Anglo Maratha war in Hindi

Anglo Maratha war in Hindi – आंग्ल मराठा युद्ध ⚔️

Anglo Maratha war in Hindi – दोस्तों, आज हम आंग्ल मराठा युद्ध के बारे में जानेंगे, इसके साथ हमने पिछले आर्टिकल में छत्रपति शिवाजी महाराज और मराठा साम्राज्य के ऊपर चर्चा की थी। 

जब धीरे-धीरे मराठा साम्राज्य में पेशवा पद भी कमज़ोर पड़ने लगता है, उस समय भारत में आई यूरोपीय कंपनियों में से अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने पैर भारत में जमा लिए थे और भारत के कई क्षेत्रों पर भी अपना कब्ज़ा कर लिया था। 

इस क्रम में अंग्रेजों की नज़र मराठा साम्राज्य की कमज़ोर हो रही सत्ता पर भी थी और तब अंग्रेजों और मराठों में भी संघर्ष देखने को मिला और इस क्रम में 3 आंग्ल मराठा युद्ध हुए, जिसके फलस्वरूप मराठा साम्राज्य पर भी भारत के कई दुसरे क्षेत्रों की तरह अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी का कब्ज़ा हो गया था। 

आंग्ल मराठा युद्ध की पृष्ठभूमि ( Background of Anglo maratha war )

दोस्तों, जैसे की हमने हमारे पिछले आर्टिकल मराठा साम्राज्य में जाना था की तृतीय पानीपत के युद्ध में मराठों की हार के बाद पेशवा बालाजी बाजीराव बहुत ज्यादा दुखी हो जाते हैं और इसी दुख के साथ उनकी मृत्यु हो जाती है। 

जिसके बाद उनके पुत्र माधवराव को पेशवा बनाया जाता है, लेकिन इससे माधवराव के चाचा अर्थात बालाजी बाजीराव के भाई रघुनाथराव खुश नहीं थे क्योंकि वह खुद ही पेशवा बनना चाहते थे। 

बाद में जब माधवराव की टी.बी की बीमारी से मृत्यु हो जाती है, तब उनके भाई नारायणराव को पेशवा बनाया जाता है, परंतु इस क्रम में रघुनाथराव ईर्ष्या की भावना और खुद पेशवा बनने की चाह अपने अंदर रखता है। 

इसके कुछ ही समय बाद रघुनाथराव एक षड्यंत्र के तहत नारायणराव की हत्या करवा देता है और खुद को पेशवा घोषित कर देता है, परंतु कोई उसे पेशवा पद के लिए योग्य नहीं मानता था। 

इसके बाद नारायणराव की पत्नी उनके पुत्र को जन्म देती है और उनके पुत्र को सवाई माधवराव नाम दिया जाता है। 

मराठा साम्राज्य के प्रभावशाली मंत्री नाना फड़नवीस द्वारा नारायणराव के पुत्र सवाई माधवराव को पेशवा बनाने का अभियान चलाया जाता है और इस अभियान में नाना फड़नवीस के साथ मराठा साम्राज्य के दूसरे प्रभावशाली चीफ तुकोजीराव होलकर और महादजी शिंदे भी जुड़ जाते है। 

धीरे-धीरे अन्य मराठा साम्राज्य के प्रभावशाली व्यक्ति भी इस अभियान में जुड़ जाते है और तब नाना फड़नवीस द्वारा बारभाई परिषद का गठन किया जाता है, जिसके द्वारा वे अपने इस अभियान को सफल बनाने की कोशिश करते हैं, जिसमें वे कुछ समय बाद सफल भी हो जाते है और तब वे अभियान के सफल होने के फलस्वरूप नारायणराव के पुत्र सवाई माधवराव को पेशवा घोषित कर देते है। 

परंतु क्यूंकि उस समय सवाई माधवराव केवल 40 दिन के थे इसलिए उनके नेतृत्वकर्ता के रूप में नाना फड़नवीस और बारभाई परिषद ने मराठा साम्राज्य के प्रशाशन व्यवस्था की कमान संभाली थी। 

रघुनाथराव ईर्ष्या की भावना और अपने आप को पेशवा बनाने की चाह लेकर अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी के पास अपने लिए सहयोग मांगने के लिए गया और इसके बाद कुछ ऐसी परिस्थितियां बनी जिसके कारण मराठा और अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच 3 आंग्ल मराठा युद्ध हुए। 

रघुनाथराव ने अपने ही मराठा लोगों के विरुद्ध पेशवा बनने के लिए विद्रोह किया था। 

आइये उन आंग्ल मराठा युद्धों के ऊपर दृष्टि डालें:

प्रथम आंग्ल मराठा युद्ध ( 1775 – 1782 )

