाहर्ता
संग्रिहित्रीकोषाध्यक्ष
महिषीमुख्य रानी
पलगालासंदेशवाहक
क्षत्रीराजमहल का बडा अधिकारी
अक्षवापालेखापाल
अथापतिमुख्य न्यायाधीश
सुतासारथी और न्यायालय मंत्री
स्पासागुप्तचर
ग्रामानीगांव का प्रधान
कुलपतिपरिवार का प्रधान
मध्यमासीविवादों के ऊपर मध्यस्थता करने वाला
गोविन्कर्तानाखेल और वन की देखरेख
तक्षणबढ़ई
Vedic Period in Hindi – वैदिक सभ्यता

पूर्व वैदिक काल में जहां लोग राजा को “बलि” नामक कर ( tax) देते थे अर्थात अपनी स्वेच्छा अनुसार राजा को कर देते थे, अब उत्तर वैदिक काल में क्योंकि लोगों की आर्थिक स्थिति अच्छी हो रही थी इसलिए अब कर को स्वेच्छा से नहीं बल्कि नियमित रूप से कर व्यवस्था कर दी गयी थी। 

इस काल में राजा की स्थिति अच्छी तो हुई थी पर अभी भी सेना और न्याय व्यवस्था पूर्ण रूप से स्थायी नहीं हो पाई थी। 

सेना अभी भी नियमित नहीं थी, हालांकि सेना का आकार पहले से बढ़ गया था और अब सेना के पास ज्यादा अच्छे अस्त्र-शस्त्र आ गए थे और न्याय के लिए लोग अभी भी स्थानीय स्तर पर न्याय ढूंढने का प्रयास करते थे। 

सामाजिक जीवन 

जैसे की हमने पूर्व वैदिक काल के संबंध में भी जाना था की समाज की सबसे छोटी इकाई परिवार होती थी। 

इस काल में भी समाज की सबसे छोटी इकाई परिवार थी, बहुत सारे परिवार मिलकर ग्राम बनाते थे, बहुत सारे ग्राम मिलकर विश बनाते थे, बहुत सारे विश मिलकर जन बनाते थे और बहुत सारे जन मिलकर जनपद बनाते थे। 

परिवार < ग्राम < विश < जन < जनपद 

इसी के साथ-साथ वैदिक काल के अंतिम चरण तक महाजनपदों का भी निर्माण हो गया था, जिसमें बहुत सारे जनपद मिलकर एक महाजनपद बनाते थे।

उत्तर वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था बहुत कठोर हो गयी थी, अर्थात अब वर्ण व्यवस्था कर्म के आधार पर नहीं बल्कि जन्म के आधार पर दी जाती थी। 

अब जिस भी व्यक्ति का जन्म जिस भी वर्ण में होगा, वह व्यक्ति उसी वर्ण से संबंधित कहलायेगा चाहे वह कोई भी कर्म कर ले। 

ब्राह्मण > क्षत्रिय > वैश्य > शूद्र 

शूद्रों को हीन भावना से देखा जाने लगा था और यह माने जाना लगा था कि शूद्रों का जन्म सिर्फ ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य की सेवा के लिए होता है। 

उत्तर वैदिक काल में “गोत्र” शब्द की उत्पत्ति हुई थी जिसका अर्थ है वह समूह जहां गौ धन एकत्रित किया जाता था यानी गायों को इकट्ठा करके रखा जाता था और वे सारे समूह एक गोत्र के माने जाते थे और इस एक गोत्र में विवाह करना निषेध माना जाता था। 

एक गोत्र में विवाह नहीं करने की परंपराओं की शुरुआत यहीं से मानी जाती है। 

इस काल में समाज में आश्रम व्यवस्था की भी शुरुआत हो गयी थी, जिसमें एक इंसान के जीवन को 25-25 वर्ष के 4 भागों में विभाजित कर दिया गया था, जो कुछ इस प्रकार हैं:

