history of sher shah suri in hindi

history of sher shah suri in hindi – प्रारम्भिक जीवन, प्राम्भिक संघर्ष, साम्राज्य विस्तार

history of sher shah suri in hindi – भारत के मध्यकालीन इतिहास में सबसे लंबे समय तक किसी वंश ने राज किया तो वो वंश था मुगल वंश, इस वंश ने करीब 300 सालो तक भारत में अपना राज जमाए रखा था।

लेकिन हम आपको बता दे की इस मुगल वंश की नींव भी इसके प्राम्भिक शाशन काल में हिली थी, जिसमे लगभग भारत से मुगलों का नामोनिशान तक मिट ही गया था।

एक शाशक ऐसा भी था जिसने मुगलों को पूरी तरह से पछाड़ दिया था, और उन्हें भारत से खदेड़ कर बहार फेक दिया, पर दुर्भाग्यवश उसका शाशन काल लम्बे समय तक नहीं चल सका, और उस शाशक का नाम है शेर शाह सूरी, आइये आज शेर शाह सूरी के बारे में विस्तार से जाने।

शेरशाह सूरी का प्रारम्भिक जीवन

history of sher shah suri in hindi – शेर शाह सूरी के जन्म की तारीख को लेकर इतिहासकारों में मतभेद है, कुछ इतिहासकारों का मानना ​​है कि उनका जन्म 1472 को हुआ था, तो कुछ मानते है की उनका जन्म 1486 को हुआ था। उनके पिता का नाम हसन खां था, और उनके बचपन का नाम फरीद खां था।

उनके पिता हसन खां को दिल्ली सल्तनत काल के लोदी वंश के सुल्तान, सिकन्दर लोदी द्वारा बिहार के सासाराम की जागीर मिली थी। उनके पिता की अनेक पत्नियाँ थी, और उनसे पुत्र भी थे। बचपन से परिवार में सौतेला व्यव्हार , और आपसी कलह के कारण शेर शाह अपने प्रारंभिक जीवन में पिता से दूर चले गए।

कुछ दिनों तक अपने पिता की जागीर सँभालने के बाद दक्षिण बिहार के सूबेदार बहार खां लोहानी के यहाँ नौकरी करने लगे।

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शेर खां की उपाधि

एक बार जब बहार खां लोहानी और शेर शाह जंगल में भ्रमण करने के लिए निकले तो उन्हें जंगल में शेर का सामना करना पड़ा था, तो शेर शाह ने अपनी तलवार से उस शेर की हत्या कर दी थी, उनकी ये बहादुरी देख के बाहर खां लोहानी ने उन्हें शेर खां की उपाधि दी थी।

मुगलों की सेना में जुड़ना

बहार खां लोहानी ने अपने आप को स्वतंत्र शाशक घोषित कर दिया और अपने आप को महमूद शाह के नाम से बुलाने लगा, और उसने शेर शाह की बहादुरी को देख के उसे अपने यहाँ एक अहम पद पर भी रख दिया।

लेकिन ये सब बहार खां लोहानी के यहाँ पहले से ही काम कर रहे लोगो को पसंद नहीं आया और उन्होंने बहार खां के कान भरने शुरू कर दिया।

यह देख के शेर शाह वहां से भाग खड़े हुए और, उस समय दिल्ली में राज कर रहे मुगल बादशाह बाबर की सेना में जुड़ गए, और अपने पराक्रम से वहां भी एक बड़े पद पर अपना स्थान बना लिया और मुगल सेना की युद्ध शैली जैसे तोपे, बारूद का इस्तेमाल जैसी चीजों को बारीकी से सीखा और अपने आप को उनकी युद्ध शैली में निपूर्ण किया।

लेकिन वहां भी वह ज्यादा दिनों तक नहीं टिक पाये क्यूंकि बाबर को उनपे थोड़ा संदेह हो गया था, और शेर शाह वहां से भी भाग खड़े हुए और दुबारा बहार खां लोहानी के पास चले आये।

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बहार खां ने उन्हें अपने पास वापस रख लिया और अपने पुत्र जलाल खां का संगरक्षक बना दिया, कुछ समय बाद बाहर खां की मृत्यु हो गई, और शेर शाह ने बहार खां की विधवा दूदू बेगम की साथ विवाह कर लिया, और वहा का शाशन सँभालने लगे।

लेकिन वहां के अफ़ग़ान सरदारों को ये रास नहीं आया, और जलाल खां और वहां के अफ़ग़ान सरदार वहां से भाग कर बंगाल भाग खड़े हुए, और इसकी वजह से शेर शाह दक्षिण बिहार के इकलौते शाशक बन गए।

1530 में उन्होंने एक और विधवा से विवाह करा, उस समय चुनार के किलेदार ताज खां की किसी कारण वश मृत्यु हो गयी थी, तो शेर शाह ने उनकी पत्नी लाड मालिका से विवाह करके चुनार का किला भी अपने आधीन कर लिया।

शेर शाह के शाशक बनने के प्राम्भिक संघर्ष और मुगलो को भारत से बाहर खदेड़ना

1532 में महमूद लोदी और हुमायूँ की बीच दोहरिया का युद्ध लड़ा गया और उस युद्ध में शेर शाह ने महमूद लोदी का साथ दिया था लेकिन हुमायूँ ने महमूद लोदी को पछाड़ दिया और महमूद लोदी युद्ध से भाग खड़ा हुआ और शेर शाह वापस अपने चुनार के किले में लौट आया।