1775 में रघुनाथ राव भारत में व्यापार करने आई अंग्रेजी कंपनी के पास अपने आप को मराठा साम्राज्य में पेशवा बनाने के लिए सहयोग मांगने के लिए गया था और उस समय वह सूरत में अंग्रेजी कंपनी की बॉम्बे परिषद के पास गया था। 

सूरत की संधि ( 1775 )

अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी ने रघुनाथ राव को पेशवा बनाने के लिए सहयोग देने के लिए कुछ शर्तें रखी, वे शर्तें कुछ इस प्रकार थी:

1.साल्सेट और बसीन वाले क्षेत्र अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी को दे दिए जाएंगे, इन क्षेत्रों में वर्तमान के मुंबई और ठाणे जैसे क्षेत्र आते हैं।
2.सूरत और भरूच के क्षेत्रों से आने वाले राजस्व को अंग्रेजी कंपनी के साथ बांटा जाएगा।
Anglo Maratha war in Hindi – आंग्ल मराठा युद्ध

क्योंकि रघुनाथराव को पेशवा बनने की बहुत ज्यादा चाह थी, इसलिए ये शर्तें रघुनाथराव द्वारा मान ली गई थी। 

इसके बदले में अंग्रेजी कंपनी के द्वारा रघुनाथराव को 2500 सैनिक उसके सहयोग के लिए दिए गए थे, इसको सूरत की संधि कहा गया और यह संधि रघुनाथराव और अंग्रेजी ईस्ट इंडिया की बॉम्बे परिषद के मध्य 1775 में हुई थी। 

दोस्तों, हमने हमारे 1773 रेगुलेटिंग एक्ट वाले आर्टिकल में जाना था की अंग्रेजी कंपनी की बंगाल प्रेसीडेंसी के पास बाकी दो प्रेसीडेंसी अर्थात बॉम्बे प्रेसीडेंसी और मद्रास प्रेसीडेंसी की देखरेख की जिम्मेदारी आ गई थी, इसलिए जो सूरत की संधि रघुनाथराव और अंग्रेजी ईस्ट इंडिया की बॉम्बे परिषद के मध्य हुई थी उसकी एक प्रतिलिपि बंगाल प्रेसीडेंसी के पास भी पास होने के लिए गई थी। 

पुरंदर की संधि ( 1776 )

इसके बाद सूरत की संधि के तहत रघुनाथराव और अंग्रेजी कंपनी की तरफ से कर्नल कीटिंग्स अपने सैनिकों के साथ मराठा साम्राज्य के साथ युद्ध करने के लिए गए। 

हरिपंत फड़के जो बारभाई परिषद के सदस्य भी थे, उनके द्वारा मराठों की तरफ से नेतृत्व किया गया था और इस प्रकार मार्च, 1775 में प्रथम आंग्ल मराठा युद्ध की शुरुआत हो गयी थी। 

इस युद्ध में मराठों ने अपनी गुरिल्ला युद्ध पद्धति का भरपूर उपयोग किया और अंग्रेजी कंपनी की सेना को बहुत चुनौती दी थी। 

परंतु इस युद्ध के दौरान जो सूरत की संधि की प्रतिलिपि बंगाल प्रेसीडेंसी में पास होने के लिए गई थी, उसको उस समय के बंगाल के गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स द्वारा अस्वीकार कर दिया जाता है और अंग्रेजी कंपनी की बॉम्बे परिषद को यह युद्ध बंगाल प्रेसीडेंसी द्वारा समाप्त करने के लिए कह दिया जाता है। 

बंगाल प्रेसीडेंसी द्वारा मराठों को भी यह युद्ध समाप्त करने के लिए कहा जाता है और बंगाल के गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स द्वारा कर्नल उप्टन को मराठों के पास पुरंदर की संधि करने के लिए भेजा जाता है। 

यह पुरंदर की संधि मराठों और अंग्रेजों के बीच 1776 में हुई थी, इस संधि की शर्तें कुछ इस प्रकार थीं:

1.इस संधि के तहत सवाई माधवराव को ही पेशवा माना गया।
2.इसके साथ अंग्रेजी कंपनी के द्वारा मराठों के किसी भी विरोधी के साथ संधि नहीं करी जाएगी, रघुनाथराव से भी नहीं।
3.इस युद्ध के दौरान अंग्रेजी कंपनी द्वारा मराठों के जिन क्षेत्रों पर कब्ज़ा कर लिया गया था वे मराठों को वापस दे दिए जायेंगे। 
4.मराठों द्वारा अपने विद्रोही हो चुके मराठा भाई रघुनाथराव को प्रस्ताव दिया गया की अगर वह अपनी सेना खत्म कर दे तो उसको मराठों द्वारा 25000 राशि की पेंशन प्रतिमाह दी जाएगी।
5.रघुनाथराव ने सूरत की संधि के दौरान साल्सेट का क्षेत्र अंग्रेजी कंपनी को देने के लिए कहा था, जिसे मराठों द्वारा अस्वीकार कर दिया गया और इसके बदले में कोई भी अन्य क्षेत्र जिसका मूल्य 3 लाख तक का हो उसे अंग्रेजी कंपनी को देने की बात कही। 
Anglo Maratha war in Hindi – आंग्ल मराठा युद्ध