1.ब्रह्मचर्य ( 0 से 25 वर्ष )
2.गृहस्थ ( 25 से 50 वर्ष )
3.वानप्रस्थ ( 50 से 75 वर्ष )
4.संन्यास ( 75 से 100 वर्ष )
Vedic Period in Hindi – वैदिक सभ्यता

इंसान के 0 से लेकर 25 वर्ष के काल को ब्रह्मचर्य कहा गया जिसमें वह शिक्षा और सीखने का कार्य करेगा। 

25 से 50 वर्ष के काल को गृहस्थ कहा गया जिसमें वह वंश को आगे बढ़ाने और परिवार की देखरेख का कार्य करेगा। 

50 से 75 वर्ष को वानप्रस्थ कहा गया जिसमें वह परिवार से अलग होकर सन्यासी जीवन बिताएगा और ब्रह्मचर्य वालों को शिक्षा प्रदान करेगा। 

75 से 100 वर्ष को संन्यास कहा गया जिसमें वह पूर्णतः एकांतवास में चले जाएंगे और भक्तिमय जीवन जियेंगे और मृत्यु की प्रतीक्षा करेंगे। 

इसमें सबसे श्रेष्ठ गृहस्थ काल को माना गया जिसमें व्यक्ति अपने पिता और ईश्वर के कर्ज से मुक्त हो सकता है। 

उत्तर वैदिक काल में स्त्रियों की स्थिति पूर्व वैदिक काल की तुलना में गिर गयी थी अर्थात अब स्त्रियां समाज में ज्यादा अच्छी स्थिति में नहीं थी। 

इस बिंदु को हम ऐसे देख सकते हैं कि जहां पहले पूर्व वैदिक काल में समिति और विदथ जैसी संस्थाओं में महिलाओं को शामिल होने की अनुमति थी, अब उत्तर वैदिक काल में महिलाओं को इन संस्थाओं मे शामिल होने की अनुमति नहीं थी। 

जहां पहले स्त्रियां यज्ञों और सभी तरह के कर्म-कांडों में भाग ले सकती थी, इस काल में स्त्रियों को इन सभी तरह के कार्यों में भाग लेने से मना कर दिया गया था। 

इसके साथ-साथ पर्दा प्रथा और दहेज प्रथा जैसी व्यवस्था भी इस काल में शुरू हो गयी थी जिस वजह से स्त्रियों की स्थिति में गिरावट आने लग गयी थी, हालांकि अभी भी बहु विवाह ज्यादा व्यापक नहीं था और स्त्रियों को विधवा विवाह करने की अनुमति थी। 

इसके अलावा ऐतरेय ब्राह्मण ग्रंथ में पुत्रियों को समस्त दुखों का कारण बताया गया और इसके साथ-साथ मैत्रेयी संहिता में सुरा यानी शराब, पांसा यानी जुआ और स्त्री को तीसरी सबसे बड़ी बुराई बताया गया है, जिससे यह पता चलता है कि समाज में पुरुषवादी सोच हावी हो रही थी और स्त्रियों की स्थिति निम्न होती जा रही थी। 

उत्तर वैदिक काल की विदुषी महिलाएं

उत्तर वैदिक काल में कुछ विदुषी महिलाएं देखने को मिलती हैं, जो कुछ इस प्रकार है:

1 मैत्रेयी 

2 गार्गी 

3 कात्यायनी 

इस काल में महिलाओं की स्तिथि अच्छी नहीं थी, जिसके बाद भी यह महिलाएं समाज में आगे निकल कर आयी थीं। 

इस काल में दासों की स्थिति पूर्व वैदिक काल के समान ही सामान्य थी। 

इस काल में जैसे की कृषि का विकास हो रहा था तो समाज के लोगों के लिए भोजन का भी विस्तार होने लग गया था और लोग शाकाहारी और मांसाहारी भोजन दोनों करते थे। 