लेकिन हुमायूँ ने उसका पीछा किया और उसके चुनार का किले के बाहर घेराबंदी कर दी, लेकिन बाद में उन दोनों के बीच संधि हो गयी, उसके बाद 1534 में सूरजगढ़ के युद्ध में शेर शाह ने बंगाल को भी जीत लिया।

1539- जिस समय शेर शाह ने बंगाल को जीता उस समय, हुमायूँ गुजरात अभियान के लिए निकला हुआ था, शेर शाह की बंगाल विजय की खबर सुनके उसने 1539 में उनसे चौसा का युद्ध लड़ा और उसमे हुमायूँ की हार हुई।

इसी युद्ध में शेर शाह ने अपने आप को “शेर शाह” की उपाधि दी थी।

1540- हुमायूँ ने बदला लेने के लिए दुबारा शेर शाह से कन्नौज का युद्ध या उसे बिलग्राम का युद्ध भी कहते है, वह युद्ध लड़ा और शेर शाह ने उसे दुबारा अपनी युद्ध कौशल से हरा दिया और, इससे हुमायूँ भाग खड़ा हुआ और वह सिंध की तरफ भाग गया।

इस कन्नौज के युद्ध के बाद से ही मुगल भारत छोड़कर भाग गए और इस युद्ध के बाद से ही सूर वंश” की स्थापना हुई।

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शेरशाह सूरी का साम्राज्य विस्तार

1543 में शेर शाह ने रायसीन का युद्ध राजपूत राजा पूरनमल के साथ लड़ा, उन दोनों की संधि हुई लेकिन शेर शाह ने उन्हें धोखा देकर उनको मार गिराया, और कब्ज़ा कर लिया।

1544 में मारवाड़ के क्षेत्र के राजपूत राजा मालदेव को भी धोखे से ही हराया, और उनके सरदार जयता और कुम्पा को युद्ध में हरा दिया, लेकिन इस युद्ध में शेर शाह को बहुत हानि हुई और इस युद्ध के बाद शेर शाह ने एक वाक्य कहा जो इस प्रकार है:

“मुट्ठी भर बाजरे के लिए मैं हिंदुस्तान के साम्राज्य को प्राय: खो चूका था”

शेर शाह सूरी की मृत्यु

दुर्भाग्यवश 1545 में बुंदेलखंड के राजा कीरत सिंह के विरुद्ध कलिंजर युद्ध में किले में चढाई करते समय उन्होंने किले की दीवारों को बारूद से उड़ाने का हुक्म दिया, और बारूद फटने से वह स्वयं ही जख्मी हो गए और 22 मई 1545 को उनकी मृत्यु हुई और उक्का नामक आग्नेयास्त्र से उनकी मृत्यु हुई थी।

इसी तरह ये उनकी अंतिम लड़ाई थी और उन्हें शाशन करने का बहुत कम वक़्त मिला।

उन्होंने अपनी मृत्यु से पहले ही अपना बनवाना शुरू कर दिया था और यह मकबरा पठान वास्तु कला से निर्मित है, शेर शाह सूरी की मृत्यु के समय इस मकबरे का निर्माण कार्य पूरा नहीं हो पाया था, बाद में उनके पुत्र इस्लाम शाह ने मकबरे का निर्माण कार्य पूरा करवाया था।

मकबरे के अंदर इस्लाम शाह के द्वारा एक शिलालेख भी बनवाया गया, जिसमे लिखा हुआ है की ये मकबरा शेर शाह सूरी की मृत्यु के तीन महीने बाद यानि अगस्त को पूरा हुआ है।

उन्होंने खुद से पहले अपने मकबरे से थोड़ी ही दूर अपने दरबान का मकबरा बनवाया था।

शेर शाह सूरी ने अपने पिता हसन खां सूरी का का भी मकबरा बनवाया था, जिसे “सूखा रोजा” कहा जाता है।

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शेर शाह सूरी का मकबरा, जो उन्होंने अपनी मृत्यु से पूर्व ही बनाना शुरू कर दिया था

शेर शाह सूरी के बाद उनका वंश और मुगलो का दुबारा भारत आना.

शेर शाह सूरी ने मरने से पूर्व अपने बड़े पुत्र आदिल खां को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया, लेकिन उसके छोटे पुत्र जलाल खां ने आदिल खां से संघर्ष किया और खुद सारी कमान अपने हाथों में ली ली, और आदिल खां को भागना पड़ा।

जलाल खां ने अपने आप को इस्लाम शाह से बुलाना शुरू कर दिया, बाद में उसकी बिमारी के कारण मृत्यु हो गई, और उसके 12 वर्षीय पुत्र फ़िरोज़शाह को शाशक बनाया गया, परन्तु फिरोज शाह के मामा आदिल शाह ने उसकी हत्या कर, खुद शाशक बन गया।

सूर वंश बहुत भागो में बट गया और बहुत कमजोर भी हो गया इसी का फायदा उठाकर, हुमायूँ वापस आया और 1555 में सरहिंद के युद्ध में सूर वंश की समाप्ति कर, मुगल वंश को दिल्ली में दुबारा स्थापित कर दिया।

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इसी तरह मुगल वंश भारत में दुबारा स्थापित हुआ।

हम आशा करते हैं कि हमारे द्वारा दी गई history of sher shah suri in hindi के बारे में जानकारी आपके लिए बहुत उपयोगी होगी और आप इससे बहुत लाभ उठाएंगे। हम आपके बेहतर भविष्य की कामना करते हैं और आपका हर सपना सच हो।

धन्यवाद।


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