History of Uttarakhand in Hindi – दोस्तों, आज हम प्यारे उत्तराखंड के बारे में जानेंगे, जिसे हम देवभूमि के नाम से भी संबोधित करते हैं, आज हम उत्तराखंड के इतिहास के बारे में विस्तार से पढ़ेंगे।
इस आर्टिकल में हम उत्तराखंड के प्रागैतिहासिक काल से लेकर उत्तराखंड की स्थापना तक के बारे में जानेंगे, जिसमे हम कुणिंद वंश, कार्तिकेयपुर राजवंश, चंद वंश, परमार वंश, टिहरी रियासत, ब्रिटिश शासन, गोरखा शासन, उत्तराखंड पृथक आंदोलन आदि के बारे में जानेंगे।
चलिए दोस्तों, उत्तराखंड के इतिहास के बारे में जाने:
प्रागैतिहासिक काल ( उत्तराखंड का इतिहास )
दोस्तों, इस काल की जानकारी पुरातात्विक स्थलों या पुरातात्विक तत्वों से प्राप्त होती है, जिससे हमें यह पता लग पाता है की इस काल में भी मानव की भूमिका थी।
पुरातात्विक स्थल या पुरातात्विक स्त्रोत
ये पुरातात्विक स्थल या पुरातात्विक तत्व, मृदभांड, शैलचित्र, गुफा, कंकाल आदि हो सकते हैं।
देवीधुरा, चम्पावत, उत्तराखंड से हेनवुड नामक व्यक्ति ने 1856 में उत्तराखंड के पुरातात्विक स्त्रोतों की खोज की थी, इसलिए उत्तराखंड के पुरातात्विक स्त्रोतों की खोज का श्रेय हेनवुड को जाता है, उसने देवीधुरा से महापाषाण कालीन पुरावशेषों की खोज की थी।
पिथौरागढ़, चमोली, उत्तरकाशी, अलमोड़ा प्रमुख पुरातात्विक स्थल है, जहाँ उत्तराखंड के पुरातात्विक स्त्रोत की खोज हुई है।
1952-1953 में यज्ञदत्त शर्मा नामक व्यक्ति ने हरिद्वार के बहादराबाद से पाषाण कालीन अवशेषों की खोज की थी।
दोस्तों, अब हम इन स्थलों के बारे में जानेंगे की वहाँ से कौन-कौन से पुरातात्विक स्त्रोत की खोज हुई है:
पिथौरागढ़
पिथौरागढ़ के बनकोट क्षेत्र से 8 ताम्र मानवाकृति प्राप्त हुई है, इसकी खोज 1989 में हुई थी।
चमोली
1. गवारख्या गुफा
इस गुफा की खोज का श्रेय राकेश भट्ट को जाता है, यह गुफा चमोली जिले के डुगरी गाँव में अलकनंदा नदी के किनारे स्थित है।
इस गुफा से लोमड़ी, भेड़, बारहसिंगा, मानव के 41 रंगीन चित्र प्राप्त हुए हैं, जिसमे से 8 चित्र मानव के हैं।
2. मलारी गाँव
यह गाँव चमोली जिले के धौली गंगा घाटी में स्थित है।
इस गाँव से नर कंकाल, मिट्टी के बर्तन, 5.2 किलो सोने का मुखावरण, काले व धूसर रंग के चित्रित मृदभांड प्राप्त हुए हैं।
2001 – 2002 में गढ़वाल विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं द्वारा इस गाँव में इन पुरातात्विक स्त्रोतों की खोज की गई थी, इस गाँव में दो बार खोज करी गई है, पहली बार यहाँ 1983 में खोज करी गई थी।
1956 में शिव प्रसाद डबराल द्वारा यहाँ शवाधान ( वह जगह जहां शवों को रखा / दफनाया जाता है ) की खोज करी गई थी।
राहुल सांकृत्यायन ने इस शवाधान को खस जाती का बताया था।
3. किमनी गाँव
यह गाँव चमोली जिले के थराली के पास स्थित है।
इस गाँव में पशुओं के शैल चित्र, हलके सफ़ेद रंग के चित्रित हथियार प्राप्त हुए हैं।
उत्तरकाशी
उत्तरकाशी के हुड़ली क्षेत्र से नीले रंग के शैल चित्र प्राप्त हुए हैं, यह क्षेत्र उत्तरकाशी के यमुना घाटी पर स्थित है।
अलमोड़ा
1. लाखू उड़्यार ( लाखू गुफा )
1968 में इस गुफा को महेश्वर प्रसाद जोशी द्वारा खोजा गया था, यह गुफा अलमोड़ा जिले के बाड़ेछीना के पास दलबैंड में सुयाल नदी के पास स्थित है।
इस गुफा में पशुओं व मानव के रंगीन चित्र प्राप्त हुए हैं।
इस गुफा के शैल चित्रों की तुलना मध्य प्रदेश में भीमबेटका गुफा में प्राप्त हुए शैल चित्रों से की जाती है।
इसके साथ ही यहाँ नागफनी के आकार का भव्य शिलाश्रय भी प्राप्त हुआ है और सामूहिक नृत्य करती हुई मंडली के चित्र भी प्राप्त हुए हैं।


2. कसार देवी मंदिर
यह मंदिर अलमोड़ा जिले से 8 किलोमीटर की दूरी पर कश्यप पहाड़ी की चोटी पर स्थित है और यह मंदिर दूसरी शताब्दी से यहाँ स्थापित है।
यहाँ से 14 नृतकों का सुंदर चित्रण प्राप्त हुआ है।
3. फलसीमा
यह स्थान अलमोड़ा जिले के हवालबाग तहसील में स्थित है।
यहाँ से नृत्य मुद्रा और योग मुद्रा वाली मानव आकृतियाँ प्राप्त हुई है और यहाँ दो चट्टानें प्राप्त हुई है, जिसमें कपमार्क्स प्राप्त हुए हैं।
4. जाखन देवी मंदिर
यह मंदिर अलमोड़ा जिले के धरनौला में स्थित है।
इस मंदिर से यक्षों के निवास का पुष्टिकरण मिलता है।
5. पेटशाल और फड़कानौली
पेटशाल से 1989 में कत्थई रंग की मानव आकृतियाँ प्राप्त हुई है और 1985 में फड़कानौली की खोज हुई थी।
इन दोनों स्थानों की खोज यशोधर मठपाल ने की थी और यह दोनों स्थान सुयाल नदी के पास ही स्थित है।
6. ल्वेथाप
यहाँ से लाल रंग के चित्रित शैलाश्रय प्राप्त हुए हैं।
कालसी शिलालेख
यह स्थान देहरादून के उत्तर में टोंस और यमुना नदी के संगम में स्थित है।
257 इसा पूर्व में सम्राट अशोक द्वारा एक अभिलेख कालसी में स्थापित करवाया गया था।
यह अभिलेख पालि भाषा और ब्राह्मी लिपि में लिखा गया था।
इस अभिलेख में अशोक द्वारा यह घोषणा की गई थी की “उसने अपने राज्य में हर स्थान में मनुष्यों और पशुओं के लिए चिकित्सा की व्यवस्था कर दी है और इसके साथ इस अभिलेख में लोगों से हिंसा को त्यागने और अहिंसा को अपनाने की बात कही गई थी“।
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साहित्यिक स्त्रोत
दोस्तों, साहित्यिक स्त्रोतों में सबसे प्रमुख धार्मिक ग्रंथ अभिलेख है, तो चलिए दोस्तों, इन साहित्यिक स्त्रोतों के बारे में जानें और देखें की इनमें उत्तराखंड को लेकर क्या बताया गया है:
वेद
जैसा की हमें पता है की वेद चार प्रकार के होते हैं ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद, इनमे सबसे पुराना ऋग्वेद और सबसे नवीनतम अथर्ववेद है।
उत्तराखंड का सबसे ज्यादा उल्लेख हमें ऋग्वेद से प्राप्त होता है और इसमें उत्तराखंड को देवभूमि व मनीषियों की पूर्ण भूमि कहा गया है।
स्कंद पुराण
स्कंद पुराण में हिमालय के 5 खंडों का उल्लेख है, जिसमे कश्मीर, जालंधर, केदारखंड, मानसखंड और नेपाल के बारे में उल्लेख मिलता है।
उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र को स्कंद पुराण में केदारखंड और कुमाऊँ क्षेत्र को मानसखंड कहा गया है।
स्कंद पुराण में कुमाऊँ क्षेत्र के लिए कुर्मांचल शब्द का प्रयोग किया गया है।
ब्रह्मपुराण और वायुपुराण
ब्रह्मपुराण और वायुपुराण में कुमाऊँ क्षेत्र में गंधर्व, यक्ष, किन्नर, किरात, नाग आदि जातियों के निवास का उल्लेख किया गया है।
दोस्तों, अब हम उत्तराखंड के इतिहास में रहे राजवंशों के बारे में जानेंगे, जिन्होंने उत्तराखंड पर राज किया:
कुणिंद या कुलिन्द वंश ( 1 शताब्दी – 3/4 शताब्दी )
कुणिंद वंश की जानकारी हमे बहुत सारे स्त्रोतों से मिलती है जैसे पुरातात्विक और साहित्यिक स्त्रोत।

कुनिन्द वंश को उत्तराखंड में राज करने वाली पहली रजनीतिक शक्ति माना जाता है।
उत्तराखंड में तीसरी से चौथी शताब्दी तक कुणिंद वंश और उनके शासकों का शासन रहा था।
अशोक के शिलालेख में कुणिंद वंश के क्षेत्र को अपरांत कहा गया है और यहाँ के लोगो को पुलिंद कहा गया है।
इस वंश की प्रारंभिक राजधानी कालकूट थी और इस वंश का सबसे प्रतापी और शक्तिशाली राजा अमोघभूति थे, इसके साथ वह कुणिंद वंश के शुरुवाती राजाओं में से थे।
कालसी शिलालेख के अनुसार, कुणिंद वंश मौर्यों के अधीन हुआ करते थे।
कुणिंद राजवंश के शासक, इतिहास में कुणिंद वंश के शासकों को तीन काल के चरणों में विभाजित किया गया है।
पहला काल का चरण | दूसरे काल का चरण | तीसरे काल का चरण |
सुबाहु | इस चरण में शासकों की जानकारी नहीं है | विश्वदेव |
अग्रराज | ||
धनभूति I | ||
धनभूति II | ||
बलभूतु | ||
अमोघभूति | ||
शिवदत्त | ||
हरिदत्त | ||
शिवपालित | ||
छत्रेश्वर |
कुणिंद मुद्राओं के प्रकार
मध्य हिमालय से प्राप्त हुई कुणिंद कालीन मुद्राओं में उनके कालक्रम के अनुसार तीन प्रकार की मुद्राएं हैं:
1. अमोघभूति प्रकार
2. अल्मोड़ा प्रकार
3. छत्रेश्वर प्रकार
इन मुद्राओं की लिपि, धातु, लेख और इनमे मिले चित्र कुछ इस प्रकार है:
अमोघभूति प्रकार
लिपि – ब्राम्ही और खरोष्ठी
धातु – तांबा ( 9.5 से 252 ग्रेन ) और चांदी ( वज़न 31 से 38 ग्रेन )
लेख – रज कुणिन्दस अमोघभूतिस महाराजस
मुद्राओं में चित्र – नारी, मृग, स्वास्तिक, नदी, नाग
इन मुद्राओं में हिन्द यूनानी राजाओं की रजत मुद्रा का प्रभाव था।
यह मुद्रा तीनों प्रकार की मुद्राओं में सर्वप्राचीन मानी जाती है, और इस मुद्रा के अग्र भाग ( आगे का भाग ) में एक द्विहस्ता देवी दिखाई देती हैं और उनके दाहिने तरफ उनको देखता हुआ मृग दिखाई देता है।

अल्मोड़ा प्रकार
लिपि – ब्राम्ही
धातु – तांबा ( 119 से 327 ग्रेन )
मुद्राओं में चित्र – वृत, कुबड़ा बैल, बेदी, नंदीपात , मानव मूर्ति, नाग
इस प्रकार की मुद्राएं सिर्फ उत्तराखंड के हिमालय क्षेत्र में मिलती है और इनकी अधिकांश मुद्राएं अलमोड़ा जिले से प्राप्त हुई हैं।
इन मुद्राओं में 8 राजाओं के नाम देखने को मिलते हैं।
इनमें 4 राजाओं के नाम वाली 4 अलग-अलग मुद्राएं अलमोड़ा से मिली है, जिनमे चार राजाओं के नाम है शिवदत्त, शिवपालित, हरिदत्त, मगभत, यह मुद्राएं अब लंदन के ब्रिटिश संग्रहालय में है।
महेश्वर जोशी द्वारा एक ताम्र मुद्रा जिसमे राजा शिवरक्षित का नाम है ब्रिटिश संग्रहालय से ही प्राप्त हुई थी।
बाद में कत्यूरी घाटी, अलमोड़ा से 54 मुद्राएं प्राप्त हुई, जिसमें से एक राजा शिवदत्त, एक राजा आसेक और शेष मुद्रा राजा गोमित्र की है।
पंडित लाल गुप्ता द्वारा गढ़वाल क्षेत्र से प्राप्त राजा विजयभूति की एक ताम्र मुद्रा का विवरण प्रकाशित किया गया है।
इस प्रकार इन 8 राजाओं के नाम वाली मुद्राएं अल्मोड़ा प्रकार की मुद्राओं के अंतर्गत आती है, जिनमें 6 अल्मोड़ा से, 1 गढ़वाल से और 1 ब्रिटिश संग्रहालय से प्राप्त हुई हैं।
छत्रेश्वर प्रकार
लिपि – ब्राम्ही
धातु – तांबा
लेख – भागवत छत्रेश्वर महामना
मुद्राओं में चित्र – त्रिशूल धारण किये हुए शिव भगवान
इस प्रकार की मुद्रा पर कुषाण प्रभाव देखने को मिलता है और इन प्रकार की मुद्राओं को शिव प्रकार की मुद्राएं भी कहा जाता है।
कुणिंदो की मुद्राओं में अलग-अलग प्रकार के धार्मिक चिन्ह भी प्राप्त हुए थे, यह चिन्ह शैव और बौद्ध धर्म संबंधित थे।
शक वंश का शासन
शकों ने कुणिंदो को पराजित करके इनके मैदानी क्षेत्रों पर अपना अधिकार कर लिया था।
कुमाऊं क्षेत्र में स्थित सूर्य मंदिर एवं सूर्य मूर्तियां शकों के अस्तित्व और उनके यहाँ पर अधिकार का पुष्टिकरण करती हैं और इनमे सबसे ज्यादा प्रसिद्ध अलमोड़ा का कटारमल सूर्य मंदिर है।
इसके साथ शक संवत की जानकारी भी यहीं से प्राप्त होती है।
कुषाण वंश का शासन
शकों के आने के बाद कुषाणों ने भी राज्य के तराई क्षेत्रों पर अपना अधिकार कर लिया था।
कुषाणों के बारे में जानकारी या कुषाण कालीन अवशेष जिनसे हमें यह पता चला की इन क्षेत्रों में कुषाणों ने भी अधिकार किया था, यह वे प्रमुख स्थान हैं जहाँ से हमे कुषाण कालीन अवशेष प्राप्त हुए हैं।
1. वीरभद्र ( ऋषिकेश )
2. मोरध्वज ( कोटद्वार के पास )
3. गोविषाण ( काशीपुर )
गोविषाण का उल्लेख करते हुए कान्ति प्रसाद नौटियाल द्वारा अपनी पुस्तक “आर्केलॉजी ऑफ़ कुमॉऊ” में उन्होंने बताया की गोविषाण कुषाणों का प्रमुख नगर था।
कनिष्क प्रथम, जो कुषाण वंश के प्रतापी राजाओं में से एक थे उनकी नाड़क स्वर्ण मुद्राएं काशीपुर से प्राप्त हुई हैं, 1972 में 44 स्वर्ण मुद्राएं मुनि की रेती से प्राप्त हुई हैं, 7 कुषाण स्वर्ण मुद्राएं खटीमा के पास कंचनपुरी से प्राप्त हुई हैं।
दोस्तों, उत्तराखंड के इतिहास में कुणिंद वंश के समकालीन एक और वंश का नाम आता है जिसका नाम यौधेय वंश है।
यौधेय वंश
यौधेय वंश को कुणिंद वंश के समकालीन ( एक समय पर घटित ) माना जाता है।
इनकी जानकारी हमें इस वंश की मुद्राओं से प्राप्त होती है, जो जौनसार-बाबर ( देहरादून ), और कालों-डांडा ( पौड़ी ) से प्राप्त हुई है।