मनोरंजन में अभी भी लोग संगीत, नृत्य, पांसा, घुड़दौड़ आदि का उपयोग करते थे। 

इसके अलावा मनुस्मृति में 8 तरह के विवाह का वर्णन किया गया है, जिसमें पहले 4 तरह के विवाह को अच्छा बताया गया है और बाद के 4 तरह के विवाह को बेकार बताया गया है, परंतु इस काल में दो विवाह प्रथा जैसे अनुलोम विवाह और प्रतिलोम विवाह ये दो प्रकार के विवाह बहुत प्रचलित थे। 

अनुलोम विवाह में वर पक्ष उच्च वर्ग का होता था और वधु पक्ष निम्न वर्ग का होता था जबकि प्रतिलोम विवाह में वधु पक्ष उच्च वर्ग का होता था और वर पक्ष निम्न वर्ग का होता था। 

आर्थिक जीवन

दोस्तों, जहां हमने जाना था की पूर्व वैदिक काल में पशुपालन अर्थव्यवस्था का आधार था, वहीं उत्तर वैदिक काल में क्योंकि लोहे की खोज से कृषि में वृद्धि हो गयी थी इसलिए अब अर्थव्यवस्था का आधार कृषि हो गयी थी। 

काठक संहिता में कृषि के संबंध में 24 बैलों वाले हल का वर्णन मिलता है जिससे हम यह कह सकते हैं कि उत्तर वैदिक काल में कृषि सबसे प्रमुख व्यवसाय बन गया था। 

जहां पहले प्रमुख व्यवसाय पशुपालन था वहां अब इस काल में पशुपालन दूसरा प्रमुख व्यवसाय बन गया था। 

गाय को अभी भी प्रमुख पशु के रूप में रखा जाता था और गाय के बाद घोड़े को प्रिय पशु के रूप में रखा जाता था। 

अब कृषि का बहुत अधिशेष बच जाया करता था अर्थात कृषि में उगाई गई फसल का अपना व्यक्तिगत उपयोग करने के बाद व्यापार करने हेतु बच जाने वाली फसल। 

अधिशेष बचने से व्यापार को सहायता मिली और उद्योगों को भी सहायता प्राप्त हुई और दोनों का इस काल में विकास हुआ था, उद्योगों में धातु उद्योग, रथ बनाने के उद्योग और कुम्हार आदि उद्योग थे। 

जहां पहले सिर्फ आंतरिक व्यापार होते थे, उत्तर वैदिक काल में कुछ प्रमाण विदेशी व्यापार के भी दिखाई देते हैं, परंतु अभी भी व्यापक दृष्टि में विदेशों से व्यापार नहीं किया जा रहा था। 

इस काल में भी कोई मुद्रा की खोज नहीं हुई थी और अभी भी व्यापार व्यवस्था का संचालन विनिमय व्यवस्था ( Barter System ) के द्वारा किया जाता था, जिसमें एक वस्तु के बदले में दूसरी वस्तु का आदान-प्रदान किया जाता था। 

मुद्रा का प्रचलन उत्तर वैदिक काल के सबसे अंतिम चरण में शुरू होता है। 

इस काल में जैसे की आर्थिक स्थिति में सुधार आया और उसकी वजह से अब नगरीकरण को भी प्रगति प्राप्त हो गयी थी और इसकी शुरुआत उत्तर वैदिक काल के अंतिम चरण में शुरू हुई थी और इसे द्वितीय नगरीकरण कहा जाता है, जबकि पहला नगरीकरण सिंधु घाटी सभ्यता में था, जिसके बारे में हमनें पिछले आर्टिकल में पढ़ा था। 

धार्मिक जीवन 

जहां पहले पूर्व वैदिक काल में लोग प्रकृति की पूजा और उनसे संबंधित देवताओं की पूजा करते थे, वहीं अब इस काल में आर्थिक बदलावों के कारण लोगों का झुकाव यज्ञों और कर्म-कांडों की तरफ हो गया था। 