परंतु इस संधि के बाद भी अंग्रेजी कंपनी रघुनाथराव के संपर्क में थी जो पुरंदर की संधि का उलंघन था क्यूंकि उसके हिसाब से मराठों के किसी भी विरोधी के साथ अंग्रेजी कंपनी ने हाथ मिलाने के लिए मना किया था। 

इसके बाद मराठों ने अपने बल को और ज्यादा बढ़ाने का प्रयास किया ताकि अंग्रेजी कंपनी भविष्य में उनसे युद्ध न कर पाए और इस क्रम में मराठों द्वारा 1777 में फ्रांस के साथ एक मैत्रीपूर्ण संधि करी गई थी, मराठों की यह संधि करने का उदेष्य अपनी सेना को और ज्यादा मजबूत और सुदृढ़ बनाना था। 

मराठों की फ्रांस के साथ इस मैत्रीपूर्ण संधि के तहत फ्रांस द्वारा मराठों को 2500 यूरोपीय सैनिक दिए गए और 10000 भारतीय सैनिकों को यूरोपीय लाइनों में प्रशिक्षण देने की बात कही गई और इसके बदले में मराठों द्वारा फ्रांस को पश्चिमी बंदरगाह व्यापार करने के लिए दे दिए गए। 

मराठों की फ्रांस के साथ ऐसी संधि को जानकार अंग्रेजी कंपनी ने इसका विरोध किया और मराठों पर आक्रमण कर दिया था। 

तब महादजी शिंदे द्वारा मराठा सेना का नेतृत्व किया गया था और उन्होंने अपनी बुद्धि का प्रयोग करते हुए अंग्रेजी सेना को तालेगांव के पास के घाटों पर आक्रमण करने के लिए उकसाया और जैसे ही अंग्रेजी सेना वहां आक्रमण करने पहुंची मराठा सेना ने उनपर आक्रमण कर दिया था और इसके साथ-साथ मराठा सेना ने अंग्रेजी सेना के खापोली में बने हुए बेस को भी ध्वस्त कर दिया था। 

यह सब देख कर अंग्रेजी सेना भाग खड़ी हुई और वड़गाँव क्षेत्र में मराठा सेना द्वारा अंग्रेजी कंपनी की सेना को पूर्ण रूप से घेर लिया गया था और इसके बाद 1779 में अंग्रेजी सेना को समर्पण करना पड़ा था। 

वड़गाँव की संधि

इसके फलस्वरूप मराठों और अंग्रेजी सेना में वड़गाँव की संधि हुई और इसके तहत 1775 से लेकर जितने भी मराठा क्षेत्र अंग्रेजी कंपनी द्वारा कब्ज़ा कर लिए गए थे, वे क्षेत्र उनको मराठाओं को वापस देने पड़े। 

इसके साथ-साथ वहां अंग्रेजी सेना के साथ रघुनाथराव को भी मराठा सेना द्वारा पकड़ लिया गया था, जिसके बाद रघुनाथराव ने भी अंग्रेजी सेना के साथ समर्पण कर दिया था और यह बात भी स्वीकार करी की उसकी वजह से ही अंग्रेजी सेना मराठों पर आक्रमण कर रही थी। 

तब इस वड़गाँव की संधि के तहत मराठों ने रघुनाथराव को झांसी जाकर रहने को कहा और उसे पेंशन देने की बात भी कही गई थी, परंतु रघुनाथराव द्वारा अपने पुत्र बाजीराव द्वितीय को पेशवा के प्रशासन में रखने की बात कही जिसे मराठाओं द्वारा स्वीकार कर लिया गया था। 

परंतु बंगाल के गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने यह वड़गाँव की संधि को अस्वीकार कर दिया और अपनी तीन सेनाएं मराठाओं के विरुद्ध भेज दी, इन 3 सेनाओं का नेतृत्व कर्नल गोडार्ड, कप्तान पोफ़म और जनरल कैमैक कर रहे थे। 

फरवरी, 1779 में कर्नल गोडार्ड की सेना ने अहमदाबाद क्षेत्र पर अपना कब्ज़ा कर लिया था। 