राजा शीलवर्मन द्वारा बाड़वाला यज्ञ वेदिका का निर्माण करवाया गया और बाड़वाला विकासनगर, देहरादून के पास स्थित है।
कुछ इतिहासकार के अनुसार ये कुणिंद वंश के थे और कुछ के अनुसार ये यौधेय वंश के हैं।
राजा शीलवर्मन ने तीसरी सदी में एक अश्वमेघ यज्ञ किया था, उसके दौरान उन्होंने इस बाड़वाला यज्ञ वेदिका का निर्माण करवाया था।
दोस्तों, जैसा की हमने आपको बताया की शकों ने कुणिंदो के मैदानी क्षेत्रों और कुषाणों ने कुणिंदो के तराई क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया था, परंतु उन्होंने कुणिंदो को पूर्ण रूप से नहीं हराया था और कुणिंद अब भी काफी क्षेत्रों पर शासन कर रहे थे।
समय के साथ साथ कुणिंद शासक अपनी शक्तियों को बढ़ाते है और शकों व कुषाणों को पराजित कर उन्हें उनके क्षेत्रों से भगा देते हैं।
शकों व कुषाणों को पराजित करने के बाद कुणिंद उन क्षेत्रों में वापस जाते हैं और कर्तृपुर नामक एक नए राज्य की स्थापना करते हैं।
कर्तृपुर राज्य
कुणिंद शासक कर्तृपुर राज्य की स्थापना करते हैं और इस राज्य के अंतर्गत रुहेलखंड, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड का उत्तरी भाग आता था।
अधिकांश इतिहासकारों के अनुसार कर्तृपुर राज्य की स्थापना कुणिंदो द्वारा ही करी गई थी।
दोस्तों, गुप्त साम्राज्य के राजा समुद्रगुप्त के दरबारी कवि हरिषेण द्वारा रचित प्रयाग प्रशस्ति में कर्तृपुर राज्य को गुप्त साम्राज्य की उत्तरी सीमा पर स्थित एक अधीन राज्य बताया गया है।
प्रयाग प्रशस्ति राजा समुद्रगुप्त के दरबारी कवि हरिषेण ने लिखी थी।
नाग वंश का शासन ( 5वी – 6वी शताब्दी )
5वी शताब्दी यानी 500 ईस्वी के आसपास नागों ने कुणिंद राजवंश को हराकर उत्तराखंड में अपनी सत्ता स्थापित कर ली थी।
इनकी जानकारी हमें गोपेश्वर त्रिशूल लेख से प्राप्त होती है, जिसमें नाग वंश के 4 राजाओं के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।
गोपेश्वर त्रिशूल लेख से प्राप्त 4 राजाओं के नाम:
1. स्कंदनाग
2. विभुनाग
3. अंशुनाग
4. गणपति नाग
गोपेश्वर त्रिशूल लेख की लिपि ब्राह्मी है।
नागों के पतन के समय गणपति नाग शासक थे।
मौखरी वंश का शासन ( 6वी शताब्दी )
6वी शताब्दी में कन्नौज के मौखरी राजवंश ने नागों को पराजित करके उत्तराखंड पर अपना अधिकार कर लिया था।
गुप्त साम्राज्य या गुप्त वंश के पतन के बाद मौखरी वंश की स्थापना हुई थी और इनकी राजधानी कन्नौज थी।
कन्नौज का प्रथम मौखरी शासक हरिवर्मा ( 520 ईस्वी ) था और मौखरी वंश का आखरी शासक ग्रहवर्मा था।
राजा हर्षवर्धन के दरबारी कवि और लेखक बाणभट्ट द्वारा रचित हर्षचरित में उन्होंने बताया है की राजा हर्षवर्धन ने कन्नौज पर आक्रमण करके ग्रहवर्मा की हत्या कर दी थी, ग्रहवर्मा रिश्ते में राजा हर्षवर्धन की बहन के पति थे।
इसके बाद उत्तराखंड में राजा हर्षवर्धन का राज स्थापित हो गया था।
हर्षवर्धन का शासन काल ( 606 – 647 ईस्वी )
राजा हर्षवर्धन के शासन के बारे में जानकारी बाणभट्ट द्वारा रचित हर्षचरित में मिलता है।
राजा हर्षवर्धन के समय एक ह्वेनसांग नामक एक चीनी यात्री भारत आया था जो की एक चीनी बौद्ध भिक्षु था।
ह्वेनसांग ने उत्तराखंड को लेकर कई नाम दिए जैसे इसने उत्तराखंड को पो-ली-हि-मो-पु-लो ( ब्रह्मपुर ) कहकर संबोधित किया, गंगा नदी को महाभद्रा कहकर संबोधित किया, हरिद्वार के लिए इसने मो-यु-लो नामक शब्द का प्रयोग किया था।
647 ईस्वी तक राज करने के बाद राजा हर्षवर्धन की मृत्यु हो जाती है और उनका कोई उत्तराधिकारी भी नहीं होता जिसकी वजह से उनका वंश समाप्त हो जाता है और राज्य बिखर जाता है और कई नए वंश उत्पन्न होते हैं।
कार्तिकेयपुर राजवंश / कत्यूरी वंश ( 700 ईस्वी – लगभग 1050 ईस्वी )
कार्तिकेयपुर राजवंश की स्थापना 700 ईस्वी में हुई थी।
इस राजवंश को उत्तराखंड पर राज करने वाला पहला ऐतिहासिक राजवंश माना जाता है।
इस वंश ने अपने पहले 300 वर्ष तक जोशीमठ, चमोली को अपनी राजधानी के रूप में रखा और इस 300 वर्ष के क्रम में यहाँ 14 राजाओं ने शासन किया था।
बाद में इन्होंने अपनी राजधानी बैजनाथ, बागेश्वर ( कत्यूरी घाटी ) कार्तिकेयपुर नामक स्थान में स्थापित करी, बैजनाथ को ही प्राचीनकाल में कार्तिकेयपुर कहा जाता था।
अभिलेखों के अनुसार कार्तिकेयपुर राजवंश के संस्थापक बसंतदेव थे, परंतु प्राचीन काल से लोगों का कहना है की इस वंश के संस्थापक वासुदेव थे।
कुछ इतिहासकारों के अनुसार बसंतदेव और वासुदेव दोनों एक ही व्यक्ति थे।
बसंतदेव के बारे में जानकारी हमें बागेश्वर लेख से प्राप्त होती है और इन्होंने “परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर” की उपाधि प्राप्त की थी।
एक नरसिंह मंदिर इनके द्वारा जोशीमठ में बनवाया गया था।
राजा बसंतदेव ने बागेश्वर के पास एक मंदिर को स्वर्णेश्वर नामक गाँव दान में दिया था।
कार्तिकेयपुर राजवंश या कत्यूरी वंश के बारे में हमें बागेश्वर, पांडुकेश्वर, बैजनाथ और कंडारा आदि स्थानों से प्राप्त हुए ताम्र लेखों से इस राजवंश की जानकारी प्राप्त होती है।
इस वंश के काल को मूर्तिकला और वास्तुकला में उत्तराखंड का स्वर्णयुग कहा जाता है।
कार्तिकेयपुर राजवंश के देवता कार्तिकेय थे।
इतिहासकार लक्ष्मीदत्त जोशी के अनुसार कार्तिकेयपुर राजवंश के शासक मूल रूप से अयोध्या से संबंधित थे और इतिहासकार बद्रीदत्त पांडे के अनुसार कार्तिकेयपुर राजवंश के शासक सूर्यवंशी थे।
दोस्तों, अब हम कार्तिकेयपुर / कत्यूरी राजाओं के बारे में जानेंगे, इस वंश की वंशावली के अंदर भी अलग-अलग वंश है, जैसे राजाओं के उनके अपने-अपने परिवारो को अलग-अलग वंश का नाम दिया गया है, परंतु यह सारे कार्तिकेयपुर वंश या कत्यूरी वंश के अंतर्गत ही आते हैं।
1. बसंतदेव
2. खर्परदेव ( खर्परदेव वंश )
3. कल्याण राज ( खर्परदेव वंश )
4. त्रिभुवन राज ( खर्परदेव वंश )
5. निम्बर देव ( निम्बर वंश )
6. इष्टगण ( निम्बर वंश )
7. ललितशूर देव ( निम्बर वंश )
8. भूदेव ( निम्बर वंश )
9. इच्छर देव ( सलोड़ादित्य वंश )
10. देसतदेव ( सलोड़ादित्य वंश )
11. पदमदेव ( सलोड़ादित्य वंश )
12. सुमिक्षराजदेव ( सलोड़ादित्य वंश )
13. धाम देव
खर्परदेव वंश
इस वंश के प्रथम राजा खर्परदेव होते हैं।
इस वंश के बारे में जानकारी बागेश्वर लेख से मिलती है।
राजा खर्परदेव कन्नौज के राजा यशोवर्मन के समकालीन थे।
इनके पुत्र का नाम कल्याण राज था।
बागेश्वर लेख में बताया गया है की इस वंश के आखिरी राजा त्रिभुवन राज थे।
निम्बर वंश
इस वंश के प्रथम राजा निम्बर देव होते हैं।
निम्बर वंश के बारे में सबसे ज्यादा जानकारी पांडुकेश्वर, जोशीमठ से प्राप्त हुए ताम्र पत्रों से मिलती है।
राजा निम्बर देव शैव धर्म को मानते थे और इन्हें शत्रुहन्ता भी कहा जाता था।
राजा निम्बर देव के बाद उनके पुत्र इष्टगण राजा बनते हैं और इन्होंने समस्त उत्तराखंड को एक सूत्र में बाँधने का प्रयास किया और इनको इस कार्य का श्रेय भी दिया जाता है।
राजा इष्टगण ने जागेश्वर में नवदुर्गा, महेशमर्दिनी, लकुलीश, नटराज मंदिरों का निर्माण करवाया था।
इनके बाद इनके पुत्र ललितशूर देव राजा बनते हैं, इन्हें निम्बर वंश में सबसे प्रतापी राजा माना जाता है, और सबसे ज्यादा ताम्र पत्र ललितशूर देव से ही संबंधित प्राप्त हुए हैं।
इनकी दो पत्नियां थी लया / लच्छा देवी और समा देवी, और समा देवी ने बैजनाथ में नारायण मंदिर का निर्माण करवाया था।
पांडुकेश्वर के प्राप्त ताम्र पत्र में ललितशूर देव को कालिकलंक पंक में मग्र धरती के उद्धार के लिए बराहवतार बताया गया है।
ललितशूर देव के बाद उनके पुत्र भूदेव राजा बनते हैं और इन्होंने बैजनाथ मंदिर का निर्माण करवाया और उसके निर्माण में सहयोग किया था।
राजा भूदेव बौद्ध धर्म के कट्टर विरोधी थे और इन्होंने इसके लिए बुद्धश्रमण शत्रु की उपाधि भी धारण करी थी।

सलोड़ादित्य वंश
इस वंश के प्रथम शासक इच्छर देव थे।
सलोड़ादित्य वंश के बारे में जानकारी बालेश्वर और पांडुकेश्वर से प्राप्त ताम्र पत्रों से प्राप्त होती है।
इच्छर देव के पश्चात देसतदेव, पदमदेव, सुमिक्षराजदेव आदि शासक बनते हैं।
शंकराचार्य का उत्तराखंड आगमन
शंकराचार्य जब उत्तराखंड आये तब यहाँ कार्तिकेयपुर राजवंश / कत्यूरी वंश का शासन चल रहा था और राजा इष्टगण शासन कर रहे थे, जो निम्बर वंश से संबंधित थे जो कार्तिकेयपुर राजवंश / कत्यूरी वंश के अंतर्गत ही आता है।
शंकराचार्य भारत के महान दार्शनिक व धर्म प्रवर्तक थे और उन्होंने हिन्दू धर्म की पुनः स्थापना के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
उन्होंने भारत में 4 मठों की स्थापना करी थी।
शंकराचार्य द्वारा स्थापित 4 मठ:
1. ज्योतिर्मठ, उत्तराखंड
2. द्वारका पीठ, गुजरात
3. श्रृंगेरी शरद पीठम, कर्णाटक
4. गोवर्धन पुरी मठ, ओड़िसा
820 ईस्वी में इन्होंने अपने शरीर को केदारनाथ में त्याग दिया था।
History of Uttarakhand in Hindi – कुमाऊँ क्षेत्र में चंद राजवंश का उदय
जब कत्यूरी वंश का शासन प्रारंभ हुआ था तब उस समय कुमाऊँ क्षेत्र में चंद वंश भी उदय हो रहा था और दोनों ही वंश प्रारंभ में एक दूसरे के समकालीन थे।
इन दोनों वंशो में सत्ता के लिए एक दूसरे से संघर्ष चलता रहा था।
चंद वंश की प्रारंभ में राजधानी चंपावत थी, बाद में चंद शासकों द्वारा अलमोड़ा, नैनीताल, नेपाल के भी कुछ क्षेत्रों को अपने राज्य में मिला लिया गया था।
चंद वंश के बारे में जानकारी हमें चंदकालीन अभिलेखों, मुस्लिम साहित्य, परमार वंश के इतिहास, नेपाल के इतिहास से हमें जानकारी प्राप्त होती है।
इसके साथ ही बद्रीदत्त पांडे और शिव प्रसाद डबराल ने इनकी वंशावली में 62 राजाओं का वर्णन किया है और इस वंश का सबसे प्राचीन अभिलेख कुमाऊँ क्षेत्र से प्राप्त हुआ है, चंद वंश के शासक:
1. सोम चंद | 32. आत्म चंद ( II ) |
2. आत्म चंद | 33. हरि चंद ( II ) |
3. पूर्ण चंद | 34. विक्रम चंद |
4. इंद्र चंद | 35. भारती चंद |
5. संसार चंद | 36. रत्न चंद |
6. सुधा चंद | 37. कीर्ति चंद |
7. हमीर चंद | 38. प्रताप चंद |
8. वीना चंद | 39. तारा चंद |
9. वीर चंद | 40. माणिक चंद |
10. रूप चंद | 41. कल्याण चंद ( II ) |
11. लक्ष्मी चंद | 42. पूर्ण चंद |
12. धर्म चंद | 43. भीष्म चंद |
13. कर्म चंद | 44. बालो कल्याण चंद |
14. बल्लाल चंद | 45. रुद्र चंद |
15. नामी चंद | 46. लक्ष्मी चांद |
16. नर चंद | 47. दिलीप चंद |
17. नानकी चंद | 48. विजय चंद |
18. राम चंद | 49. त्रिमल चंद |
19. भीष्म चंद | 50. बाज बहादुर चंद |
20. मेघ चंद | 51. उद्योत चंद |
21. ध्यान चंद | 52. ज्ञान चंद |
22. पर्वत चंद | 53. जगत चंद |
23. थोहर चंद | 54. देवी चंद |
24. कल्याण चंद | 55. अजीत चंद |
25. त्रिलोक चंद | 56. कल्याण चंद ( IV ) |
26. डमरू चंद | 57. दीप चंद |
27. धर्म चंद | 58. मोहन चंद |
28. अभय चंद | 59. प्रद्युम्न चंद |
29. गरुड़ ज्ञान चंद | 60. मोहन चंद |
30. हरिहर चंद | 61. शिव चंद |
31. उद्यान चंद | 62. महेंद्र चंद |
दोस्तों, अब हम चंद वंश के शासकों के बारे में जानेंगे:
सोमचंद
चंद वंश की स्थापना सोमचंद ने की और वे शैव धर्म को मानते थे।
इतिहासकारों के इनके संबंध में अलग-अलग मत हैं, “कुमाऊँ का इतिहास” के लेखक बद्रीदत्त पांडे के अनुसार सोमचंद का शासनकाल 700 से 721 ईस्वी के बीच था।
इसके साथ ही ब्रिटिश इतिहासकार एटकिन्स के अनुसार सोमचंद का शासनकाल 935 ईस्वी के आसपास था।
कुछ इतिहासकारों के अनुसार चंद वंश की स्थापना थोहरचंद ने 1216 ईस्वी के आसपास की थी परंतु ज्यादातर इतिहासकारों के अनुसार चंद वंश की स्थापना सोमचंद ने 700 ईस्वी के आसपास की थी और थोहरचंद सोमचंद की 23वी पीढ़ी में आया था।
झूसी, इलाहबाद से सोमचंद यात्रा करने के लिए बद्रीनाथ आए थे और उस समय उत्तराखंड के राजा कत्यूरी शासक ब्रह्मदेव थे।
यहाँ पर सोमचंद ने ब्रह्मदेव की एकमात्र कन्या जिसका नाम चम्पा था उससे विवाह कर लिया था और इसके साथ ब्रह्मदेव ने सोमचंद को कुछ क्षेत्र भी दान में दिए थे।