यज्ञों और कर्म कांडों का महत्व बढ़ गया था और धर्म के अंदर आडंबर और ढकोसलों की मात्रा बढ़ गयी थी। 

उत्तर वैदिक काल के अंतिम चरण में समाज के दो प्रमुख वर्ग ब्राह्मण और क्षत्रियों में आपस में श्रेष्ठता की दौड़ चलने लगी थी, जिसकी वजह से धर्म में कई तरह की अशुद्धियां बढ़ने लग गयी थी।  

जहां पहले इंद्र सबसे प्रमुख देवता थे, वहीं अब उत्तर वैदिक काल में प्रजापति सबसे प्रमुख देवता बन गए थे, जिनको सृजन के देवता अर्थात निर्माता के रूप में देखा जाता था। 

उत्तर वैदिक काल में जो मुख्य देवता प्रचलित थे वे कुछ इस प्रकार हैं:

1. विष्णु – इस काल में इन्हें पोषण और रक्षा के देवता के रूप में पूजा जाता था। 

2. रूद्र – इस काल में इन्हें पशुओं के देवता के रूप में पूजा जाता था और हमने पूर्व वैदिक काल में जाना था की उस समय पशुओं के देवता के रूप में पूषन देवता को पूजा जाता था। 

3. वरुण – इस काल में इन्हें जल के देवता के रूप में पूजा जाता था। 

4. पूषन – पूर्व वैदिक काल में जहाँ इन्हें पशुओं के देवता के रूप में पूजा जाता था, वहीं उत्तर वैदिक काल में इन्हें शूद्रों के देवता के रूप में पूजा जाने लगा था। 

अब इस काल में जैसे की राजा और लोगों की आर्थिक स्थिति मजबूत हो रही थी तो धार्मिक कार्यों में भी बदलाव आने लगे, लोग बड़े-बड़े यज्ञों का आयोजन करने लग गए थे और उनमें से मुख्य यज्ञ जो इस काल में करवाए जाते थे वे कुछ इस प्रकार हैं:

1. राजसूय यज्ञ – इस यज्ञ को प्रतिष्ठा हेतु करवाया जाता था, जब कोई राजा बनने वाला होता था तो यज्ञ को अपनी प्रतिष्ठा को दिखाने के लिए किया जाता था। 

2. वाजपेय यज्ञ – इस यज्ञ को शक्ति प्रदर्शन को दिखाने के लिए किया जाता था। 

3. अश्वमेध यज्ञ – इस यज्ञ को वह राजा करता था जिसका प्रभुत्व बाकी अन्य राजाओं में सबसे ज्यादा होता था और इस यज्ञ में एक घोड़े को खुला छोड़ दिया जाता था और कोई भी राजा उस घोड़े को बंदी नहीं बना सकता था क्यूंकि वह घोडा उस राजा का था जिसका प्रभुत्व सबसे ज्यादा था और यह यज्ञ साम्राज्य विस्तार के लिए भी किया जाता था। 

इसके साथ-साथ ऐसे यज्ञों में अनेक तरह के कर्मकांड और बलियों की प्रधानता होती थी, और एक स्रोत के अनुसार तो 24000 बैलों की भी बलि दी जाती थी। 

ऐसे कर्मकांडो की संख्या इतनी बढ़ गई थी की उत्तर वैदिक काल के अंतिम चरण में उपनिषदों की रचना की गई और इन उपनिषदों में इन्हीं सारे कर्मकांडो की आलोचना की गई थी। 

इस आलोचना का प्रभाव यह पड़ा की समाज में एक दूसरा वर्ग उभर कर आया जो इन कर्मकांडो से दूर रहना चाहता था और इसी दूसरे वर्ग को गौतम बुद्ध और महावीर जैसे महापुरुषों ने नई दिशा दिखाई जिसकी वजह से तब दो नए धर्म बौद्ध धर्म और जैन धर्म का भी जन्म हुआ था। 