अगस्त, 1780 में कप्तान पोफ़म की सेना ने ग्वालियर पर अपना कब्ज़ा कर लिया था, इसके कुछ ही समय के बाद दिसंबर 1780 में ही फिर से कर्नल गोडार्ड की सेना ने बसीन पर अपना कब्ज़ा कर लिया था।

इसके बाद फरवरी, 1781 में जनरल कैमैक की सेना द्वारा सिपरी के युद्ध में महादजी शिंदे को भी पराजित कर दिया गया था। 

इसके बाद बंगाल के गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने नाना फड़नवीस और पेशवा के साथ अपनी मांगो के हिसाब से संधि करने के लिए महादजी शिंदे को उनसे अलग करना चाहा। 

तब अक्टूबर 1781 में वारेन हेस्टिंग्स ने महादजी शिंदे के साथ एक अलग से शांति समझौता किया जिसमे उनके सारे क्षेत्र महादजी शिंदे को वापस देने की बात कही जिसके बदले में वारेन हेस्टिंग्स ने यह फैसला लिया की उन्हें मराठों और अंग्रेजी कंपनी के बीच एक मध्यस्थ व्यक्ति की तरह रहना होगा। 

इस शांति समझौते से वारेन हेस्टिंग्स का उद्देश्य महादजी शिंदे को मराठों से अलग करना था और अब महादजी शिंदे न मराठाओं के साथ थे और न ही अंग्रेजी कंपनी के साथ, उनका कार्य बीच में रहकर अब होने वाली संधि में दोनों पक्षों में एक मध्यस्थ व्यक्ति की तरह कार्य को करना था। 

सालबाई की संधि ( 1782 )

महादजी शिंदे को मराठों से अलग करने के बाद अंग्रेजी कंपनी और मराठाओं में सालबाई की संधि हुई और इस संधि में जो शर्तें थी, वे कुछ इस प्रकार थी:

1.साल्सेट का क्षेत्र अब पूर्णतः अंग्रेजी कंपनी के नियंत्रण में कर दिया जाएगा, इसके साथ-साथ 1776 की पुरंदर की संधि के बाद से जितने मराठा क्षेत्र अंग्रेजी कंपनी ने अपने अधिकार में लिए थे वे उन्हें वापस दे दिए जायेंगे। 
2.मराठाओं द्वारा रघुनाथराव को पेंशन पर भेज दिया गया था।
3.मराठा किसी अन्य यूरोपीय देश के साथ कोई संधि नहीं कर सकते और इस बिंदु पर महादजी शिंदे को दोनों पक्षों की और से साक्षी बना दिया गया। 
Anglo Maratha war in Hindi – आंग्ल मराठा युद्ध

अगर दोनों पक्षों की ओर से कोई इस संधि के विरुद्ध कार्य करता है तो उसकी पूर्ण जिम्मेदारी महादजी शिंदे की होगी। 

इसके बाद अंग्रेजी कंपनी फिर से मराठा क्षेत्रों में अपना व्यापार का कार्य करने लग गयी थी। 

द्वितीय आंग्ल मराठा युद्ध ( 1803 – 1805 )

दोस्तों, 1782 में मराठों और अंग्रेजी कंपनी के बीच में हुई सालबाई की संधि के बाद स्थिति सामान्य रूप से चल रही थी, परंतु 1795 में सवाई माधवराव द्वारा 21 वर्ष की आयु में शनिवारवाड़े से कूदकर खुदकुशी कर ली जाती है। 

मराठों द्वारा जिस रघुनाथराव को पेंशन पर भेज दिया गया था, उसके तीन पुत्र थे और उनके नाम थे बाजीराव द्वितीय, चिमाजीराव द्वितीय और अमृतराव, इनमें से एक पुत्र अमृतराव को रघुनाथराव द्वारा गोद लिया गया था।   

इस क्रम में बाद में रघुनाथराव के पुत्र बाजीराव द्वितीय को पेशवा बनाया जाता है, परंतु वह एक कमज़ोर पेशवा था और नाना फड़नवीस जिन्होंने सवाई माधवराज को पेशवा बनाने का अभियान चलाया था, वे ही बाजीराव द्वितीय के कार्यकाल में एक उच्च पद पर रहते हुए उसका कार्यभार संभालते थे। 

बाद में 1800 में नाना फड़नवीस की मृत्यु हो जाती है, जिसके बाद मराठा साम्राज्य के अलग-अलग गुटों या वंशों में आपस में संघर्ष शुरू हो जाता है, इन वंशों की चर्चा हमने पिछले मराठा साम्राज्य वाले आर्टिकल में की थी जैसे भोसले वंश, गायकवाड़ वंश, होल्कर वंश, सिंधिया वंश। 