सोमचंद ने अपनी पत्नी व रानी चम्पा के नाम पर चंपावती नदी के किनारे ब्रह्मदेव द्वारा मिली भूमि पर चंपावत राज्य का निर्माण करवाया था और राजा सोमचंद ने चंपावत राज्य में एक राजबुंगा किले का भी निर्माण करवाया था और यहीं से चंद वंश की शुरुवात भी हुई थी।
इन्होंने राजबुंगा किले के लिए 4 किलेदार भी नियुक्त किये थे, उनका नाम कार्की, बोरा, तड़ागी और चौधरी था और इन चार किलेदारों को चाराल / चार-आल कहा जाता है और ये चाराल पूर्ण रूप से नेपाल के निवासी थे।
सोमचंद ने अब अपने क्षेत्र का विस्तार करने के लिए अपने आसपास के राजाओं के साथ युद्ध करना शुरू कर दिया था और अपना सबसे प्रथम युद्ध वह द्रोणकोट के रावत राजा के साथ लड़ते हैं।
इस युद्ध में सोमचंद द्रोणकोट के रावत राजा को मार देते हैं और इस क्षेत्र से भी राजा सोमचंद को कर ( tax ) मिलना शुरू हो जाता है।
सोमचंद ने गाँव के सयानों ( जिनके पास जिंदगी का बहुत ज्यादा अनुभव हो ) और बूढ़ों की नियुक्ति करी थी और उन्होंने इन सयानों और बूढ़ों को कर इकठ्ठा करने का कार्य सौंपा था।
उन्होंने इन सयानों और बूढ़ों को अपने जीते हुए क्षेत्रों से कर इकठ्ठा करने के लिए भेजा, परंतु जब ये सयाने और बूढ़े कर इकठ्ठा करने उन क्षेत्रों में गए तो वहाँ महरा और फर्त्याल थे जिन्होंने कर देने से मना किया और इन सयानों और बूढ़ों के सर काटके बीच चौराहे पर उनको गाड़ दिया था, तबसे उस क्षेत्र को बूढ़ाचौरा भी कहा जाता है।
महरा व फर्त्याल वो लोग थे जिनको उन क्षेत्रों में काफी शक्तिशाली माना जाता था और उनकी उन क्षेत्रों में काफी चलती थी।
राजा सोमचंद ने महरा और फर्त्यालों को बहला फुसला के अपनी तरफ कर लिया था और उन्हें मंत्री व सेनापति जैसे पद प्रदान किये, क्यूंकि राजा सोमचंद अपना राज्य विस्तार कर रहे थे और इसलिए सोमचंद ने उनको बड़े-बड़े पदों में नियुक्त किया था।
इसके साथ साथ सोमचंद डोटी के राजाओं को कर ( टैक्स ) भेजा करता था, डोटी के राजा नेपाल क्षेत्र से संबंधित थे और ये मल्लवंशी होते थे और इन्हें “रैका” भी कहा जाता था, इससे आप यह देख सकते हैं की सोमचंद एक स्वतंत्र राजा नहीं था क्यूंकि वह डोटी के राजाओं को कर भेजा करता था।
सोमचंद के समय डोटी का राजा जयदेव मल्ल था जिसे सोमचंद कर ( tax ) भेजा करता था और इस मल्ल वंश का प्रथम राजा वामदेव था।
आत्मचंद
सोमचंद के बाद उनका उत्तराधिकारी आत्मचंद राजा की गद्दी में बैठता है और यह 20 वर्षों तक शासन करता है।
पूर्णचंद
आत्मचंद के बाद पूर्णचंद शासक बनता है।
इन्द्रचंद
इनके समय उत्तराखंड में रेशम का उत्पादन और उसका निर्यात बहुत ज्यादा हुआ था।
इन्होंने चीन की रानी के साथ विवाह भी किया था।
तिब्बत के राजा की पत्नी, चीन से रेशम के कीड़े तिब्बत लायी थी और इन्द्रचंद ये रेशम के कीड़े तिब्बत से उत्तराखंड ले आये थे।
इन्होंने चंपावत में सिल्क का कारखाना खोला था और इन रेशम के कारखानों में काम करने वाले लोगों को पटवा / पटौवा कहा जाता था।
इन्होंने नेपाल के मार्ग के माध्यम से चीन से व्यापारिक संबंध बनाये थे।
इन्द्रचंद के बाद संसार चंद, सुधा चंद, हरि चंद क्रमानुसार राजा बनते हैं, परंतु इतिहास में इनसे कोई खास घटना या बिंदु नहीं जुड़ा है।
वीणा चंद
इसकी कोई संतान नहीं होती है, यह भोग विलास में ही रहता था और सारी बातों से निश्चिंत होकर अपना जीवन आनंदमय रूप से व्यतीत करता था।
इसे “विलासी राजा” भी कहा जाता है।
इसके समय खस जातियों का आक्रमण हो जाता है और उस समय खसों का राजा बीजड़ था, क्यूंकि वीणा चंद भोग विलास में ही तृप्त रहता था, इस कारण वह खसों के सामने कमज़ोर पड़ जाता है और खस जाति इसकी हत्या कर देती है।
इस प्रकार चंद वंश की समाप्ति हो जाती है और खस जाति लगभग 200 वर्षों तक शासन करती है और खसों का इस कालक्रम में आधिपत्य रहता है।
वीर चंद
बहुत सारे खस राजा इन 200 वर्षों तक शासन करते हैं, तराई क्षेत्रों से लेकर नेपाल क्षेत्र तक ये अपना अधिकार कर लेते हैं, परंतु जनता इनसे बहुत परेशान रहती थी।
खसों से परेशान जनता बाद में आपस में मिलती है और यह निर्णय लेती है की वे अपना नया राजा बनाएंगे और वह चंद वंश से ही संबंधित होना चाहिए।
जनता अपने में से सोन खड़ायन नामक व्यक्ति को अपना मुख्या चुनती है, फिर सोन खड़ायन नए राजा की खोज में नेपाल क्षेत्र की तरफ जाता है।
वहां उसे वीर चंद मिलते हैं जो चंद वंश के पांचवे शासक संसार चंद का रिश्तेदार होता है और फिर जनता उसे राजा बनने के लिए आमंत्रित करती है।
वीर चंद, जनता का निमंत्रण स्वीकार करता है और खसों को समाप्त करने के लिए आ जाता है।
उस समय खसों का राजा सौपल था, वीर चंद ने खसों के राजा को मार गिराया और उन्हें पराजित कर दिया।
खसों का आधिपत्य ख़त्म करके वीर चंद ने पुनः चंद वंश की स्थापना कर दी थी।
वीर चंद को खस जाति के अंत का श्रेय भी जाता है।
रूप चंद
इस शासक ने “श्येनिक शास्त्र” नाम के ग्रंथ की रचना की थी।
रूप चंद के बाद लक्ष्मी चंद, धर्म चंद, कर्म चंद, बल्लाल चंद, नमी चंद, नर चंद, नानकी चंद, राम चंद, भीष्म चंद, मेघ चंद, ध्यान चंद, पर्वत चंद क्रमानुसार राजा बनते हैं, परंतु इतिहास में इनसे कोई खास घटना या बिंदु नहीं जुड़ा है।
थोहर चंद
जैसा की हमने आपको पहले बताया था की कुछ इतिहासकरों जैसे हर्षदत्त जोशी व श्री फ्रेज़र ने थोहर चंद को इस वंश का संस्थापक बताया था।
यह चंद वंश का पहला स्वतंत्र राजा था जिसने किसी को भी कर ( tax ) देना बंद कर दिया था।
थोहर चंद के बाद कल्याण चंद, त्रिलोक चंद, डमरू चंद, धर्म चंद क्रमानुसार राजा बनते हैं, परंतु इतिहास में इनसे कोई खास घटना या बिंदु नहीं जुड़ा है।
अभय चंद
अभय चंद, इस वंश का पहला शासक था, जिसके बारे में इसके खुद के अभिलेखों से पता चलता है।
इसके दो प्रमुख लेख थे और वे कुछ इस प्रकार हैं:
1. मालेश्वर जैन अभिलेख, यह अभिलेख इसने पुत्र प्राप्ति के लिए बनवाया था।
2. चौकिनी बोरा मंदिर अभिलेख , चमोली।
जब इसकी मृत्यु हुई थी तब ज्ञानचंद द्वारा इसके श्राद्ध में एक ताम्र पत्र के जरिये भूमिदान करने की घोषणा करी थी।
गरुड़ ज्ञान चंद
यह शासक चंद वंश का सबसे शक्तिशाली राजा था।
इसके साथ साथ उस समय शासन कर रहे दिल्ली सल्तनत के तुग़लक़ वंश से भी इसके संबध थे और यह चंद वंश का पहला शासक था जो दिल्ली दरबार में गया था।
उस समय दिल्ली पर राज कर रहे दिल्ली सल्तनत के तुग़लक़ वंश के राजा फिरोज शाह तुग़लक़ ने ज्ञान चंद को गरुड़ चंद नामक उपाधि प्रदान की थी।
ज्ञान चंद का राज्य चिन्ह गरुड़ था और यह विष्णु का उपासक था।
शेरा खड़कोट ताम्र पत्र में ज्ञान चंद को राजाधिराज महाराज बताया गया है और नीलू कठैत नामक इसका एक सेनापति था, जो बहुत ही वीर था।
इसी सेनापति नीलू कठैत के साथ मिलकर इसने अपना भाबर और तराई क्षेत्र जो संभल, उत्तरप्रदेश के नवाबों द्वारा जीत लिया गया था वह इसने वापस जीता था।
गोबासा ताम्र पत्र का संबंध भी ज्ञान चंद से ही है।
ज्ञान चंद के बाद हरिहर चंद, उड्यान चंद, आत्म चंद ( II ), हरि चंद ( II ), विक्रम चंद क्रमानुसार राजा बनते हैं, परंतु इतिहास में इनसे कोई खास घटना या बिंदु नहीं जुड़ा है।
भारती चंद
इसने डोटी के राजाओं के साथ युद्ध करने का निर्णय लिया, हमने आपको डोटी के राजाओं के बारे में पहले बताया था की वे नेपाल क्षेत्र में शासन करते थे, भारती चंद के समय डोटी का राजा जयमल्ल था।
इसने 12 वर्षों तक डोटी का घेराव डाला और 12 वर्षों तक उनसे युद्ध करता रहा और इसने अपने पुत्र रत्न चंद की मदद से सोर, सीरा, थल क्षेत्र जीत लिए थे और इन पर अपना अधिकार कर लिया था ये क्षेत्र पिथौरागढ़ के अंतर्गत आते थे।
इसी डोटी अभियान के दौरान नायक जाति की उत्पत्ति भी होती है।
भारती चंद के दूसरे पुत्र सुजान कुंवर की जानकारी खेतीखान ताम्र पत्र के द्वारा प्राप्त होती है।
सीरा क्षेत्र जो इसने जीता था, वहाँ इसने कुछ सामंत डुंगरा और बसेड़ा नियुक्त किये थे।
कुमाऊँ के इतिहास में भारती चंद के पवाड़े बहुत ज्यादा प्रसिद्ध थे।
रत्न चंद
इसने अपने पिता भारती चंद की डोटी के राजाओं के साथ युद्ध में मदद करी थी।
रत्न चंद के बारे में जानकारी उड़ेती के ताम्र पत्रों से मिलती है।
रत्न चंद के बाद कीर्ति चंद, प्रताप चंद, तारा चंद, मानिक चंद, कल्याण चंद ( II ), पूर्ण चंद क्रमानुसार राजा बनते हैं, परंतु इतिहास में इनसे कोई खास घटना या बिंदु नहीं जुड़ा है।
भीष्म चंद
इसने चंद वंश की राजधानी चंपावत से बदलकर आलमनगर कर दी थी, परंतु यह कार्य बालु कल्याण चंद के समय में पूर्ण हुआ था।
इसने आलमनगर के पूर्व में खगमरा किले का निर्माण करवाया था, क्यूंकि इसने राजधानी को बदल दिया था इसलिए चंपावत में शासन करने वाला ये अंतिम चंद शासक था।
भीष्म चंद के बाद बालु कल्याण चंद राजा बनता है और इसे भीष्म चंद ने गोद लिया था।
बालु कल्याण चंद
इसके काल में 1560 में राजधानी स्थानांतरण का कार्य पूरा हुआ था और इसने आलमनगर का नाम बदलकर अलमोड़ा रख दिया था।
इसको भीष्म चंद का गोद लिया हुआ पुत्र माना जाता है।
कालापानी गढ़ के अभिलेख जो पिथौरागढ़ से प्राप्त हुए हैं, उसमे बताया गया है की इसको “महाराजाधिराज कल्याण चंद्र देव” की उपाधि दी गई थी।
इसने लालमंडी किले का निर्माण करवाया था, और यह निर्माण इसने 1563 में अलमोड़ा के पल्टन बाज़ार में स्थित छावनी के भीतर करवाया था।
जब भारत में अंग्रेजों का दौर आ गया था और जब 1816 में अंग्रेजों ने गोरखाओं को पराजित किया था, तब उन्होंने इस लालमंडी किले में झंडा फेहराया था और इस किले को “फोर्ट मोयरा” नाम दिया था।
रूद्र चंद
यह शासक उस समय भारत पर शासन कर रहे मुग़ल शासक अकबर के समकालीन था।
मुग़ल शासक अकबर के नौ रत्नों में से एक अबुल फज़ल की रचना आईने अकबरी में कुमाऊँ क्षेत्र को दिल्ली सूबे में दर्शाया गया है।
अकबर ने भारत के बहुत से राजाओं को अपनी अधीनता स्वीकार करवाई थी, उसी क्रम में 1587 में रूद्र चंद ने भी अकबर की अधीनता स्वीकार करी थी।
अकबर के नौ रत्नों में से एक बीरबल से भी इसके अच्छे संबंध थे।
रूद्र चंद ने डोटी के राजा हरिमल्ल को पराजित कर के सीरा क्षेत्र को अपने राज्य से मिला दिया था।
इसने चौथाणी ब्राह्मणों की मंडली बनाई थी, इसके समय भूमि के मालिक थातवान हुआ करते थे।
इसके साथ इसने रुद्रपुर नगर की स्थापना भी करी थी और इसने मल्ला महल का निर्माण भी करवाया था।
रूद्र चंद ने एक पुस्तक की भी रचना करी थी, जिसका नाम “त्रैवेणिक धर्मनिर्णय” था जिसमें सामाजिक व्यवस्था को पुनः स्थापित किया गया था।
रुद्रचंद के सेनापति का नाम पुरुषोत्तम पंत था।
यह गढ़वाल शासक बलभद्र शाह के साथ युद्ध करता है, जिसे “ग्वालदम का युद्ध” या “बधानगढ़ का युद्ध” कहा जाता है, इस युद्ध में सेनापति पुरुषोत्तम पंत की राजपूतों द्वारा हत्या कर दी जाती है।
लक्ष्मी चंद
मूनाकोट ताम्र पत्र में इसको लछमन भी कहा गया है।
लक्ष्मी चंद को मुगलो से डरने के कारण “लखुली बिराली” उपनाम से भी जाना जाता है।
इसके सेनापति का नाम गैंडा सिंह था और लक्ष्मी चंद ने गढ़वाल पर 7 बार आक्रमण किया था लेकिन हर बार वह असफल रहा और अंत में 8वी बार यह सफल हुआ था और 8वें आक्रमण में इसने गढ़वाल के सेनापति खतड़ सिंह को मार गिराया था।
इतनी बार असफल होने के बाद अंत में सफल होने की खुशी में इसने अपनी विजय के प्रतीक में खतड़ुआ त्योहार मनाया था, जो खतड़ सिंह को पराजित करने की ख़ुशी में था।
वर्तमान समय में कुमाऊँ क्षेत्र में खतड़ुआ त्योहार को पशुओं के त्योहार के रूप में मनाया जाता है।
लक्ष्मी चंद ने न्याय व्यवस्था को अच्छा बनाने के लिए 2 कचहरियों का निर्माण करवाया था, पहली कचहरी का नाम न्योवाली तथा दूसरी कचहरी का नाम बिष्टावली था।
न्योवाली कचहरी का कार्य जनता को न्याय दिलाने के लिए था तथा बिष्टावली कचहरी पूर्ण रूप से सैन्य मामलों को संभालती थी।