वैदिक कालीन नदियों के आधुनिक नाम 

दोस्तों, वैदिक काल में नदियों के जो नाम थे आज के आधुनिक युग में वह नाम बदल गए हैं, आइये उन नामों पर दृष्टि डालें:

नदी का प्राचीन नामनदी का आधुनिक नाम
वितस्ता नदीझेलम नदी
परुष्णी नदीरावी नदी
शतुद्री नदीसतलुज नदी
अस्किनी नदीचिनाब नदी
सदानीरा नदीगंडक नदी
कुभा नदीकाबुल नदी
विपाशा नदीब्यास नदी
सरस्वती नदीघग्गर नदी
Vedic Period in Hindi – वैदिक सभ्यता

वैदिक सभ्यता – Vedic Period in Hindi

हम आशा करते हैं कि हमारे द्वारा दी गई वैदिक सभ्यता – Vedic Period in Hindi के बारे में  जानकारी आपके लिए बहुत उपयोगी होगी और आप इससे बहुत लाभ उठाएंगे। हम आपके बेहतर भविष्य की कामना करते हैं और आपका हर सपना सच हो।

धन्यवाद।


बार बार पूछे जाने वाले प्रश्न

वैदिक काल की शुरुआत कब हुई थी?

1500 ईसा पूर्व में वैदिक सभ्यता का जन्म भारत में होता है, यह काल पूर्ण रूप से वेदों पर आधारित था।

वैदिक काल का समय कब से कब तक है?

वैदिक सभ्यता या वैदिक काल का समय 1500 ईसा पूर्व से लेकर 600 ईसा पूर्व तक का माना जाता है, परंतु इसको दो भागों में बांटा जाता है, जो कुछ इस प्रकार है:
1. पूर्व वैदिक काल ( 1500 ईसा पूर्व – 1000 ईसा पूर्व )
2. उत्तर वैदिक काल ( 1000 ईसा पूर्व – 600 ईसा पूर्व ) 

वैदिक काल से आप क्या समझते हैं?

जो काल पूर्ण रूप से वेदों पर आधारित था और जिस काल में वेदों की रचना हुई, उसे हम वैदिक काल या वैदिक सभ्यता के रूप में जानते हैं।

वेद किसने लिखा था?

वेद के संकलनकर्ता के रूप में कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास को जाना जाता है जिन्होंने इस वेद की रचनाओं को एक साथ जोड़ा था और वेद में धर्म से जुड़े बिंदुओं का वर्णन मिलता है।

वैदिक युग के प्रमुख देवता कौन थे?

इंद्र – इस काल में यह सबसे प्रमुख और महत्वपूर्ण देवता थे, और इन्हें पुरंदर कहा गया है अर्थात किला तोड़ने वाला, इन्हें विजय पताका के रूप में और शक्तिशाली देवता के रूप में देखा जाता था और इसके साथ-साथ ऋग्वेद में इंद्र के संबंध में 250 श्लोक देखने को मिलते हैं, जिससे यह कहा जा सकता है की यह इस काल के सबसे महत्वपूर्ण देवता थे। 

वैदिक काल में आर्य कौन थे?

वैदिक सभ्यता के निर्माता के रूप में आर्य लोगों को देखा जाता है और आर्य एक संस्कृत का शब्द है जिसका अर्थ श्रेष्ठ होता है और यह श्रेष्ठता कोई जातिगत रूप में नहीं बल्कि भाषा के रूप में जो लोग श्रेष्ठ थे उन्होंने अपने आप को आर्य कहा और इन आर्यों ने भारत में वैदिक सभ्यता की स्थापना की।

वेदों की संख्या कितनी होती है?

वैदिक सभ्यता या वैदिक काल में 4 वेदों की रचना हुई थी जो कुछ इस प्रकार थे:
1. ऋग्वेद
2. सामवेद
3. यजुर्वेद
4. अथर्ववेद

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