उस समय मराठा साम्राज्य के होल्कर और सिंधिया वंश में बहुत संघर्ष होते रहते थे और इन संघर्षों में पेशवा का सहयोग सिंधिया वंश को मिलता था। 

इसी क्रम में होल्कर वंश के यशवंतराव होल्कर द्वारा अपनी शक्तियों को और भी ज्यादा मज़बूत और सुदृढ़ बनाने के लिए उत्तर भारत की तरफ अपने अभियान बिना पेशवा की मंज़ूरी के साथ शुरू कर दिए गए थे। 

यशवंतराव होल्कर द्वारा अपने भाई विठुजी होल्कर को भी दक्षिण भारत में अपनी शक्तियों को मजबूत और सुदृढ़ बनाने के लिए अभियान करने के लिए भेज दिया गया था, परंतु इसके साथ-साथ विठुजी होल्कर पेशवा के क्षेत्रों में भी हस्तक्षेप करने लग गए थे और पेशवा को भी चुनौती देने लग गए थे। 

विठुजी होल्कर के इस कार्य को देखकर पेशवा द्वारा विठुजी होल्कर को पकड़कर उनको हाथी के पाँव के नीचे दबवाने की सजा के आदेश दिए गए थे। 

विठुजी होल्कर के भाई यशवंतराव होल्कर ने यह सूचना पा कर पेशवा और सिंधिया वंश पर आक्रमण कर दिया, और इसी क्रम में 1802 में पूना के पास हड़पसर क्षेत्र में यशवंतराव होल्कर की सेना द्वारा पेशाव व सिंधिया वंश की सेना को हरा दिया गया था। 

ऐसी स्थिति में बाजीराव द्वितीय जो उस समय पेशवा के पद पर थे, उन्होंने पूना के अपने साम्राज्य को छोड़ दिया और बसीन क्षेत्र में चले गए थे। 

तब यशवंतराव ने पूना साम्राज्य में खुद को पेशवा न बनाकर विनायकराव को पेशवा बनाया क्यूंकि अगर वे खुद ही पेशवा बन जाते तो बाकी मराठा साम्राज्य के वंशों को इससे आपत्ति होती और वे सब मिलके यशवंतराव पर आक्रमण कर देते। 

दोस्तों, जैसे की हमने ऊपर चर्चा की थी की रघुनाथराव के तीन पुत्र थे जिसमे से एक उसका गोद लिया हुआ पुत्र था जिसका नाम अमृतराव था, इसी अमृतराव का पुत्र विनायकराव था और वह बाजीराव द्वितीय का भतीजा भी था, जिसे यशवंतराव द्वारा पेशवा बनाया गया था। 

यह विनायकराव यशवंतराव के नियंत्रण के हिसाब से कार्य करता था और इसलिए ही यशवंतराव ने बाजीराव द्वितीय को हराने के बाद विनायकराव को पेशवा बनाया था। 

बाजीराव द्वितीय को फिर से पेशवा बनने की चाह थी और इसी क्रम में वह अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी के पास सहायता मांगने गया और एक बार फिर से भारत के साम्राज्यों में आपस में ही संघर्ष का फायदा अंग्रेजों को मिलने जा रहा था। 

बसीन की संधि ( 1802 )

अंग्रेजी कंपनी ने बाजीराव द्वितीय की मदद करना स्वीकार किया और इसके बदले में बाजीराव द्वितीय के साथ समझौता भी किया और इसे हम बसीन की संधि कहते हैं और यह संधि 1802 में हुई थी और इस संधि की शर्तें कुछ इस प्रकार थीं:

1.बाजीराव द्वितीय को सूरत का क्षेत्र अंग्रेजों को देना होगा।
2.मराठों द्वारा निज़ामों से लिया जाने वाला चौथ कर बंद करना होगा, ऐसा इसलिए हुआ क्यूंकि निज़ामों द्वारा अंग्रेजी कंपनी के साथ सहायक गठबंधन ( Subsidiary Alliance ) पर हस्ताक्षर किये हुए थे।
3.अंग्रेजी कंपनी द्वारा 6000 सैनिक बाजीराव द्वितीय के सहयोग के लिए दिए गए थे। 
4.यह 6000 सैनिक अंग्रेजी कंपनी द्वारा बाजीराव द्वितीय को फिर से पेशवा बनाने के लिए दिए गए थे, परंतु बाजीराव द्वितीय को पेशवा बनने के बाद यह सैनिक अंग्रेजी कंपनी को वापस नहीं देने थे बल्कि इन सैनिकों का खर्चा बाजीराव द्वितीय को ही पेशवा बनने के बाद उठाना था। 
5.बाजीराव द्वितीय को एक क्षेत्र जिसका मूल्य 26 लाख का हो, वह क्षेत्र अंग्रेजों को देना होगा।
6.मराठों की सारी विदेश नीतियों पर अंग्रेजी कंपनी का नियंत्रण होगा।
7.अंग्रेजों का जिस किसी भी देश के साथ संघर्ष चल रहा हो, उस देश के व्यक्ति की मराठा साम्राज्य में नियुक्ति नहीं की जाएगी।
Anglo Maratha war in Hindi – आंग्ल मराठा युद्ध