1602 में लक्ष्मी चंद ने बागेश्वर के बागनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया था और इसके साथ अलमोड़ा में लक्ष्मेश्वर मंदिर का भी निर्माण करवाया था।
इसने जुलिया और सिरती नामक करों ( tax ) की भी शुरुवात की थी।
लक्ष्मी चंद का एक बड़ा भाई था जिसका नाम शक्ति गोसाईं था और वह जन्म से अंधा था, इस कारण से शक्ति गोसाईं को “कुमाऊँ का धृतराष्ट्र” कहते हैं।
दिलीप चंद
लक्ष्मी चंद का उत्तराधिकारी दिलीप चंद बनता है और अगला राजा बनता है।
इसकी मृत्यु क्षय रोग ( फेफड़ों की बीमारी ) के कारण हो जाती है।
विजय चंद
इसके साथ बहुत अन्याय होता है।
त्रिमल चंद ने सुखराम कार्की की मदद से विजय चंद को मरवा दिया था।
इसकी मृत्यु के बाद महरा और फर्त्यालों में संघर्ष उत्पन्न हो जाते हैं, महरा और फर्त्यालों के बारे में हमने आपको ऊपर बताया था।
इस संघर्ष में महरा जीत जाते हैं।
त्रिमल चंद
विजय चंद को मरवाने के बाद त्रिमल चंद राजा बनकर आता है।
इसके सेनापति का नाम गदयूडा था।
बाजबहादुर चंद
यह चंद वंश के प्रतापी व शक्तिशाली राजाओं में से एक था।
यह मुग़ल शासक शाहजहाँ के समकालीन था और शाहजहाँ ने इसे जमींदार और बहादुर की उपाधि दी थी।
शाहजहाँ ने इसे फरमान में चौरासी माल परगना दी थी जिससे चंदो को 9 लाख प्रति वर्ष की आय होती थी।
तीलू रौतेली बाजबहादुर चंद के समकालीन थी, तीलू रौतेली एक वीर गढ़वाली राजपूत वीरांगना थी, जिन्होंने 20 वर्ष की आयु तक 7 युद्ध लड़े थे, उन्हें गढ़वाल के इतिहास में गढ़वाल की लक्ष्मी बाई और गढ़वाल की झांसी की रानी कहकर संबोधित किया जाता है।
बाजबहादुर चंद ने गढ़वाल पर आक्रमण किया था और उस समय गढ़वाल के राजा पिरथी शाह थे और देहरादून पर अपना अधिकार कर लिया था।
इसने तिब्बत को भी पराजित किया था और अपने साम्राज्य टोंस नदी से लेकर करनाली नदी तक कर लिया था।
बाजबहादुर चंद ने 1673 में कैलाश मानसरोवर यात्रियों के लिए गूंठ भूमि दान की थी और इसके समय डोटी का राजा देवपाल था।
बाजबहादुर चंद ने भोटिया और हुणियों लोगों पर सिरती नामक कर लगाया था।
पिथौरागढ़ के थल क्षेत्र में इसने एक हथिया देवाल का निर्माण करवाया था जो एलोरा की कैलाश गुफाओं के समान था।
इसने घोड़ाखाल में गोलू देवता मंदिर का निर्माण करवाया था और इसके साथ इसने भीमताल में भीमेश्वर महादेव मंदिर का भी निर्माण करवाया था।
बाजबहादुर चंद ने बाजपुर नगर, उधम सिंह नगर का भी निर्माण करवाया था जो तराई क्षेत्रों के अंतर्गत आता है।
उद्योत चंद
इसके सेनापति का नाम सिरोमणि जोशी था, इसके समय डोटी का राजा देवपाल था।
इसने गढ़वाल और डोटी के राजाओं को एकसाथ परास्त किया था।
खैरागढ़ में डोटी के राजाओं और उदयोत चंद में संधि हुई थी और इस संधि में डोटी के राजाओं को चंदो को कर देने का फैसला हुआ था।
गढ़वाल और डोटी के राजाओं के ऊपर अपनी विजय के प्रतीक में इसने अलमोड़ा में त्रिपुरी सुंदरी मंदिर, उद्योत चंदेश्वर, पर्बतेश्वर का निर्माण करवाया था।
तल्ला महल में रंग महल का निर्माण करवाया था।
इसने तराई क्षेत्रों में आमों के बगीचे लगवाए थे।
इसके बाद ज्ञान चंद शासक बनता है, इससे जुड़ी कोई मुख्य घटना इतिहास में नहीं है।
जगत चंद
इसने गढ़वाल पर आक्रमण किया था और श्रीनगर पर कब्ज़ा कर लिया था।
हालांकि, बाद में गढ़वाली राजा प्रदीप शाह ने इसको वापस जीत लिया था।
देवी चंद
इसने मुरादाबाद को लूटा था और मुग़ल साम्राज्य के कुछ क्षेत्रों पर कब्ज़ा भी किया था।
देवी चंद ने अफगान के दाऊद खां को कुमाऊँ का जनरल बनाया था।
देवी चंद के बाद अजीत चंद शासक बनता है, इससे जुड़ी कोई मुख्य घटना इतिहास में नहीं है।
कल्याण चंद ( IV )
इसने रोहिल्ला जाति को पराजित किया था।
इसके काल में प्रसिद्ध कवि शिव ने “कल्याण चंद्रोदयम” की रचना की थी।
दीप चंद
इसने गढ़वाल राजा प्रदीप शाह को हराया था।
1760 में उद्योत चंद द्वारा निर्माण करवाए गए पर्बतेश्वर मंदिर का नाम बदलकर दीपचंदेश्वर मंदिर रखा था।
ब्रिटिश शासन के दौरान, जॉर्ज विलियम ट्रेल के द्वारा नंदा देवी मूर्ति को उद्योत चंद द्वारा निर्माण करवाए गए उद्योत चंदेश्वर मंदिर में स्थानांतरित किया गया था, जिसके बाद से इस मंदिर को “नंदा देवी मंदिर” कहा जाने लगा था।
इसके दीवान का नाम हर्षदेव जोशी था।
मोहन चंद
इसने हर्षदेव जोशी को कारागार में बंद करवा दिया था।
इसके समय गढ़वाल के राजा ललित शाह ने कुमाऊँ ( अलमोडा ) पर आक्रमण कर दिया था और मोहन चंद को पराजित कर दिया था।
इसके साथ साथ गढ़वाल के राजा ललित शाह ने हर्षदेव जोशी, जिसको मोहन चंद द्वारा कारागार में ड़ाल दिया गया था, उसे भी कारागार से निकाला था।
प्रद्यूमन शाह / चंद
मोहन चंद को पराजित करने के बाद गढ़वाल के राजा ललित शाह का पुत्र प्रद्यूमन शाह कुमाऊँ का शासक बन जाता है।
इसे प्रद्यूमन चंद भी कहा जाता है।
मोहन चंद
बाद में मोहन चंद दुबारा कुमाऊँ को जीत लेता है और प्रद्यूमन शाह को भगा देता है।
मोहन चंद के बाद शिव चंद राजा बनता है, इससे जुड़ी कोई मुख्य घटना इतिहास में नहीं है।
महेंद्र चंद
इसके समय 1790 में नेपाल के गोरखाओं ने कुमाऊँ पर आक्रमण किया और गोरखाओं ने महेंद्र चंद को अलमोड़ा के हवालाबाग में पराजित किया था।
इसके कारण यह चंद वंश का अंतिम शासक साबित हुआ।
हर्षदेव जोशी ने गोरखाओं को कुमाऊँ पर आक्रमण करने का निमंत्रण भेजा था, और हर्षदेव जोशी को “चाणक्य” की संज्ञा भी दी जाती है।
इस तरह से कुमाऊँ में चंद वंश का शासन समाप्त हुआ और 1790 से गोरखाओं ने यहाँ अपना शासन स्थापित कर दिया था।

परमार वंश / पवांर वंश ( गढ़वाल )
History of Uttarakhand in Hindi – परमार वंश की स्थापना गढ़वाल में कनकपाल द्वारा 888 ईस्वी के आसपास की गई थी।
परमार वंश के संस्थापक को लेकर इतिहासकारों के अलग-अलग मत हैं।
कुछ इतिहासकारों के अनुसार कनकपाल परमार वंश का संस्थापक है और कुछ इतिहासकारों के अनुसार अजय पाल परमार वंश का संस्थापक है।
888 ईस्वी से 1949 तक परमार वंश के राजाओं ने शासन किया था, जिसमे कुल 60 राजाओं की सूची हमें प्राप्त होती है।
अलग-अलग इतिहासकारों ने इन 60 राजाओं की अलग-अलग 4 सूचियां प्रदान करी है, और इन चारों सूचियों में से सबसे ज्यादा प्रसिद्ध और विश्वशनीय बैकेट की सूची को माना जाता है, जो 1849 में दी गई थी।
4 सूचियां जो अलग-अलग इतिहासकारों के द्वारा दी गई थी, वे कुछ इस प्रकार है:
1. एटकिंसन की सूची
2. विलियम की सूची
3. बैकेट की सूची ( 1849 )
4. हार्डिक की सूची ( 1796 )
परमार वंश के शासकों की सूची:
1. कनक पाल | 31. अभय देव |
2. श्याम पाल | 32. जयराम देव |
3. पांडु पाल | 33. असल देव |
4. अभिजीत पाल | 34. जगत पाल |
5. सौगत पाल | 35. जीत पाल |
6. रत्न पाल | 36. अनंत पाल द्वितीय |
7. शाली पाल | 37. अजय पाल |
8. विधि पाल | 38. कल्याण शाह |
9. मदन पाल | 39. सुंदर पाल |
10. भक्ति पाल | 40. हंसदेव पाल |
11. जयचंद पाल | 41. विजय पाल |
12. पृथ्वी पाल | 42. सहज पाल |
13. मेदिनीसेन पाल | 43. बहादुर शाह |
14. अगस्ती पाल | 44. मान शाह |
15. सुरती पाल | 45. श्याम शाह |
16. जय पाल | 46. महिपत शाह |
17. अनंत पाल प्रथम | 47. पृथ्वी शाह |
18. आनंद पाल प्रथम | 48. मेदिनी शाह |
19. विभोग पाल | 49. फतेह शाह |
20. सुवयानु पाल | 50. उपेंद्र शाह |
21. विक्रम पाल | 51. प्रदीप शाह |
22. विचित्र पाल | 52. ललित शाह |
23. हंस पाल | 53. जयकृत शाह |
24. सोम पाल | 54. प्रद्युम्न शाह |
25. कादिल पाल | 55. सुदर्शन शाह |
26. कामदेव पाल | 56. भवानी शाह |
27. सुलक्षण देव | 57. प्रताप शाह |
28. लखन देव | 58. कीर्ति शाह |
29. आनंद पाल द्वितीय | 59. नरेंद्र शाह |
30. पूर्वा देव | 60. मानवेन्द्र शाह |
दोस्तों, अब हम परमार वंश के राजाओं के बारे में जानेंगे:
कनकपाल
यह परमार वंश का प्रथम शासक था, जिसने इस वंश की नींव रखी थी।
यह मालवा क्षेत्र के राजा थे, जो 887 ईस्वी के आसपास बद्रीनाथ धाम की यात्रा के लिए उत्तराखंड आये थे, यहाँ उनकी भेंट चाँदपुरगढ़ जो चमोली में है वहां के राजा भानुप्रताप से हुई।
राजा भानुप्रताप का कोई पुत्र नहीं था, उनकी सिर्फ एक पुत्री थी और उसका विवाह उन्होंने राजा कनकपाल से करवा दिया था, जिसके कारण राजा कनकपाल ने यहाँ परमार वंश की स्थापना की थी।
राजा कनकपाल के संबंध में हमें कई स्त्रोत से जानकारी प्राप्त होती है जैसे की लक्ष्मणदेव जो परमार वंश के 28वे राजा हैं, उनकी टिहरी क्षेत्र से ताम्र मुद्राएं प्राप्त हुई हैं।
अनंतपाल जो परमार वंश के 29वे राजा हैं उनके हमें धारशील ग्राम, उखीमठ से धार शिलालेख प्राप्त हुए हैं, इसके साथ-साथ जगतपाल जो परमार वंश के 34वे राजा हैं उनका हमें देवप्रयाग शिलालेख प्राप्त हुआ है।
चाँदपुरगढ़ में स्थित कोनपुर गढ़ को राजा कनकपाल का गढ़ माना जाता है।
परमार वंश में कनक पाल की दृष्टि से जो प्रमाण प्राप्त हुए हैं उनपर ज्यादातर इतिहासकार ज्यादा विशवास करते हैं।
राजा कनकपाल के मूल निवास को लेकर भी इतिहासकारों के अपने-अपने मत है, और इन सब मतों से मुख्यतः दो राय निकलकर सामने आई, वे दो राय कुछ इस प्रकार है:
1. कुछ इतिहासकारों का मानना है की राजा कनकपाल मूलतः मेवाड़, गुजरात, और महाराष्ट्र जैसे क्षेत्रों से आये थे जिसके प्रमाण चाँदपुरगढ़ के शिलालेख में मिलता है।
2. कुछ इतिहासकारों जैसे की एटकिंसन, पातीराम, हरिकृष्ण रतूड़ी का मानना है की राजा कनकपाल मूलतः धार प्रदेश के क्षेत्रों से आये थे, परंतु इस तथ्य के कोई ज्यादा प्रमाण नहीं मिल पाए।
अजय पाल
यह परमार वंश के सबसे शक्तिशाली और प्रतापी राजा थे और यह इस वंश के 37वे राजा थे।
इन्होंने परमार वंश की राजधानी को दो बार स्थानांतरित किया था पहली बार इन्होंने 1512 में चाँदपुरगढ़ से देवलगढ़ को अपनी राजधानी बनाया और फिर 1517 में देवलगढ़ से श्रीनगर को अपनी राजधानी बनाई थी।
इन्होने गढ़वाल के 52 गढ़ो को जीतकर पूरा एकछत्र राज्य स्थापित करके गढ़वाल बनाया था और “गढ़वाल” नाम दिया था।
52 गढ़ो की सूची:
1. चाँदपुर गढ़ | 27. रतन गढ़ |
2. नागपुर गढ़ | 28. चोंदकोट गढ़ |
3. कुईली गढ़ | 29. नयाल गढ़ |
4. सिल गढ़ | 30. आजमीर गढ़ |
5. भरपूर गढ़ | 31. गडताग गढ़ |
6. कुंजड़ी गढ़ | 32. कुंडारा गढ़ |
7. बांगर गढ़ | 33. लंगूर गढ़ |
8. सांकरी गढ़ | 34. नाला गढ़ |
9. रामी गढ़ | 35. दशोली गढ़ |
10. मुंगरा गढ़ | 36. धोना गढ़ |
11. बिराल्ट गढ़ | 37. बनगढ़ |
12. कोल्लिगढ़ | 38. भरदार गढ़ |
13. रावड़गढ़ | 39. काँड़ा गढ़ |
14. फाल्याण गढ़ | 40. सावली गढ़ |
15. रेका गढ़ | 41. गुजडू जाति |
16. मोल्या गढ़ | 42. जोट जाति |
17. उप्पू गढ़ | 43. देवल गढ़ |
18. इंडिया गढ़ | 44. लोद गढ़ |
19. बाग गढ़ | 45. जोंलपुर गढ़ |
20. गाढकोट गढ़ | 46. चंपा गढ़ |
21. चोंड़ा गढ़ | 47. डोडराकवंरा गढ़ |
22. तोप गढ़ | 48. भवना गढ़ |
23. राणी गढ़ | 49. लोदन गढ़ |
24. श्रीगुरु गढ़ | 50. बदलपुर गढ़ |
25. बधाण गढ़ | 51. संगेला गढ़ |
26. लोहबाग गढ़ | 52. एरासू गढ़ |
राजा अजयपाल के संबंध में जानकारी कवि भारत के मनोदया काव्य से, सुदर्शन शाह के सभासर ग्रंथों से मिलती है जिसके अनुसार राजा अजयपाल को परमार वंश का प्रथम शासक बताया गया है।
इन्होंने देवलगढ़ में अपनी कुलदेवी राजराजेश्वरी का मंदिर बनवाया और श्रीनगर में कालिका मठ का निर्माण करवाया और साथ ही साथ सत्यनाथ मंदिर, गौरजा मंदिर, भैरव मंदिर और लक्ष्मीनारायण जैसे मंदिरों का पुनर्निर्माण भी करवाया था।
अजय पाल ने सारोला ब्राह्मणों की नियुक्ति की थी जो इनके काल में रसोई का कार्य की देख रेख करते थे।
इन्होंने धुली पाथा पैमाना जैसे कार्य की भी शुरुवात करी थी।
अजयपाल की तुलना कृष्ण, कुबेर, युधिष्ठर, भीम और इंद्र से भी की गयी है, यह तुलना कवि भरत ने अपने काव्य मनोदया में की है और इसके साथ-साथ राजा अजयपाल को सम्राट अशोक से जोडकर देखा जाता है।