इस संधि के साथ मराठा साम्राज्य के विघटन का समय शुरू हो चुका था। 

बाद में बाजीराव द्वितीय अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी के सहयोग से 13 मई, 1803 को फिर से पेशवा के पद पर आ गए थे, परंतु अब पेशवा पूर्ण आज़ादी के साथ अपना कार्य नहीं कर सकते थे और बहुत हद तक अंग्रेजी कंपनी के नियंत्रण में ही कार्य चल रहा था। 

इसके बाद जितने भी मराठा साम्राज्य के वंश थे उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ उनके इस षड्यंत्र के खिलाफ युद्ध करने का निर्णय लिया, जिसे हम द्वितीय आंग्ल मराठा युद्ध के नाम से संबोधित करते हैं। 

सिंधिया वंश, भोसले वंश और होल्कर वंश द्वारा अंग्रेजों के खिलाफ अभियान किया गया, परंतु उनका यह अभियान विफल रहा था। 

अंग्रेजी कंपनी की मराठा वंशों के साथ संधियां 

बाद में अंग्रेजों ने फिर से अपनी कूटनीति का परिचय देते हुए, मराठा साम्राज्य के अलग-अलग वंशों के साथ अलग-अलग शांति संधि कर ली थी, जो कुछ इस प्रकार है:

अंग्रेजी कंपनी और सिंधिया वंश के बीचसुरजी-अंजनगांव की संधि1803 
अंग्रेजी कंपनी और भोसले वंश के बीचदेवगांव की संधि1803 
अंग्रेजी कंपनी और होल्कर वंश के बीचराजपुरघाट की संधि1806 
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इस द्वितीय आंग्ल मराठा युद्ध के बाद अंग्रेजों का मराठा साम्राज्य में बहुत ज्यादा नियंत्रण हो गया था। 

तृतीय आंग्ल मराठा युद्ध ( 1817 – 1818 )

दोस्तों, जहां हमने जाना की पहले दो आंग्ल मराठा युद्धों में मराठा साम्राज्य में सत्ता की चाह में अंग्रेजी कंपनी से मदद ली गई थी, परंतु तृतीय आंग्ल मराठा युद्ध में कुछ अलग कारण थे जो इस युद्ध का कारण बने थे। 

जब मराठों द्वारा कोई अभियान करा जाता था तो उनके अभियानों में पिंडारी भी उनकी सेना में जुड़कर उनका साथ देते थे और बदले में विजय प्राप्त करने के बाद पिंडारी उन जीते हुए क्षेत्रों में लूट-पाट करते थे।  

पिंडारियों में सारे तरह के लोग हुआ करते थे चाहे वह कोई से भी धर्म, जात-पात, वर्ग का ही क्यों न हो। 

द्वितीय आंग्ल मराठा युद्ध के बाद मराठा साम्राज्य बहुत ही कमज़ोर हो गया था, जिसकी वजह से मराठों द्वारा कोई ज्यादा अभियान भी नहीं किये जा रहे थे और इस प्रकार पिंडारियों की भी कोई कमाई नहीं हो पा रही थी। 

तब इस क्रम में पिंडारियों ने अपनी पूर्ती के लिए अपने आसपास के क्षेत्रों, निज़ामों के क्षेत्रों, कर्नाटक के नवाबों के क्षेत्रों, मालाबार के क्षेत्रों और अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी के क्षेत्रों पर लूटपाट करना शुरू कर दिया था। 

तब 1817 में उस समय के अंग्रेजी कंपनी के गवर्नर जनरल लार्ड हेस्टिंग्स द्वारा पिंडारियों पर आक्रमण करने के निर्देश दिए गए थे। 

लार्ड हेस्टिंग्स के इस निर्देश को मराठों ने उनकी संप्रभुता पर ठेस समझा और अंग्रेजों से इसका बदला लेने का निर्णय लिया और यही तृतीय आंग्ल मराठा युद्ध के प्रथम कारणों में से एक था।  

द्वितीय आंग्ल मराठा युद्ध के बाद अंग्रेजी कंपनी के द्वारा मराठा साम्राज्य के अलग-अलग वंशों के केंद्रों पर अपने निवास बना लिए थे ताकि अगर मराठों द्वारा कोई विद्रोह का षड्यंत्र हो रहा हो तो उसे पकड़ लिया जाए। 

इसी क्रम में पेशवा और गायकवाड़ वंश के बीच वित्तीय संघर्ष होना शुरू हो गए थे, और इसलिए गायकवाड़ वंश ने अपने मंत्री गंगाधर शास्त्री को पूना साम्राज्य में अर्थात पेशवा के पास भेजा था और वहां पेशवा के एक मंत्री त्रिम्बकजी डांगलिया द्वारा गायकवाड़ वंश के मंत्री गंगाधर शास्त्री की हत्या कर दी जाती है। 

पूना की संधि ( 1817 )

अंग्रेजी कंपनी के द्वारा गायकवाड़ वंश का सहयोग किया गया और उन्होंने पेशवा को त्रिम्बकजी डांगलिया को उन्हें सौंपने का आदेश दिया और इसके साथ अंग्रेजी कंपनी को पेशवा के विद्रोही बनने की आशंका भी हो रही थी, इसलिए तब अंग्रेजी कंपनी द्वारा पेशवा के साथ 1817 में एक पूना की संधि करी गई थी। 

1817 में हुई पूना की संधि की शर्तें कुछ इस प्रकार थी:

1.इसमें अंग्रेजी कंपनी द्वारा पेशवा के बहुत क्षेत्रों को अपने नियंत्रण में ले लिया जैसे, नर्मदा नदी के उत्तर का क्षेत्र और तुंगभद्रा नदी के दक्षिण का क्षेत्र। 
2.पेशवा गायकवाड़ वंश से किसी भी तरह का कर नहीं ले सकते। 
3.पेशवा किसी भी भारतीय राजा के साथ संधि नहीं कर सकते।
Anglo Maratha war in Hindi – आंग्ल मराठा युद्ध

यह भी तृतीय आंग्ल मराठा युद्ध का कारण बना था। 

इन्हीं सब कारणों के वजह से पेशवा ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का निर्णय लिया और बाकी के मराठा वंशों अर्थात भोसले वंश, सिंधिया वंश और होल्कर वंश के साथ मिलकर विद्रोह की रणनीति बनाई। 

अंग्रेजी कंपनी से छुप कर पेशवा ने बहुत बड़ी सेना भी बना ली थी और बाकी वंशों को भी पेशवा के द्वारा मदद करी गई ताकि वे भी अपनी बड़ी सेना बना सके। 

इस क्रम में पेशवा और सिंधिया वंश दूसरे साम्राज्यों से भी सहयोग लेने की कोशिश करने लग गए थे और उन्होंने उस समय के सिख साम्राज्य के राजा रणजीत सिंह और नेपाल साम्राज्य से मदद मांगी थी, परंतु इस कार्य में अंग्रेजी कंपनी द्वारा सिंधिया वंश को पकड़ लिया गया था। 

ग्वालियर की संधि ( 1817 )

तब अंग्रेजी कंपनी ने सिंधिया वंश के साथ ग्वालियर की संधि की थी और यह संधि नवंबर, 1817 में हुई थी, इस संधि की शर्तें कुछ इस प्रकार थी की सिंधिया वंश को पिंडारियों के विरुद्ध अंग्रेजों का साथ देना होगा और ऐसे में अब सिंधिया वंश पेशवा की कोई मदद नहीं कर सकते थे। 

इसके बाद पेशवा द्वारा सीधा आक्रमण के संदेश भोसले और होल्कर वंश को दे दिए गए और इस क्रम में उन्होंने पूना में ब्रिटिश निवास स्थानों को आग लगा दी और नवंबर, 1817 में तृतीय आंग्ल मराठा युद्ध का प्रारंभ हो गया था। 

भोसले वंश के अप्पाराव भोसले द्वारा नागपुर में ब्रिटिश निवासों को आग लगा दी गयी थी, इसके साथ पेशवा द्वारा खड़की के ब्रिटिश कैंप पर भी आक्रमण कर दिया गया था। 

सितबलदी के क्षेत्र में भोसले वंश की सेना और अंग्रेजी कंपनी की सेना के बीच भी युद्ध हो गया था, परंतु खड़की में पेशवा और सितबलदी में भोसले वंश की सेना दोनों को पराजय मिली थी। 

मंदसौर की संधि ( 1818 )

इसी क्रम में होल्कर वंश ने भी महिदपुर क्षेत्र में अंग्रेजी सेना पर आक्रमण किया, परंतु वे भी इसमें असफल रहे और अंग्रेजी सेना को इसमें विजय प्राप्त हुई थी और इसके बाद अंग्रेजी कंपनी द्वारा होल्कर वंश के साथ मंदसौर की संधि की गई थी। 