सम्राट अशोक से राजा अजयपाल की तुलना इसलिए की गयी है क्यूंकि जैसे सम्राट अशोक ने कलिंग युद्ध के बाद लड़ाई-झगडे से दूर हटके बौद्ध धर्म को अपना लिया था उसी के भांति राजा अजयपाल ने भी अंत समय में गोरखनाथ पंथ को अपना लिया था।
गोरखनाथ पंथ को अपनाने के पीछे यह कारण था की जिन 52 गढ़ो को राजा अजयपाल ने जीता था उनमे से एक गढ़ जिसका नाम उप्पू गढ़ था वहां का सरदार कफ्फू चौहान ने राजा अजयपाल की अधीनता स्वीकार नहीं की थी।
कफ्फू चौहान राजा अजयपाल के सामने झुकना नहीं चाहता था, जिसके कारण दोनों में भयंकर युद्ध होता है, जिसके बाद राजा अजयपाल ने कफ्फू चौहान की वीरता को देखते हुए उसके लिए खुद यह कहा था की “वीर तुम जीत गए और मैं हार गया”।
कफ्फू चौहान का अपने बारे में यह कथन था कि “मैं पशुओं में सिंह हूँ और पक्षियों में गरुड़ हूँ”।
इस युद्ध में बहुत खून बहा था जिसके बाद राजा अजयपाल ने गोरखनाथ पंथ को अपना लिया था।
तांत्रिक विद्या पर आधारित साँवरी ग्रंथ में अजयपाल को “आदिनाथ” की संज्ञा दी गयी है।
सहजपाल
यह परमार वंश का 42वा शासक था।
इनके 5 अभिलेख देवप्रयाग मंदिर से प्राप्त हुए हैं।
कवि भरत की मनोदया काव्य में इनको राजनीती का चतुर और संग्राम में शत्रु को संताप देने वाला बताया गया है।
इन्हे वीर गुणज, सुखद प्रज्या के नामों की भी संज्ञा दी गई है।
बहादुर शाह / बलभद्र शाह
बहादुर शाह को बलराम शाह, राम शाह और बलभद्र शाह नामों से भी जाना जाता है।
परमार वंश में ये पहले शासक थे जिन्होंने शाह की उपाधि धारण करी थी और इन्हीं के बाद से परमार वंश के सारे शासकों के नाम के आगे शाह लगा था।
इनकी बहादुरी और युद्ध शैली की वजह से कवि देवराज ने बहादुर शाह की तुलना भीमसेन समोबालि से भी की है।
इन्होंने 1581 में कुमाऊँ के चंद शासक रूद्र चंद से भी युद्ध किया जिसे बाधानगढ का युद्ध या ग्वालदम का युद्ध भी कहते हैं और इस युद्ध में बहादुर शाह ने सुखल देव जो कत्यूरी शासक थे उनकी सहायता के साथ रूद्र चंद को पराजित कर दिया था और रूद्र चंद का सेनापति पुरुषोत्तम पंत इस युद्ध में मारा गया था।
मानशाह
मानशाह के लेख 1610 में देवप्रयाग के मंदिर से प्राप्त हुए हैं।
इनके काल में गढ़वाल पर कुमाऊँ के चंद शासक लक्ष्मी चंद ने 7 बार आक्रमण किया था और सातों बार मानशाह ने लक्ष्मी चंद को धूल चटाई थी, परंतु 8वी बार मानशाह को हार का सामना करना पड़ा था।
मानशाह के सेनापति का नाम नन्दी था और 1605 में गढ़वाल सेनानायक खतड़ सिंह लक्ष्मी चंद के 8वे आक्रमण में मारा गया था।
इन्हें बहुगुणा वंशावली के अनुसार “बद्रिशावतारेण” कहा गया है।
मनोदया काव्य के रचयिता कवि भारत इन्हीं के राजकवि थे।
मानशाह के द्वारा जीतू बगडवाल को थोकदार नियुक्त किया गया था।
जीतू बगडवाल बगुड़ी गांव जो टिहरी क्षेत्र में था वहां का रहने वाला था इनके पिता का नाम गरीब राय और माता का नाम सुमेरु था, जीतू बगडवाल के बारे में यह कहानी प्रचलित है की ये एक दिन खेत में हल लगा रहे थे और बैलों के साथ इन्हें आछरियों ( परियां ) ने हर लिया था।
श्यामशाह
यह उस समय दिल्ली पर राज कर रहे मुग़ल शासक जहाँगीर के समकालीन थे।
श्यामशाह का उल्लेख जहांगीरनामा में भी मिलता है, इसमें बताया गया है की श्यामशाह को जहाँगीर द्वारा एक हाथी और एक घोडा उपहार में दिए गए थे।
इन्होने श्रीनगर में सामसाही बागान का निर्माण करवाया था।
इनके राजगुरु का नाम शंकरदेव था।
इनकी 60 रानियाँ थी और कहा जाता है की जब श्यामशाह की मृत्यु हुई थी तब सारी रानियाँ इनके साथ सति हो गई थी।
महिपत शाह
यह उस समय दिल्ली पर राज कर रहे मुग़ल शासक शाहजहाँ के समकालीन थे।
इन्होंने किशोरायमठ मंदिर का निर्माण श्रीनगर में करवाया था।
इनके काल में गढ़वाल पर 3 तिब्बती आक्रमण हुए थे, जिनका इन्होंने सफलतापूर्वक जवाब दिया था।
दापा या दाबा आक्रमण जो महिपत शाह द्वारा किये गए थे और इनमे इनको बहुत ज्यादा सफलता प्राप्त हुई थी इसका उल्लेख रतूड़ी जी द्वारा किया गया है।
महिपत शाह द्वारा हिमाचल प्रदेश के सिरमौर क्षेत्र को भी जीता गया था।
इन्हे “गर्भभंजन” नामक उपाधि भी दी गई है।
महिपत शाह के मुख्यतः 3 सेनापति थे जिनके नाम रिखोला लोदी, वनवाड़ी दास, माधो सिंह भंडारी थे।
मुग़ल लेखों में महिपत शाह को अक्कड़ राजा की संज्ञा दी गई है।
मौलाराम द्वारा महिपत शाह को महाप्रचंड भुजदंड भी कहा गया है।
रोटी सूची प्रथा महिपत शाह से ही संबंधित है।
महिपत शाह की पत्नी का नाम रानी कर्णावती था।
1. माधो सिंह भंडारी – इनको गर्वभंजक के नाम से भी जाना जाता है और इन्होंने मलेथा की कूल का भी निर्माण करवाया था।
इनके बारे में हमे जानकारी देवप्रयाग के रघुनाथ मंदिर के रजत अभिलेख से प्राप्त होती है।
रानी कर्णावती द्वारा हाट ग्राम जो चमोली क्षेत्र के अंतर्गत आता है, वहां उन्होंने माधो सिंह भंडारी को साक्षी मानते हुए एक ब्राह्मण जिसका नाम हटवाल था उसे भूमि दान-स्वरुप दी थी और इसकी जानकारी हमें 1640 में प्राप्त हुए ताम्र पत्रों से मिलती है।
2. रानी कर्णावती – यह परमार वंश के 46वे राजा महिपत शाह की पत्नी थीं और इनको “नककटी रानी” के नाम से भी जाना जाता है।
इनको नककटी रानी के नाम से इसलिए पुकारा जाता है क्यूंकि उस समय दिल्ली पर राज कर रहे मुग़ल शासक शाहजहाँ ने 1635 में अपने सेनापति नवाजत खां को दून घाटी पर हमला करने के लिए भेजा था।
महिपत शाह की उस समय मृत्यु हो चुकी थी और उनका पुत्र पृथ्वी शाह अल्प आयु का था इसलिए रानी कर्णावती पृथ्वी शाह की संरक्षिका के रूप में गढ़वाल का राज-पाठ संभाल रही थी।
मुग़ल शासक शाहजहाँ के सेनापति नवाजत खां के आक्रमण के बाद रानी कर्णावती ने बहुत ही बहादुरी और सूझबूझ के साथ मुगल सेना को हराया था।
उन्होंने मुगल सैनिको को पकड़ा और पकड़ने के बाद मुगल सैनिको के नाक काट दिए और तभी से उनका नाम नककटी रानी पड़ गया और उन्हें इस नाम से संभोदित किया जाने लगा।
रानी कर्णावती ने करनपुर नामक नगर की भी स्थापना करी थी।
पृथ्वी शाह
जैसा की अभी हमने आपको बताया की महिपत शाह की जल्दी मृत्यु के बाद रानी कर्णावती को पृथ्वी शाह की संरक्षिका के रूप में गढ़वाल का राज-पाठ संभालना पड़ा था और इसके कारण पृथ्वी शाह सिर्फ 7 वर्ष की आयु में परमार वंश के अगले शासक बन गए थे।
इन्होने पृथ्वीपुर नामक शहर की स्थापना करी थी।
इनके काल में मुगल शासक औरंगज़ेब के बड़े भाई दारा शिकोह का पुत्र सुलेमान शिकोह औरंगज़ेब से भागते हुए पृथ्वी शाह के पास शरण मांगने आया था।
औरंगज़ेब ने अपने तीन भाइयों से युद्ध करके उन्हें हरा दिया था और अपने पिता शाहजहाँ को कैद करके मुगल वंश का अगला शासक बन गया था और अपने विरोधियों की हत्या कर रहा था इसलिए औरंगज़ेब के बड़े भाई दारा शिकोह ने अपने पुत्र सुलेमान शिकोह को पृथ्वी शाह के पास शरण लेने के लिए भेजा था।
पृथ्वी शाह ने सुलेमान शिकोह को अपनी शरण में रहने के लिए स्वीकार कर लिया था।
सुलेमान शिकोह ने 17 व्यक्तियों के साथ गढ़वाल में शरण ली थी।
पृथ्वी शाह के पुत्र मेदनी शाह ने अपने पिता के साथ विद्रोह किया था और सुलेमान शिकोह को पकड़कर औरंगज़ेब को वापस सौंप दिया था।
इस कार्य के लिए पृथ्वी शाह ने अपने पुत्र मेदनी शाह को देशनिकाला की सजा दे दी थी।
मेदनी शाह को पराक्रमी राजा का डरपोक पुत्र भी कहा गया है।
1662 में औरंगज़ेब ने मेदनी शाह की दिल्ली में मृत्यु की सूचना पृथ्वी शाह को दी थी।
पृथ्वी शाह और मानधनता प्रकाश के बीच हाटकोटी की संधि भी होती है।
पृथ्वी शाह के राजगद्दी त्यागने के बाद फतेहशाह राजा बनता है और औरंगज़ेब फतेहशाह को राजा बनने की बधाई भी देता है।
फतेह शाह
यह मुगल शासक औरंगज़ेब के समकालीन था और इन्हें “गढ़वाल का शिवाजी” के नाम से भी जाना जाता है और इसके साथ-साथ इन्हें “गढ़वाल के अकबर” के नाम से भी जाना जाता है।
यह भी 12 वर्ष की अल्प आयु में ही शासक बन गए थे और इनकी संरक्षिका के रूप में कटोची देवी ने गढ़वाल का राज-पाठ संभाला था।
फतेह शाह का शासनकाल गढ़वाल के स्वर्ण काल के रूप में माना जाता है।
इनका गुरु गोबिंद सिंह के जैसे घोड़े पर बैठा एक चित्र भी मिलता है।
इन्होंने अपने शासनकाल में परमार वंश की सीमाओं को बहुत ज्यादा बढ़ाया और इन्हीं के काल में ज्यादा सीमाओं का विस्तार हुआ था।
जैसे मुगल शासक अकबर के दरबार में उनके नौ रत्न रहते थे, उसी प्रकार फतेहशाह के भी दरबार में उनके नौ रत्न रहते थे और उनके नाम कुछ इस प्रकार थे :
हरिदत्त थपलियाल, शशिधर डंगवाल, सहदेव चंदोला, हरिदत्त नौटियाल, खेतराम धस्माणा, कीर्तिराम कैंथोला, वासवानन्द बहुगुणा, सुरेशानन्द बड़थ्वाल, रुद्रिदत्त किमोठी
इन्होंने सहारनपुर पर आक्रमण करके वहां फतेहपुर नामक नगर की स्थापना की थी।
फतेहशाह ने देहरादून में एक गुरुद्वारा बनाने के लिए मदद की और इसके लिए इन्होंने गुरु रामराय को बुलाया था और इस गुरूद्वारे की आय के लिए खुड़बुड़ा, राजपुर, चामासारी नामक तीन गाँव भी दान में दिए थे।
इनके काल के बारे में हमें विभिन्न पुस्तकों से जानकारी प्राप्त होती है जैसे:
कवि रतन ने इनके बारे में फतेह प्रकाश / फतेह शाह नामक पुस्तक की रचना की और इसमें कवि रतन ने इनको शील का सार, हिन्दुओं का रक्षक और उदण्डो को दंड देने वाले की संज्ञा दी है।
मातिराम ने इनके बारे में वृन्त कौमुदी / छंदसार पिंगल नामक पुस्तक की रचना की और इसमें मातिराम ने इनकी तुलना शिवाजी से की है।
फतेहशाह ने सिरमौर का युद्ध वहां के शासक मेदनी प्रकाश के साथ लड़ा था और भंगाडी का युद्ध सिख गुरु गोबिंद सिंह के साथ लड़ा था।
उपेंद्र शाह
फतेहशाह के बाद उनका पुत्र शासक बनता है, परंतु बग्वाल के दिन इनकी मृत्यु हो जाती है।
प्रदीप शाह
यह भी 5 वर्ष की अल्प आयु में शासक बन गए थे, इसलिए राजमाता जिया कनकदेई ने उनकी संरक्षिका के रूप में गढ़वाल का राज-पाठ संभाला था।
इनको महाराजाधिराज की उपाधि भी मिली थी।
उस समय 1743 में कुमाऊँ में शासन कर रहे चंद वंश के शासक कल्याण चंद चतुर्थ पर रोहिल्लों ने आक्रमण कर दिया था और उस समय प्रदीप शाह ने कल्याण चंद चतुर्थ की मदद की थी।
1773 में गढ़वाल और कुमाऊँ दोनों के साथ रोहिल्लों का एक दूनागिरी का युद्ध होता है और इस युद्ध में रोहिल्लों को विजय प्राप्त हुई थी।
ललित शाह
यह कुमाऊँ में चंद शासक दीप चंद के समकालीन थे।
इनके 4 पुत्र होते हैं जिनका नाम जयकृत शाह, प्रद्युमन शाह, पराक्रम शाह, प्रीतम शाह था।
इन्होंने कुमाऊँ पर आक्रमण किया था और आक्रमण करने का निमंत्रण इनको कुमाऊँ के ही मंत्री हर्षदेव जोशी ने दिया था।
1777 में बग्वाली पोखर युद्ध गढ़वाल और कुमाऊँ के बीच होता है, जिसमें गढ़वाल की तरफ से ललित शाह थे और कुमाऊँ की तरफ से मोहन चंद थे।
इस युद्ध में गढ़वाल शासक ललित शाह को विजय प्राप्त हुई थी और इसके बाद उन्होंने अपने पुत्र प्रद्युमन शाह को कुमाऊँ की राज गद्दी में बैठाकर वहां का राजा नियुक्त कर दिया था।
कुमाऊँ से युद्ध के बाद लौटते समय गनाई गीवाड़ दुलड़ी नामक स्थान में इनकी मलेरिया के कारण मृत्यु हो जाती है।
1. जयकृत शाह – यह प्रद्युमन शाह का सौतेला भाई था, 1785 में जयकृत शाह और प्रद्युमन शाह के बीच एक कपरोली का युद्ध होता है और इस युद्ध में गढ़वाल सेना को विजय प्राप्त होती है।
1785 में ही जोश्याणी कांड होता है जिसमें हर्षदेव जोशी गढ़वाल पर आक्रमण करके बहुत लूटपाट करते हैं।
प्रद्युमन शाह
अपने सौतेले भाई जयकृत शाह की 1786 में मृत्यु के बाद प्रद्युमन शाह गढ़वाल के भी राजा बन जाते हैं।
ये पहले शासक होते हैं जिसने गढ़वाल और कुमाऊँ पर एक साथ अपनी सत्ता स्थापित करी होती है।
जब प्रद्युमन शाह गढ़वाल के भी शासक बन गए थे तब उनके भाई पराक्रम शाह ने उनके खिलाफ विद्रोह भी किया था।
इनके गढ़वाल की राजगद्दी सँभालने के बाद कुमाऊँ के राजपाठ का कार्यभार हर्षदेव जोशी ने संभाला था।
गढ़ जीता संग्राम / गणिका नाटक जिसके रचयिता मौलाराम हैं, उन्होंने अपनी रचना में पराक्रम शाह के प्रद्युमन शाह के खिलाफ उसके विद्रोह का उल्लेख किया है और इसके साथ उन्होंने पराक्रम शाह को एक दुराचारी, चरित्रहीन और विलासी राजकुमार की संज्ञा दी है।
पालिग्राम का युद्ध
जैसा की हमने अभी आपको बताया की ललित शाह के मोहन चंद को हराने के बाद उनका पुत्र प्रद्युमन शाह कुमाऊँ की गद्दी पर बैठता और हर्षदेव जोशी कुमाऊँ का कार्यभार संभालता है।
बाद में 1786 में मोहन चंद दुबारा वापस आता है और हर्षदेव जोशी और प्रद्युमन शाह से पालिग्राम का युद्ध लड़ता है और इसमें मोहन चंद को विजय प्राप्त होती है और वह दुबारा कुमाऊँ की राजगद्दी पर बैठ जाता है।
1788 में हर्षदेव जोशी ने दुबारा मोहन चंद से युद्ध किया और इस युद्ध में मोहन चंद की मृत्यु हो जाती है और फिर हर्षदेव जोशी ने शिव चंद को कुमाऊँ की राज गद्दी पर बैठाया था।
बाद में शिव चंद से महेंद्र चंद युद्ध करता है और महेंद्र चंद को विजय प्राप्त होती है और कुमाऊँ पर महेंद्र चंद की सत्ता स्थापित हो जाती है, इस क्रम में गढ़वाल पर प्रद्युमन शाह ही राज कर रहे होते हैं।
दोस्तों, आप सबको यह सब अच्छे से समझने के लिए कुमाऊँ के चंद वंश और गढ़वाल के परमार वंश दोनों को एक साथ मिलाकर पढ़ना होगा अर्थात अगर आप दोनों वंशों को साथ में जोड़कर पढ़ेंगे तो अच्छे से समझ आएगा क्यूंकि दोनों ही वंश समकालीन ही चल रहे थे और आपस में दोनों वंशो की काफी घटनाएं होती है।
चलिए दोस्तों, अब आगे बढ़ते हैं, जैसा की हमने आपको बताया की कुमाऊँ पर महेंद्र चंद आ जाते हैं, और इस क्रम में गढ़वाल पर प्रद्युमन शाह ही राज कर रहे होते हैं।
तब हर्षदेव जोशी 1790 में नेपाल के गोरखाओं को कुमाऊँ पर आक्रमण करने का निमंत्रण देते हैं और गोरखाओं और महेंद्र चंद के बीच हवालाबाग का युद्ध होता है।
गोरखाओं को विजय प्राप्त होती है और वे कुमाऊँ पर अपनी सत्ता स्थापित कर लेते हैं और कुमाऊँ में चंद वंश की समाप्ति हो जाती है और यह हमने चंद वंश के क्रम में भी आपको बताया था।
यह सब हमने परमार वंश के क्रम में आपको इसलिए बताया क्यूंकि कुमाऊँ पर तो गोरखाओं ने चंद वंश का अंत कर दिया था परंतु गढ़वाल पर अभी भी परमार वंश का राज चल रहा था अर्थात प्रद्युमन शाह का राज गढ़वाल पर चल रहा था।
इसके अगले ही वर्ष 1791 में गोरखाओं ने गढ़वाल पर भी आक्रमण किया जिसे लंगूरगढ़ का युद्ध कहा जाता है और गोरखाओं का यह गढ़वाल पर प्रथम आक्रमण था।
इसी क्रम में 1795 में गढ़वाल में बहुत भयंकर अकाल भी पड़ जाता है और इसके बाद 1 सितम्बर, 1803 में एक विनाशकारी भूकंप भी गढ़वाल में आता है जिसकी तीव्रता 9.0 के आसपास थी।
1803 में ही गोरखाओं ने गढ़वाल पर अपना दूसरा आक्रमण किया, जिसे बाड़ाहाट का युद्ध कहते हैं और एक तीसरा युद्ध भी गोरखाओं के द्वारा गढ़वाल के विरुद्ध किया गया जिसे चमुआ या चम्बा का युद्ध कहा जाता है।
अंत में 14 मई, 1804 देहरादून के खुड़बुड़ा नामक मैदान में गोरखाओं ने आक्रमण किया, जिसे खुड़बुड़ा का युद्ध कहा जाता है और इस युद्ध में गोरखाओं को विजय प्राप्त होती है और दुर्भाग्यवश प्रद्युमन शाह की इस युद्ध में मृत्यु हो जाती है।
प्रद्युमन शाह ने गोरखाओं से युद्ध करने के लिए अपना राज सिंहासन तक सारनपुर में बेच दिया था।
श्री डबराल द्वारा इसको देखते हुए प्रद्युमन शाह के शासन काल को निर्धनता की खोह में डूबा और कुशासन कहकर संबोधित किया गया है।
इस प्रकार कुमाऊँ में चंद वंश और गढ़वाल में परमार वंश का अंत गोरखाओं के द्वारा किया जाता है और सम्पूर्ण गढ़वाल और कुमाऊँ में गोरखाओं का राज स्थापित हो जाता है।
गोरखाओं का शासनकाल
History of Uttarakhand in Hindi – जैसा की हमने आपको बताया की हर्षदेव जोशी द्वारा नेपाल के गोरखाओं को आक्रमण के लिए आमंत्रित किया जाता है अर्थात यह गोरखा लोग नेपाली मूल से संबंध रखते थे।
यह अपनी सत्ता सैन्य शासन के आधार पर चलाते थे और इसके साथ साथ स्वभाव अत्यंत लड़ाकू था।
नेपाल के अंतर्गत रियासतें होती थी और ये कुल 24 रियासतें थी और इन रियासतों को चौबीसी के नाम से जाना जाता था।
दोस्तों, गढ़वाल और कुमाऊँ दोनों क्षेत्रों में अब ये राज कर रहे थे तो हम दोनों क्षेत्रों में गोरखा शासन के बारे में जानेंगे:
गोरखाओं का कुमाऊँ में शासन ( 1790 – 1815 )
1790 में जब गोरखाओं ने कुमाऊँ पर हर्षदेव जोशी के आमंत्रण पर आक्रमण किया था तब गोरखाओं के राजा रण बहादुर शाह थे, जिनको स्वामी निर्गुणानंद भी कहा जाता है।
उस समय गोरखा सेना का नेतृत्व जगजीत पांडेय, अमर सिंह थापा, सुरसिंह थापा आदि ने किया था।
नेपाल के राजा उत्तराखंड में खुद शासन नहीं चलाते थे, उनकी जगह पर उन्होंने प्रतिनिधि नियुक्त कर रखे थे और वे प्रतिनिधि उत्तराखंड की शासन व्यवस्था सँभालते थे और इन प्रतिनिधयों को सूबेदार या सुब्बा कहा जाता था।
कुमाऊँ में नेपाल के सूबेदार या सुब्बा कुछ इस प्रकार हैं:
1. जोगमल शाह – यह प्रथम नेपाली सुब्बा था जिसने कुमाऊँ की शासन व्यवस्था संभाली थी।
2. काजी नरसिंह – यह दूसरा नेपाली सुब्बा था जिसने कुमाऊँ की शासन व्यवस्था संभाली थी और इसके काल में मंगल की रात की घटना हुई थी।
3. अजब सिंह थापा
4. रुद्रवीर सिंह
5. धौकल सिंह
6. गोरेश्वर
7. ऋतुराज
8. बमशाह चोतरिया – यह कुमाऊँ का आखिरी सुब्बा था।
गोरखाओं का गढ़वाल में शासन ( 1804 – 1815 )
1804 में खुड़बुड़ा के युद्ध के समय गोरखाओं के राजा गीवार्ण युद्ध विक्रम शाह थे।
जैसा की हमने आपको बताया की नेपाल के राजा उत्तराखंड में खुद शासन नहीं चलाते थे, उनकी जगह पर उन्होंने प्रतिनिधि नियुक्त कर रखे थे और वे प्रतिनिधि उत्तराखंड की शासन व्यवस्था सँभालते थे और इन प्रतिनिधयों को सूबेदार या सुब्बा कहा जाता था।
गढ़वाल में भी यही सुब्बे शासन व्यवस्था चलाते थे और वे कुछ इस प्रकार हैं:
1. अमर सिंह थापा – ये गढ़वाल का प्रथम नेपाली सुब्बा था, इसकी नियुक्ति रण बहादुर शाह के द्वारा की गई थी और अमर सिंह थापा को “काज़ी” नामक उपाधि भी नेपाल सरकार द्वारा दी गई थी।
अमर सिंह थापा ने गंगोत्री मंदिर को भी बनवाया था।
2. रणजोर सिंह थापा – ये गढ़वाल का दूसरा नेपाली सुब्बा था, इसको दानवीर कर्ण की उपाधि मौलाराम के द्वारा दी गयी थी।
इसके द्वारा विचारी ( जज ) और अविचारी ( अधिशासक ) जैसे पदों का सृजन भी किया था।
3. हस्तिदल चोतरिया – इसने किसानों के लिए लगान दर कम की थी और किसानों के लिए तकावी रिम दिया था।
गोरखाओं ने अपने शासन काल में उत्तराखंड में प्रजा को बहुत ज्यादा प्रताड़ित किया था, उनकी शासन प्रणाली बहुत जटिल थी और उन्होंने बहुत ज्यादा अलग-अलग प्रकार के कर उत्तराखंड की प्रजा पर लगाए हुए थे, जिसके कारण प्रजा बहुत दुखी थी।
गोरखाओं ने अपने मुआवजों की पूर्ति के लिए प्रजा के परिवार वालों तक को दास के रूप में बेचना शुरू कर दिया था और यदि किसी को दास के रूप में नहीं ख़रीदा जाता था तो उन्हें हर की पौड़ी, हरिद्वार के समीप भीमगोड़ा बेचने के लिए भेज दिया जाता था।
कहा जाता है की गोरखाओं ने हरिद्वार में दास बाजार में दासों के खरीदने और बेचने का स्थान बना रखा था।
गोरखाओं की उत्तराखंड में शासन प्रणाली
दोस्तों, अब हम गोरखाओं की शासन प्रणाली के बारे में जानेंगे:
1. गोरखा अपनी सत्ता सैन्य शासन के आधार पर चलाते थे, इन्होने अपनी सेना को दो भागों में विभाजित कर रखा था।
एक भाग स्थाई भाग था जिसे जागचा व जगरिया कहा जाता था और दूसरा भाग अस्थाई था जिसे ढाकरिया व ढाकचा कहा जाता था और खुंखरी सेना का प्रमुख हथियार हुआ करती थी।
2. इन्होंने अपनी शासन प्रणाली में भूमि को उसकी उर्वरता के हिसाब से पांच भागों में विभाजित किया था जैसे:
( i ) अबल
( ii ) दम
( iii ) सोम
( iv ) चाहर
( v ) सुखवादी
गोरखा जब भूमि दिया करते थे तब उस भूमि को दस्तूर कहा जाता था।
3. गोरखा सैनिक अपने मुताबिक कर की वसूली किया करते थे और इस प्रक्रिया को बलि या बालि नाम दिया जाता था।
4. गोरखाओं ने उनके काल में अल्मोड़ा में प्रथम अदालत को स्थापित किया था और मुकदमों का कार्यभार विचारी अर्थात जज को दिया जाता था।
5. इतिहासकार ट्रेल ने बताया की गोरखाओं के शासनकाल में अगर कोई अपराध करता था तो वे उसके हाथ या नाक काट दिया करते थे।
6. ब्राह्मणों के लिए भी दंड की व्यवस्था थी जैसे की देश निकाला, चुटिया काटना, जनेयू उतारना आदि जैसी सजाएं निर्धारित की गई थी।
7. गोरखाओं के शासनकाल में सुनारों को सुनवार, नाइ को नो, दासों को कठुआ, शिल्पकारों को कामी कहकर पुकारा जाता था।
गोरखाओं की उत्तराखंड में कर प्रणाली
दोस्तों, अब हम गोरखाओं की कर प्रणाली के बारे में जानेंगे:
1. भूमि से लिया जाने वाला कर अर्थात भू-राजस्व गोरखाओं की आय का मुख्य स्त्रोत था, इसके साथ पुंगड़ी भी भूमि से संबंधित कर हुआ करता था।
2. इनके शासनकाल में कोई भी उत्सव मनाया जाता था तो उसके लिए कर लिया था और उसे सोन्य फागुन कर के नाम से जाना जाता था।
3. विवाह और शुभ अवसरों में टीका भेंट नामक कर लिया जाता था।
4. जिसका कोई पुत्र नहीं होता था उससे मरो नामक कर लिया जाता था और एक कर कपड़ो पर भी लगता था जिसे तानकर कहा जाता था।
5. इनके शासनकाल में हर परिवार से कर लिया जाता था जिसे मो कर कहा जाता था और किसी की छिपाई गयी संपत्ति पर बहता नामक कर लिया जाता था।
6. खस जाति के जमींदारों से अधनी दफ्ती कर लिया जाता था और जगरियों व ब्राह्मणों से मिझारी कर लिया जाता था।
7. युद्ध के समय प्रजा से मांगा नामक कर लिया जाता था और गाँव छोड़कर भागने वालों से रहता नामक कर लिया जाता था।
8. प्रजा को अपने जानवरो को चराने के लिए दोनिया नामक कर देना होता था और प्रजा द्वारा सूबेदारों को तिमारी नामक कर दिया जाता था।
9. ब्राह्मणों पे जमीन हथियाने पर कुसही नामक कर और सायर नामक कर सीमा कर के रूप में लिया जाता था।
इतने सारे कर गोरखाओं ने प्रजा पर लगा रखे थे, जिसके कारण जनता काफी परेशान थी।
टिहरी रियासत की स्थापना ( 1815 )
इस समय अंग्रेजों ने भी भारत के बड़े भू-भाग पर अपना कब्ज़ा कर लिया था।
गोरखाओं ने अब अपने क्षेत्रों को और ज्यादा बढ़ाने के बारे में सोचा और वे बार-बार अंग्रेजों के क्षेत्रों में हस्तक्षेप करने लग गए थे, जिसके कारण गोरखाओं और अंग्रेजों के बीच भी युद्ध होने लग गए थे।
परमार वंश के राजा प्रद्युमन शाह जिनको गोरखाओं ने गढ़वाल पर आक्रमण करते हुए खुड़बुड़ा के युद्ध में मार गिराया था, उनके पुत्र सुदर्शन शाह उसके बाद अंग्रेजो के क्षेत्रों में चले गए थे।
गोरखाओं और अंग्रेजों के बीच युद्धों को देखते हुए सुदर्शन शाह ने भी वापस गढ़वाल पर सत्ता स्थापित करने और अपने पिता प्रद्युमन शाह की मृत्यु का बदला लेने के लिए वह भी अंग्रेजों के साथ मिल गए और साथ ही साथ अंग्रेजों से उनके राज्य को वापस जीतने की मदद भी मांगी थी।
संगौली की संधि
अंग्रेजों ने गोरखाओं को 1815 में पराजित किया और परिणामस्वरूप चम्पारण, बिहार में 2 दिसम्बर, 1815 को गोरखाओं और अंग्रेजों के बीच “संगौली की संधि” हुई थी।
यह संधि राजगुरु गजराज मिश्रा व उनके सहायक चंद्र शेखर उपाध्याय ( नेपाल की तरफ से ) और ब्रैड शॉ ( अंग्रेजों की तरफ से) के बीच हुई थी।
नेपाल सरकार इस संधि को पूर्णतः स्वीकार नहीं करती है, इसलिए फिर 28 फरवरी, 1816 में ऑक्टर लोनी ने अंग्रेजों की तरफ से नेपाल के काठमांडू से निकट ही मख्वानपुर पर भयंकर आक्रमण कर दिया और इसमें 800 के करीब गोरखा सैनिक मारे जाते हैं।
अंग्रेजों के इस भयंकर आक्रमण के बाद नेपाल सरकार इस संधि को पूर्णतः स्वीकार कर लेती है और 4 मार्च, 1816 को इस संधि को नेपाल सरकार द्वारा पूर्णतः स्वीकार कर लिया जाता है और लागु भी कर लिया जाता है।
संगौली की संधि के मुख्य बिंदु कुछ इस प्रकार थी:
1. नेपाल के दक्षिणी तराई क्षेत्रों को गोरखाओं को अपने अधिकार क्षेत्र से हटाना होगा।