इसके बाद बाजीराव द्वितीय जो पेशवा थे, वे दक्षिण की तरफ भाग गए थे और अंग्रेजी कंपनी को यह आशंका थी की पेशवा फिर से वहां से आकर उनपर आक्रमण करेंगे, इसलिए अंग्रेजी कंपनी द्वारा और ज्यादा सेना को पूना में बुलाया गया था। 

ऐसे में अंग्रेजी कंपनी की सेना की एक टुकड़ी पूना आने के क्रम में रात को कोरेगांव क्षेत्र में रुकी और पेशवा ने इस अवसर का लाभ उठाते हुए अंग्रेजी सेना पर आक्रमण कर दिया, परंतु बाजीराव द्वितीय को कोरेगांव के युद्ध में भी पराजय मिली थी। 

इसके बाद बाजीराव द्वितीय फरवरी 1818 से लेकर जून 1818 तक अपने प्राणों की रक्षा करने के लिए एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में भागते रहे थे। 

इसके बाद जून 1818 में पेशवा बाजीराव द्वितीय ने आत्मसमर्पण कर दिया था और तब अंग्रेजी कंपनी के द्वारा पेशवा के पद को ख़त्म कर दिया गया था। 

इस तृतीय आंग्ल मराठा युद्ध के दौरान जितने भी क्षेत्र अंग्रेजी कंपनी ने कब्ज़ा किये थे वे अंग्रेजी कंपनी के बॉम्बे प्रेसीडेंसी के अंतर्गत रख दिए गए थे। 

बाजीराव द्वितीय को उनके साम्राज्य से अंग्रेजी कंपनी द्वारा निकाल कर कानपुर के पास बिठूर नामक गाँव में पेंशन में भेज दिया गया था, ताकि दूसरे भारतीय राजाओं को यह बताया जाए की अंग्रेजों के विरुद्ध जाने के क्या परिणाम हो सकते हैं। 

अंग्रेजी कंपनी के द्वारा छत्रपति शिवाजी महाराज के वंशज प्रताप सिंह को सतारा का क्षेत्र दे दिया गया था। 

इसके साथ-साथ अंग्रेजी सेना द्वारा पिंडारियों का भी अंत कर दिया गया था और पिंडारियों के मुख्या आमिर खान और करीम खान द्वारा आत्मसमर्पण कर दिया गया था और चीतू खान जंगलों में भाग खड़ा हुआ था। 

इस प्रकार मराठा साम्राज्य अंग्रेजों के पूर्ण नियंत्रण में आ गया था और अंग्रेजों का भारत में एक और बड़े साम्राज्य पर कब्ज़ा हो चुका था। 

Anglo Maratha war in Hindi – आंग्ल मराठा युद्ध

हम आशा करते हैं कि हमारे द्वारा दी गई Anglo Maratha war in Hindi – आंग्ल मराठा युद्ध के बारे में  जानकारी आपके लिए बहुत उपयोगी होगी और आप इससे बहुत लाभ उठाएंगे। हम आपके बेहतर भविष्य की कामना करते हैं और आपका हर सपना सच हो।

धन्यवाद।

बार बार पूछे जाने वाले प्रश्न

आंग्ल मराठा युद्ध के क्या कारण थे?

मराठा साम्राज्य में आंतरिक कलह और सत्ता का मोह और बार-बार सत्ता के लिए मराठाओं द्वारा अंग्रेजी कंपनी से मदद माँगना।

अंग्रेज और मराठों के बीच कितने युद्ध हुए?

अंग्रेजों की नज़र मराठा साम्राज्य की कमज़ोर हो रही सत्ता पर भी थी और तब अंग्रेजों और मराठों में भी संघर्ष देखने को मिला और इस क्रम में 3 आंग्ल मराठा युद्ध हुए।

बसीन कहाँ है?

साल्सेट और बसीन, इन क्षेत्रों में वर्तमान के मुंबई और ठाणे जैसे क्षेत्र आते हैं।

आंग्ल मराठा युद्ध के क्या परिणाम हुए?

अंग्रेजी कंपनी के द्वारा पेशवा के पद को ख़त्म कर दिया गया था, अंग्रेजी कंपनी के द्वारा छत्रपति शिवाजी महाराज के वंशज प्रताप सिंह को सतारा का क्षेत्र दे दिया गया था, इस प्रकार मराठा साम्राज्य अंग्रेजों के पूर्ण नियंत्रण में आ गया था और अंग्रेजों का भारत में एक और बड़े साम्राज्य पर कब्ज़ा हो चुका था।

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