2. काठमांडू, नेपाल में एक ब्रिटिश अधिकारी नियुक्त होगा जिसका खर्च नेपाल सरकार ही उठाएगी।
3. ब्रिटिश सेना के अंतर्गत गोरखाओं को भर्ती होना होगा।
4. पूर्ण गढ़वाल और कुमाऊँ के क्षेत्रों से गोरखाओं को अपना अधिकार हटाके यहाँ से जाना होगा।
5. नेपाल और उत्तराखंड के बीच काली नदी को सीमा रेखा माना गया और नदी के बाएं तरह गढ़वाल व कुमाऊँ और नदी की दायें तरफ नेपाल का निर्धारण किया गया था।
अंग्रेजों ने गढ़वाल और कुमाऊँ से गोरखाओं को हटा दिया था, जिसमे सुदर्शन शाह ने भी वापस गढ़वाल पर सत्ता स्थापित करने और अपने पिता प्रद्युमन शाह की मृत्यु का बदला लेने के लिए अंग्रेजों का साथ दिया था।
जैसा की सुदर्शन शाह ने अंग्रेजों से अपना राज्य वापस जीतने की मदद मांगी थी, तब अंग्रेजों ने सुदर्शन शाह से उनका राज्य वापस देने के लिए 7 लाख रूपए की मांग की थी, अंग्रेजों का यह कहना था की उनके भी कई सैनिक इस युद्ध में मारे गए है और उनको काफी हानि भी पहुंची है।
सुदर्शन शाह यह राशि अंग्रेजों को नहीं दे पाते हैं, जिस कारण अंग्रेज सुदर्शन शाह को कुछ ही भाग राज करने के लिए देते हैं, जिसमे टिहरी का क्षेत्र, थोड़ा उत्तरकाशी का क्षेत्र और थोड़ा देहरादून का क्षेत्र था।
अब परमार वंश की राजधानी जो श्रीनगर हुआ करती थी, वह अब अंग्रेजों के अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत आती थी इसलिए फिर सुदर्शन शाह 28 दिसंबर, 1815 को टिहरी को अपनी राजधानी बना लेते हैं और इस दिन को टिहरी राज्य स्थापना दिवस के रूप में भी मनाया जाता है और तब से टिहरी रियासत का दौर शुरू हो जाता है।
टिहरी रियासत के परमार राजा
सुदर्शन शाह ( 1815 – 1859 )
दोस्तों, प्रद्युमन शाह की मृत्यु के बाद जो परमार वंश गढ़वाल से समाप्त हो गया था, अब वह अंग्रेजों की मदद से टिहरी क्षेत्र में क्यूंकि बाकी का हिस्सा अंग्रेजों ने अपने पास रख लिया था, वह परमार वंश टिहरी में टिहरी रियासत के राजाओं के रूप में फिर से स्थापित हो जाते हैं।
सुदर्शन शाह परमार वंश के 55वे शासक और टिहरी रियासत के पहले शासक बनते हैं।
1815 में इनके समय में गढ़वाल का का विभाजन हुआ था, क्यूंकि अंग्रेजों ने एक हिस्सा अपने पास और एक हिस्सा सुदर्शन शाह को टिहरी रियासत के रूप में दिया था।
1823 में सुदर्शन शाह ने टिहरी का प्रथम भूमि बंदोबस्त किया था।
1848 में सुदर्शन शाह ने टिहरी में एक राज दरबार भी बनवाया, जिसे पुराना दरबार के नाम से भी जाना जाता है।
टिहरी की प्रजा के द्वारा सुदर्शन शाह को बोलन्दा बद्री नाम से भी पुकारा जाता था।
भवानी शाह ( 1859 – 1871 )
यह टिहरी रियासत का दूसरा शासक था और सुदर्शन शाह का बड़ा पुत्र था।
इसके काल में 1861 में ब्रिटिश कमिश्नर हेनरी रैमजे ने बारह आना बीसी नामक भूमि व्यवस्था लागू की थी।
प्रताप शाह ( 1871 – 1886 )
यह टिहरी रियासत का तीसरा शासक था।
इन्होंने टिहरी में अंग्रेजी शिक्षा का आरम्भ किया और ऐसा करने वाले ये प्रथम शासक थे, 1883 में इनके द्वारा एक अंग्रेजी विद्यालय की स्थापना करी गई जो 8 कक्षा तक का था।
इन्होंने टिहरी में एक प्रिंटिंग प्रेस की शुरुवात करी और ऐसा करने वाले भी ये प्रथम शासक ही थे, इन्होंने इसका नाम प्रताप प्रिंटिंग प्रेस रखा था।
1862 में इनके द्वारा एक संस्कृत हिंदी पाठशाला की शुरुवात देवप्रयाग में की गई थी।
1877 में इन्होंने प्रताप नगर नामक शहर की स्थापना करी थी।
इनके काल में 1883 में टिहरी में प्रथम अस्पताल की स्थापना हुई थी।
कीर्ति शाह ( 1886 – 1913 )
यह टिहरी रियासत का चौथा शासक था।
1892 तक रानी गुलेरिया कुन्दन देवी ने कीर्ति शाह की संरक्षिका के रूप में टिहरी रियासत का राज-पाठ संभाला था।
रानी गुलेरिया ने टिहरी में स्थित बहुत से मंदिरों का निर्माण भी करवाया था जैसे रंगनाथ, केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगामाता आदि।
1892 में रानी गुलेरिया ने सन्यास लेकर सारा राजयभार कीर्तिशाह को दे दिया था।
कीर्तिशाह को जनता का प्रिय शासक और इस वंश का सबसे योग्य शासकों में माना जाता है।
कीर्ति शाह ने प्रताप हाई स्कूल की शुरुवात करी थी।
अंग्रेजों के द्वारा कीर्ति शाह के लिए बहुत सी सम्मान जनक बाते भी कही गईं थी जैसे:
1907 में कैम्पवेल के द्वारा कीर्ति शाह के लिए यह कहा गया की कीर्ति शाह जैसा राजा मैंने पुरे भारत में नहीं पाया।
1892 में लार्ड लैंसडौन के द्वारा कीर्ति शाह के लिए यह कहा गया की भारतीय राजाओं को कीर्ति शाह को अपना आदर्श मानना चाहिए और उनसे प्रेरणा लेनी चाहिए।
1898 में अंग्रेजों ने कीर्ति शाह को Sir व कंपोनिया ऑफ़ इंडिया नामक उपाधि दी और 1903 में अंग्रेजों ने कीर्ति शाह को CSI ( कमांडर स्टेट ऑफ़ इंडिया ) नामक उपाधि दी थी।
कीर्ति शाह को भक्तदर्शन में राजश्री नामक उपाधि प्रदान करी गई है।
1900 में कीर्तिशाह ने इंग्लैंड की यात्रा भी की थी और वहां उनके सम्मान में उनके लिए 11 तोपों की सलामी भी दी गयी थी।
कीर्ति शाह ने टिहरी में बहुत से निर्माण भी करवाए, जो कुछ इस प्रकार है:
1. 1891 में टिहरी प्रताप स्कूल की स्थापना कीर्ति शाह के द्वारा की गई, कैम्पवेल बोर्डिंग हाउस और हिबेट संस्कृत पाठशाला की स्थापना 1907 और 1909 में क्रमशः की गई।
2. नगरपालिका की स्थापना टिहरी में करी गई।
3. बैंक ऑफ़ गढ़वाल की स्थापना टिहरी में करी गई।
4. 1897 में टिहरी में नए राजभवन का निर्माण करवाया गया था।
5. कुष्ट आश्रम की स्थापना उत्तरकाशी में करी गई थी।
6. कीर्तिनगर नामक शहर की स्थापना की गई और यह स्थापना 1894 में की गई थी।
7. 1898 में टिहरी में एक घंटाघर की स्थापना महारानी विक्टोरिया के जन्मदिन के उपलक्ष में की गई थी।
8. टिहरी की प्रजा को प्रथम बिजली की सुविधाएं इनके काल में ही प्राप्त हुई थीं।
9. 1902 में इन्होंने सर्वधर्म सम्मेलन का आयोजन टिहरी में करवाया था।
10. टिहरी रियासत में गढ़वाल दरबार गैजेट कीर्ति शाह के द्वारा प्रकाशित किया गया था।
11. स्वामी रामतीर्थ 1902 में टिहरी में आये थे, जिसके बाद उनको कीर्ति शाह ने एक अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक सम्मेलन के लिए जापान भेजा था।
12. इन्होंने एक वेदशाला का निर्माण भी करवाया था।
नरेंद्र शाह ( 1913 – 1946 )
यह टिहरी रियासत का पांचवा शासक था।
यह 15 वर्ष की अल्प आयु में राजा बने, इसलिए राजमाता नेपोलिया को इनकी संरक्षिका बनकर टिहरी रियासत का राज-पाठ संभालना पड़ा था।
1919 में नरेंद्र शाह ने टिहरी में पंचायतों की स्थापना करी थी।
1920 में नरेंद्र शाह ने छात्रविति निधि की और इसके साथ कृषि बैंक की भी स्थापना करी थी।
इन्होंने अपनी कुलदेवी राजराजेश्वरी मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया और 1921 में देवलगढ़ की यात्रा भी की थी।
इनके काल में टिहरी में पहली बार जनगणना की प्रक्रिया हुई और इसके साथ इन्होंने नरेंद्र नगर नामक शहर की भी स्थापना करी थी।
नरेंद्र शाह के द्वारा सावर्जनिक पुस्तकालय की शुरुवात करी गई और इसके साथ राज्य प्रतिनिधि सभा की भी स्थापना करी गई थी।
1923 में एक आधुनिक चिकित्सालय की भी स्थापना नरेंद्र शाह के द्वारा करी गयी थी।
जो नरेंद्र नगर इन्होंने बसाया था वहां एक राजभवन का भी निर्माण इन्होंने करवाया था और इसके साथ इस शहर को 1925 में अपनी ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाने का भी फैसला लिया था और इसी शहर में इन्होंने टिहरी उच्च न्यायलय की स्थापना भी करी थी।
प्रताप इंटर कॉलेज और कन्या पाठशाला की स्थापना 1940 और 1942 में क्रमशः की गई थी।
इन्होंने डोरी पैमाइश नामक प्रथा भी चलाई थी, जो भूमि व्यवस्था से संबंधित थी और 1918 में न्यायालों में इन्होंने नरेंद्र हिन्दू लॉ का प्रयोग किया था।
नरेंद्र शाह को काफी उपाधियाँ भी दी गई थी, जो इस प्रकार है:
1. बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के द्वारा नरेंद्र शाह को L.L.D की उपाधि दी गई थी।
2. ब्रिटिश सरकार के द्वारा इन्हें लेफ्टिनेंट व अलंकारी की उपाधि दी गई थी।
3. इन्होंने अपने काल में सड़कों का खूब प्रसार किया, इसलिए इनको शेरशाह सूरी की संज्ञा भी दी जाती है।
नरेंद्र शाह के समय में कुछ प्रमुख घटनाएं होती हैं, वे कुछ इस प्रकार हैं:
1. रवाई काण्ड या तिलाड़ी काण्ड – कुछ आंदोलनकारी यमुना नदी के निकट वन संबंधी मुद्दों को लेकर आंदोलन कर रहे थे, इसको देखते हुए चक्रधर जुयाल जो की नरेंद्र शाह का दीवान था उसने इन आंदोलनकारियों पर गोलियां चलवा दी थी।
इसको रवाई काण्ड या तिलाड़ी काण्ड के नाम से जाना जाता है और यह घटना 30 मई, 1930 को हुई थी, इस घटना को जलियावाला बाग़ और चक्रधर जुयाल को जनरल डॉयर भी कहा जाता है।
2. श्री देव सुमन की मृत्यु – उत्तराखंड के आंदोलनकारी श्री देव सुमन की मृत्यु नरेंद्र शाह के काल में 25 जुलाई, 1944 को हो जाती है।
नरेंद्र शाह ने इन सब अप्रिय घटनाओं की वजह से 1946 में राजा की गद्दी को त्याग दिया और अपने पुत्र मानवेन्द्र शाह को राजगद्दी सौंप दी थी।
मानवेन्द्र शाह ( 1946–1949 )
यह परमार वंश और टिहरी रियासत के भी अंतिम राजा थे।
इनके पिता का नाम नरेंद्र शाह व माता का नाम इंदुमती शाह था।
इनके काल में भी प्रमुख घटनाएं होती हैं, वे इस प्रकार है:
1. अगस्त समझौता ( 19 अगस्त, 1946 )
2. सकलाना विद्रोह ( 1946 – 1947 )
3. कीर्ति नगर आंदोलन ( 1948 ) – नागेंद्र सकलानी और मोलूराम इस आंदोलन के दौरान शहीद हो गए थे।
1947 में जब भारत को आज़ादी प्राप्त हुई, तब टिहरी की प्रजा भी टिहरी में राजशाही को खत्म करके टिहरी का भारत में विलय करने की मांग करने लगी थी।
यह मांग इतनी ज्यादा और जोरो-शोरों से होने लगी की मानवेन्द्र शाह का राज चलाना कठिन हो गया था, इसलिए मानवेन्द्र शाह ने 15 जनवरी, 1949 को प्रजा की मांगो को स्वीकार कर लिया था, जिसके कारण वे परमार वंश और टिहरी रियासत के अंतिम राजा हो गए थे।
तब टिहरी का विलय भारत में 1 अगस्त, 1949 को हुआ, और टिहरी उत्तर प्रदेश के 50वे जिले रूप में भारत में जोड़ा गया था।
मानवेन्द्र शाह ने राजनीती की ओर कदम बढ़ाया और वे 1959 से लेकर 2004 टिहरी से 8 बार सांसद के रूप में भी निर्वाचित हुए थे।
परमार वंश और टिहरी रियासत के इस अंतिम राजा की 5 जनवरी, 2007 को मृत्यु हो जाती है।
दोस्तों, अभी हमने टिहरी रियासत के बारे में जाना, परंतु टिहरी रियासत के साथ-साथ अंग्रेज भी उत्तराखंड पर राज कर रहे थे, इसलिए अब हम उत्तराखंड में ब्रिटिश शासन के बारे में जानेंगे।
उत्तराखंड में ब्रिटिश शासन
दोस्तों, हमने आपको ऊपर बताया था की 1815 में सुदर्शन शाह की मदद की मांग और गोरखाओं के बार-बार अंग्रेजों के क्षेत्रों में हस्तक्षेप करने की वजह से अंग्रेजों ने गोरखाओं से युद्ध करके उनको उत्तराखंड से बाहर किया था।
जिसमें अंग्रेजों ने उत्तराखंड के ज्यादातर क्षेत्रों पर अधिकार करके टिहरी का क्षेत्र सुदर्शन शाह को दिया था।
इस क्रम में अंग्रेजों ने उत्तराखंड में शासन करने के लिए कई कमिश्नर नियुक्त करे थे, चलिए उनके बारे में जानते हैं:
उत्तराखंड में ब्रिटिश कमिश्नर
1. ई.गार्डनर ( 1815 – 1816 )
यह कुमाऊं के पहले ब्रिटिश कमिश्नर थे।
इन्होंने अंग्रेजों का पहला भूमि बंदोबस्त लागू किया और इसके साथ अल्मोड़ा से श्रीनगर तक डाक व्यवस्था को लागू किया था।
2. जी डब्ल्यू ट्रेल ( 1816 – 1835 )
इनको कुमाऊँ का पहला वास्तविक कमिश्नर माना जाता है क्यूंकि इनके समय में ही कई व्यवस्थाएं और कार्य करे गए थे।
( i ) 1816 – पूरे उत्तराखंड में डाक सेवा लागू।
( ii ) 1816 – अल्मोड़ा जेल की शुरुवात / स्थापना।
( iii ) 1817 – दून सहारनपुर में शामिल हुआ।
( iv ) 1819 – पटवारी पद का सृजन।
( v ) 1821 – पौड़ी जेल की शुरुवात / स्थापना।
( vi ) 1822 – कुमाऊँ क्षेत्र में आबकारी विभाग की शुरुवात।
( vii ) 1823 – कुमाऊँ क्षेत्र का 26 परगनों में विभाजन।
( viii ) अस्सीसाला भूमि बंदोबस्त लागू हुई।
( ix ) कुमाऊँ सीमा का पहली बार निर्धारण।
3. कर्नल गोयन ( 1836 – 1838 )
इन्होंने समाजिक कुप्रथाओं जैसे महिला विक्रय, बाल विक्रय, दास प्रथा जैसी चल रही प्रथाओं पर प्रतिबंध लगाया और इसको अपराध बताया था।
4. लसिंगटन ( 1839 – 1847 )
1839 – कुमाऊँ कमिश्नरी का गठन ( मुख्यालय – अल्मोड़ा )।
5. जे.एन.बेटन ( 1848 – 1856 )
1854 – कुमाऊँ कमिश्नरी का मुख्यालय नैनीताल को बनाया।
इनके समय को कुमाऊँ कमिश्नरी का स्वर्ण युग कहकर भी संबोधित किया जाता है।
6. हैनरी रैमजे ( 1856 – 1884 )
( i ) यह स्कॉटलैंड के रहने वाले थे, और इसके साथ डलहौज़ी के चचेरे भाई भी थे।
( ii ) 1857 की क्रांति के समय ब्रिटिश कुमाऊँ कमिश्नर।
( iii ) इनके समय को अंग्रेजों का स्वर्ण काल भी कहा जाता है।
( iv ) कुमाऊँ के बेताज बादशाह की संज्ञा दी जाती है।
( v ) राजा रामजी के नाम से भी इनको जाना जाता है।
( vi ) कुमाऊँ के सर्वाधिक लोकप्रिय कमिश्नर।
( vii ) 1863 में बिकेट नामक भूमि बंदोबस्त जो 10वा भूमि बंदोबस्त भी था, इस बंदोबस्त में प्रथम बार वैज्ञानिक पद्द्ति का इस्तेमाल किया गया था।
7. फिशर ( 1884 – 1885 )
8. एच.जी.रोस ( 1885 – 1887 )
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की जब 1885 में स्थापना हुई थी, तब एच.जी.रोस ब्रिटिश कुमाऊँ कमिश्नर थे।
गढ़वाल राइफल की स्थापना जब 1887 में हुई थी, तब भी एच.जी.रोस ही ब्रिटिश कुमाऊँ कमिश्नर थे।
9. आर. ई. हैंबलीन ( 1899 – 1902 )
इनके समय की मुख्य घटनाएं कुछ इस प्रकार हैं:
( i ) 1899 – 1900 – दून में रेल आगमन।
( ii ) 1901 – गढ़वाल यूनियन की स्थापना की गई थी।
( iii ) 1902 – 1903 – नैनीताल जेल की स्थापना की गई थी।
10. ऐ. एम. डब्ल्यू. शैक्षपिएर ( 1903 – 1905 )
इनके समय में 1905 में उत्तराखंड के पहले गढ़वाली समाचार पत्र का प्रकाशन हुआ था।
11. जे. एम. कैम्पवेल ( 1906 – 1913 )
इनके समय की मुख्य घटनाएं कुछ इस प्रकार हैं:
( i ) 1906 – देश की सबसे पुरानी जल विद्युत् परियोजना ग्लोगी परियोजना का कार्य पूर्ण हुआ था।
( ii ) 1908 – जोधपुर सिंह नेगी के द्वारा कुली एजेंसी की स्थापना।
( iii ) 1909 – कुमाऊँ गवर्नमेंट गार्डन की स्थापना हुई थी।
( iv ) 1912 – अल्मोड़ा कांग्रेस की स्थापना हुई थी।
( v ) 1913 – अल्मोड़ा में होमरूल लीग की स्थापना।
12. जी. एल. विवियन ( 1939 – 1941 )
13. टी. जे. सी. ऐक्टन ( 1941 – 1943 )
1942 में हुए भारत छोड़ो आंदोलन के समय ब्रिटिश कुमाऊँ कमिश्नर।
14. डब्ल्यू. डब्ल्यू. फिनले ( 1943 – 1947 )
15. के. एल. मेहता ( 1947 – 1948 )
1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद कुमाऊँ के प्रथम भारतीय कमिश्नर।
कुमाऊँ कमिश्नरी को स्वतंत्रता प्राप्त हुई।
दोस्तों, हमने उत्तराखंड के प्राचीन इतिहास से लेकर मध्यकालीन और आधुनिक इतिहास के बारे में जाना, अब हिंदुस्तान तो आज़ाद हो गया था, परंतु उत्तराखंड का अपना कोई नाम नहीं था वह उत्तर प्रदेश राज्य के अंतर्गत ही आता था और पूर्ण उत्तर प्रदेश के नाम से ही जाना जाता था।
उत्तराखंड को एक अलग राज्य बनाने के लिए बहुत बार मांगे उठी और आंदोलन हुए, उत्तराखंड के कई लोगों ने इसके लिए अपना बलिदान भी दिया था, तो अब हम उत्तराखंड को एक अलग राज्य बनाने के इतिहास के बारे में जानेंगे।
उत्तराखंड पृथक राज्य आंदोलन
History of Uttarakhand in Hindi – दोस्तों, जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में 1938 में कांग्रेस का विशेष अधिवेशन श्रीनगर में हुआ था, उस अधिवेशन में सबसे पहली बार गढ़वाल और कुमाऊँ को जोड़कर एक अलग राज्य बनाने की बात उठी थी।
पूरन चंद जोशी द्वारा जो उस समय भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव थे, उन्होंने 1952 में भारत सरकार को उत्तराखंड को एक अलग राज्य बनाने की मांग को लेकर ज्ञापन भेजा था।
बाद में जवाहर लाल नेहरू को वीर चंद्र गढ़वाली ने भी योजना का प्रारूप दिखाया था।
फज़ल अली आयोग के द्वारा 1955 में एक अलग क्षेत्र और उत्तर प्रदेश का पुनर्गठन करने की बात रखी गई, इसको उत्तर प्रदेश के नेताओं ने खारिज कर दिया था।
टिहरी रियासत के आखरी राजा मानवेन्द्र शाह ने भी 1957 में अपने स्तर से अलग राज्य बनाने के आंदोलन का आरंभ कर दिया था।
दयाकृष्ण पांडेय को पर्वतीय राज्य परिषद का अध्यक्ष बनाया गया और गोबिंद सिंह महरा को उपाध्यक्ष और नारायण दत्त को इसका महासचिव बनाया गया था, पर्वतीय राज्य परिषद की स्थापना रामनगर में 24-25 जून, 1967 को हुई थी।
उत्तर प्रदेश की सरकार ने उसके पहाड़ी क्षेत्रों में विकास करने के लिए 1969 में पर्वतीय विकास परिषद का गठन किया था।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव पूरन चंद जोशी द्वारा कुमाऊँ राष्ट्रीय मोर्चा की स्थापना 3 अक्टूबर, 1970 में करी गई थी और इसके साथ ही साथ उन्होंने अलग राज्य बनाने की मांग भी रखी थी।
उत्तरांचल परिषद का नैनीताल में 1972 में गठन हुआ और इसके सदस्यों ने आंदोलन को आगे बढ़ाते हुए दिल्ली में धरना दिया था।
प्रताप सिंह नेगी द्वारा बद्रीनाथ से दिल्ली तक की पैदल यात्रा करी गई और इस यात्रा में उन्होंने “दिल्ली चलो” का नारा भी दिया था, यह यात्रा 1973 में तय की गई थी।
उत्तराखंड युवा परिषद की भी स्थापना 1976 में करी गई थी और इसी के सदस्यों ने 1978 में संसद का घेराव किया था।
उत्तराखंड क्रांति दल ( U.K.D ) की स्थापना 1979 में करी गई थी और इसके सबसे पहले अध्यक्ष देवी दत्त पंत थे।
पर्वतीय जन विकास समिति की मंसूरी में 24 – 25 जुलाई, 1979 को स्थापना करी गई थी।
जैसे की गढ़वाल और कुमाऊँ तब उत्तर प्रदेश के ही भाग थे, तब उत्तराखंड क्रांति दल ने पर्वतीय क्षेत्रों के 8 जिलों को जोड़कर एक अलग राज्य बनाने की मांग रखी।
यह मांग तेपन सिंह नेगी के नेतृत्व में की गई थी और इसी के साथ इन्होंने दिल्ली में रैली भी करी थी।
बाद में उत्तराखंड क्रांति दल का विभाजन 1987 में हो जाता है और इसके नेता काशी सिंह ऐरी को बनाया जाता है।
उत्तराखंड क्रांति दल द्वारा 23 नवंबर, 1987 को अलग राज्य बनाने के लिए दिल्ली में धरना दिया गया था और हरिद्वार को उत्तराखंड में मिलाने के लिए राष्ट्रपति को ज्ञापन भेजा गया था।
उत्तराखंड उत्थान परिषद ( Uttarakhand Development Council ) की स्थापना सोबन सिंह जीना के द्वारा 1988 में करी गई थी।
1989 में उत्तरांचल संयुक्त संघर्ष समिति की स्थापना करी गई थी।
द्वारिका प्रसाद उनियाल के नेतृत्व में 11-12 फरवरी, 1989 को रैली भी करी गई थी।
गैरसैण, चमोली में 1992 में उत्तराखंड क्रांति दल का अधिवेशन होता है और इस अधिवेशन में गैरसैण को राज्य की राजधानी के रूप में देखा जाता है, इसको उत्तराखंड के प्रथम ब्लू प्रिंट के रूप में भी देखा जाता है।
उस समय उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने 1993 में उत्तराखंड राज्य के लिए नगर विकास मंत्री रमाशंकर कौशिक के नेतृत्व में एक कैबिनेट समिति का गठन किया था।
इस समिति ने जिसको कौशिक समिति भी कहा जाता है, मई 1994 में एक रिपोर्ट दी थी, जिसमें गैरसैण को राजधानी बनाने की बात कही गई थी।
21 जून, 1994 में कौशिक समिति की इस बात को मान लिया गया था।
खटीमा कांड
उत्तराखंड को अलग राज्य बनाने के लिए आंदोलनकारियों द्वारा 1 सितम्बर, 1994 को खटीमा, उधम सिंह नगर में रैली चलाई जा रही थी और उस रैली के ऊपर पुलिस ने गोलियां बरसा दी थी, जिसके कारण उस रैली में कई लोग शहीद हो गए थे और इसे खटीमा कांड के नाम से भी जाना जाता है।
मंसूरी कांड
उसके अगले ही दिन 2 सितम्बर, 1994 में इस खटीमा कांड का विरोध प्रदर्शन मंसूरी के झूला घर में हो रहा था, उन विरोध कर रहे आंदोलनकारियों पर भी पुलिस ने गोलियां बरसा दी थी, जिसमे हंसा धनाई और बेला मति चौहान नामक दो महिलायें इसमें शहीद हो गई थी।
इसमें एक पुलिस अधिकारी उमा कांत त्रिपाठी की भी मृत्यु हुई थी और इस घटना को मंसूरी कांड के नाम से जाना जाता है।
रामपुर तिराहा कांड
2 अक्टूबर, 1994 को कुछ आंदोलनकारी दिल्ली में होने वाली रैली में भाग लेने के लिए जा रहे थे, रास्ते में ही पुलिस के द्वारा रामपुर तिराहा ( मुजफ्फरनगर ) में आंदोलनकारियों को पकड़ लिया गया था।
आंदोलनकारियों के साथ पुलिस ने बहुत ही बुरा व्यवहार किया, उनको बसों से नीचे उतारा गया और महिलाओं के साथ भी पुलिस ने अभद्र व्यवहार किये थे, आंदोलनकारियों पर गोलियां चलाई गई, जिसमें कई लोगों ने अपने प्राण गवाएं थे और इसको रामपुर तिराहा कांड के नाम से जाना जाता है।
इस घटनाक्रम को क्रूर शासक की क्रूर साजिश भी कहा जाता है और इसे रोम के नीरो कांड की भी संज्ञा दी जाती है।
उत्तरांचल आंदोलन संचालन समिति ने 25 जनवरी, 1995 में संविधान बचाओ यात्रा चलाई थी।
श्रीयंत्र टापू कांड
श्रीयंत्र टापू, श्रीनगर में उत्तराखंड में चल रहे ऐसे कांड और अप्रिय घटनाओं की वजह से आंदोलनकारियों ने आमरण अनशन करना शुरू कर दिया था।
पुलिस और आंदोलनकारियों में संघर्ष हुआ और यशोधर बैजवाल और राजेश रावत इसमें शहीद हो गए थे, यह घटना 10 नवंबर, 1995 को हुई थी।
अंततः 15 अगस्त 1996 में उस समय के प्रधानमंत्री एच. डी. देवगौड़ा ने उत्तराखंड को एक अलग राज्य बनाने की घोषणा दिल्ली के लालकिले से की थी।
लोकसभा में उत्तरप्रदेश पुनर्गठन विधेयक को 27 जुलाई, 2000 में पेश किया गया था और 1 अगस्त, 2000 में लोकसभा द्वारा ये विधेयक पास कर दिया गया था।
राज्य सभा द्वारा भी यह विधेयक 10 अगस्त, 2000 में पास कर दिया गया था।
उस समय के तत्कालीन राष्ट्रपति श्री आर. के. नारायण ने इस विधेयक पर 28 अगस्त, 2000 को हस्ताक्षर कर दिए थे।
दोस्तों, अंत में इतने बलिदानों और कष्टों को सहने के बाद 9 नवंबर, 2000 में भारत में उत्तरांचल नाम से यह 27वे राज्य के रूप में स्थापित हुआ था।
उत्तरांचल का नाम 1 जनवरी 2007 में बदलकर उत्तराखंड कर दिया गया था।
नित्यानंद स्वामी उत्तराखंड के पहले मुख्यमंत्री के रूप में चुने गए थे।
History of Uttarakhand in Hindi
हम आशा करते हैं कि हमारे द्वारा दी गई History of Uttarakhand in Hindi के बारे में जानकारी आपके लिए बहुत उपयोगी होगी और आप इससे बहुत लाभ उठाएंगे। हम आपके बेहतर भविष्य की कामना करते हैं और आपका हर सपना सच हो।
धन्यवाद।
बार बार पूछे जाने वाले प्रश्न
उत्तराखंड के प्रथम राजा कौन थे?
कुनिन्द वंश को उत्तराखंड में राज करने वाली पहली रजनीतिक शक्ति माना जाता है।
टिहरी रियासत का प्रथम राजा कौन था?
सुदर्शन शाह परमार वंश के 55वे शासक और टिहरी रियासत के पहले शासक बनते हैं।
कत्यूरी राजवंश का प्रथम राजा कौन था?
अभिलेखों के अनुसार कार्तिकेयपुर / कत्यूरी राजवंश के संस्थापक बसंतदेव थे, परंतु प्राचीन काल से लोगों का कहना है की इस वंश के संस्थापक वासुदेव थे।
उत्तराखंड की स्थापना कब हुई?
दोस्तों, अंत में इतने बलिदानों और कष्टों को सहने के बाद 9 नवंबर, 2000 में भारत में उत्तरांचल नाम से यह 27वे राज्य के रूप में स्थापित हुआ था।
उत्तराखंड का शाब्दिक अर्थ क्या है?
उत्तराखंड का सबसे ज्यादा उल्लेख हमें ऋग्वेद से प्राप्त होता है और इसमें उत्तराखंड को देवभूमि व मनीषियों की पूर्ण भूमि कहा गया है।
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अपने उत्तराखंड के बारे में बहुत अच्छा बताया।
Sir pdf meel sakti hai
Bahut hi la jawab blog .. soch raha hun ise likhne me kitna waqt lag gya hooga ….. hats offf 🙂
👍👍👍👍👍
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उत्तराखंड के इतिहास के बारे में बहुत विस्तृत जानकारी दी है। और उत्तराखंड का शाब्दिक अर्थ एक किताब में हमने पढ़ा था ।उत्तराखंड मतलब उत्तरा को दहेज में दिया भाग। यदि आपकी साइट में उत्तराखंड से जुड़ी लोक कथाएं भी हो तो ,सुझाइये 🙏
Sir thanks a lot a lot a lot…🙏🙏🙏 may God bless you 😊❤️